-प्रमोद भार्गव- आखिरकार केंद्र सरकार के हलफनामे और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने आधार कार्ड निराधार घोशित कर दिया। अब आधार कार्ड बनेंगे तो सही लेकिन इनकी अहमियत अनिवार्यता के बजाय वैकल्पिक ही रहेगी। हालांकि संसद की स्थायी समिति ने भी इस पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए इसके निर्माण पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। 50 हजार करोड़ की लागत वाली इस परियोजना की लोकसभा में विधेयक पेश करके स्वीकृति भी नही ली गई है। जाहिर है इतनी बड़ी परियोजना का मकसद महज सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े उद्योगों को लाभ पहुंचाना था। 18 हजार करोड़ रुपये खर्च करके अब तक लगभग 22 करोड़ आधार पहचान पत्र बना भी दिए गए हैं, कांग्रेस शासित महाराष्ट्र, राजस्थान और दिल्ली की राज्य सरकारों ने तो इस कार्ड को लोककल्याणकारी योजनाओं के लिए अनिवार्य बना दिया था। अब इस गैर संवैधानिक कार्य पर फिलहाल रोक तो लग ही गई है, अदालत ने यह सवाल भी खड़ा किया है कि यह कार्ड उन लोगों को किसी भी हाल में नहीं दिया जा सकता जो भारत के नागरिक नहीं हैं।
दरअसल असम समेत अन्य पूर्वोत्तर राज्यों और कश्मीर क्षेत्र में अवैद्य घुसपैठियों और आंतकवादियों तक को आधार कार्ड मिल जाने से भारतीय नागरिकता मिल गई है, इस कारण देश की एकता, अखण्डता और संप्रभुता खतरे में पड़ जाने की आशंकाएं देश का विपक्ष और नागरिक समाज जता रहा था।
आजादी के बाद से ही कई ऐसे कारगर उपाय होते चले आ रहे हैं, जिससे देश के प्रत्येक नागरिक को रा”टीय नागरिकता की पहचान दिलाई जा सके। मूल निवासी प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और अब आधार योजना के अंतर्गत एक बहुउद्देशीय विशिष्ट पहचान पत्र हर नगरिक को देने की देशव्यापी कवायद चल रही है। सोनिया गांधी ने कुछ समय पहले राजस्थान के उदयपुर जिले के दूदू कस्बे में 21 करोड़वां आधार कार्ड भेंट करते हुए दावा किया था कि ‘आधार विश्व की सबसे बड़ी परियोजना है, जो आम आदमी को उसकी पहचान देगी। उसका जीवन बदल जाएगा। उपभोक्ता को सरकारी मदद शत प्रतिशत मिलने की गारंटी मिल जाएगी।’
इसी परिप्रेक्ष्य में खाध साम्रगी, घासलेट और रसोई गैस में मिलने वाली नकद सब्सिडी, हकदार के सीधे बैंक खाते में डाल दी जाएगी। तय है भ्रष्टाचार, हेर-फेर और धोखाधड़ी कम होगी। मनरेगा की मजदूरी, विद्यार्थियों के वजीफे, बुजुर्गों की पेंशन सीधे लाभार्थियों के खाते में जमा होंगे।’ यदि बाकई यह संभव हो जाता है तो व्यक्ति अनिवार्य रूप से आधार कार्ड धारण करने को विवश होता और इसकी स्वीकार्यता भी बढ़ती। लेकिन दिल्ली में आधार कार्ड हाल ही में बड़ी समस्या बनकर उभरा है। लोग सीमा पुरी क्षेत्र में आधार कार्ड और राशन कार्ड बनवाने के लिए तीन-तीन दिन से लाइन में लगे हैं लेकिन उपभोक्ताओं की अर्जियां भी मुश्लिक से जमा हो पा रही है। ऐसे में तकनीकी जटीलता वाला आधार कार्ड आसानी से कैसे बन पाएगा यह एक बड़ा सवाल दिल्ली सरकार के सामने था। लिहाजा दिल्ली विधानसभा चुनाव की निकटता देखते हुए भारत सरकार को अदालत में शपथ पत्र देकर कहना पड़ा की आधार कार्ड जरुरी नहीं वैकल्पिक है।
दरअसल आधार का वजूद कायम करने में कई जटिलताएं पेश आ रही हैं। इसके अमल में आने के बाद मानवीय लालच के चलते जो गड़बडि़या व चार सौ बीसियां सामने आईं हैं, उनके चलते केंद्र सरकार की यह महत्वकांक्षी योजना भी ढांक के तीन पांत बनकर रह गई। क्योंकि आधार कंप्युटर आधारित ऐसी तकनीक है, जिसे संचालित करने के लिए तकनीकी विशेषज्ञ, इंटरनेट कनेक्टविटी तथा उर्जा की उपलब्धता जरूरी है। केवल व्यक्ति को राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत करने की संख्या दे देने से काम चलने वाला नहीं है। महज आधार संख्या की सुविधा नागरिक के सशक्तीकरण का बड़ा उपाय अथवा आधार नहीं बन सकता। यदि ऐसा संभव हुआ होता तो मतदाता पहचान पत्र मतदाता के सशक्तीकरण और चुनाव सुधार की दिशा में बड़ा कारण बनकर पेश आ गया होता ? आधार को पेश करते हुए दावा तो यह भी किया गया था कि इससे नागरिक को ऐसी पहचान मिलेगी जो भेद सहित होने के साथ उसे विराट आबादी के बीच, अपनी अस्मिता भी कुछ है, यह होने का आभास कराती रहेगी। लेकिन 22 करोड़ लोगों को आधार मिल जाने की बावजूद उनके प्रति जातीय, शैक्षिक और आर्थिक असमानता के भेद बरकरार रहे। इसके बनाये जाने के कानून इतने सरल हैं कि लाखों अवैध घुसपैठियों ने भी देश का नागरिक होने की वैधता हासिल कर ली। दरअसल यदि किसी व्यक्ति के पास पतें ठिकाने की कोई भी मामूली पहचान है या वह किसी राजपत्रित अधिकारी से लिखाकर दे देता है
वैसे आधार योजना जटिल तकनीकी पहचान पर केंद्र्रित है। इसलिए इसके मैदानी अमल में दिक्कतें भी सामने आने लगी हैं। असल में राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र में पहचान का मुख्य आधार फोटो होता है। जिसे देखकर आखों में कम रोशनी वाला व्यक्ति भी कह सकता है कि यह फलां व्यक्ति का फोटो है। उसकी तसदीक के लिए भी कई लोग आगे आ जाते हैं। व्यक्ति की पहचान को एक साथ बहुसंख्यक लोगो की सहमति मिल जाती है। जबकि आधार में फोटो के अलावा उंगलियों, अंगूठे के निशान और आखों की पुतलियों के डीजिटल कैमरों से लिए गए महीन पहचान वाले चित्र हैं, जिनकी पहचान तकनीकी विशेषज्ञ भी बमुश्लिक कर पाते है। ऐसे में सरकारी व सहकारी उचित मूल्य की दुकानों पर राशन, गैस व कैरोसिन बेचने वाला मामूली दुकानदार यह पहचान कैसे करेगा? आधार के जरिए केवल सब्सिडी की ही सुविधा दी जानी थी तो इसके लिए तो फिलहाल आधार की भी जरूरत नहीं है। यह काम उपभोक्ता का बैंक में खाता खुलवाकर ई – भुगतान के जरिए किया जाता तो और भी आसान होता। पूरे देश में इसकी तत्काल शुरूआत भी की जा सकती थी। क्योंकि मनरेगा के मजदूरों का शत प्रतिशत मजदूरी का भुगतान बैंक खाते के मार्फत ई पेंमेट के द्वारा होने लगा है। मनरेगा में काम करने वाले अधिकाँश वही लोग हैं जो गरीबी रेखा के नीचे जीपन यापन करने वाले हैं और जिन्हें सब्सिडी की पात्रता है। ऐसे में आधार की जरुरत थी ही नहीं।
कर्नाटक में ऐसे दो मामले सामने आ चुके है, जो आधार की जटिलता सामने लाते हैं। कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि मौसूर के अशोकपुरम् में राशन की एक दुकान को गुस्सायें लोगों ने आग लगा दी और दुकानदार की पिटाई भी की। दरअसल दुकानदार कोई तकनीकी विशेषज्ञ नहीं था, इसलिए उसे ग्राहक के उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों के निशान मिलाने में समय लग रहा था। चार-पांच घंटे लंबी लाइन में लगे रहने के बाद लोगों के धेर्य ने जबाव दे दिया और भीड, हुड़दंग, मारपीट व लूटपाट का हिस्सा बन गई। बाद में पुलिसिया कारवाई में लाचार व वंचितों पर लूट व सरकारी काम में बाधा डालने के मामले पंजीबद्ध कर इस समस्या की इतिश्री कर दी गई।
अब तो जानकारियां ये भी मिल रही हैं कि इस योजना के मैदानी अमल में जिन कंप्युटराइस्ड सहायक इलेक्टोनिक उपकारणों की जरूरत पड़ती है, उनकी खरीद में अधिकारी बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार बरत रहे हैं। बंगलुरू के अखबार ‘मॉंर्डन इंडिया’ ने खबर दी है कि एक सरकारी अधिकारी ने उंगलियो के निशान लेने वाली 65 हजार घटिया मशीनें खरीद लीं। केंद्र्रीकृत आधार योजना में खरीदी गई इन मशीनों की कीमत 450 करोड़ रूपये है। इस अधिकारी की शिकायत कर्नाटक के लोकायुक्त को की गई है। जाहिर है, योजना गरीब को इमदाद से कहीं ज्यादा भ्रष्टाचार का सबब बनती दिखाई दे रही है।
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दरअसल आधार के रूप में भारत में अमल में लाई गई इस योजना की शुरूआत अमेरिका में आतंकवादियों पर नकेल कसने के लिए हुई थी। 2001 में हुए आतंकी हमले के बाद खुफिया एजेंसियों को छूट दी गई थी कि वे इसके माध्यम से संदिग्ध लोगों की निगरानी करें। वह भी केवल ऐसी 20 फीसदी आबादी पर जो प्रवासी हैं और जिनकी गतिविधियां संदिग्ध हैं। लेकिन हमारे यहां इस योजना को संपूर्ण आबादी पर लागू किया जा रहा है। इससे यह संदेश भी जाता है कि देश का वह गरीब संदिग्ध है, जिसे रोटी के लाले पड़े हैं। खासतौर से इस योजना को कश्मीर और असम तथा पूर्वोत्तर के उन सीमांत जिलों की पूरी आबादी के लिए लागू करने की जरुरत थी, जहां घुसपैठिये आतंकी गतिविधियों को तो अंजाम दे ही रहे हैं, जनसांख्यकीय घनत्व भी बिगाड़ रहे हैं। इसीलिए पी चिदंबरम् ने अपने गृहमंत्रित्व के पहले कार्यकाल में इस योजना का जबरदस्त विरोध करते हुए इसे खतरनाक आतंकवादियों को भारतीय पहचान मिल जाने का आधार बताया था। लेकिन वित्तमंत्री बनते ही उनका सुर बदल गया था और उन्होंने इस योजना को जरुरी बता दिया। असमंजस के ये हालात धन की बर्बादी के साथ योजनाओं के प्रति लोगों का भरोसा भी तोड़ते हैं। इस योजना ने तो संसद की गरिमा तक को पलीता लगाया है क्योंकि संसद में बिना विधेयक पास कराए ही बहुउद्देशीय विशिष्ट पहचान पत्र योजना लागू कर दी गई। http://www.kharinews.com
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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