दिनेश शाक्य, इटावा से / पूरे उत्तर भारत में यूँ तो दशहरा पर्व पर रावण के पुतले का दहन होता है और लोग इसको सच्चाई की जीत का प्रतीक मानते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के इटावा जिले की जसवंतनगर में पूरी रामलीला बहुत ही अनूठे अंदाज़ में होती है। दशहरे वाले दिन रावण की पूरे शहर में आरती उतार कर पूजा की जाती है और जलाने की बजाय रावण को मार मारकर उसके टुकड़े कर दिये जाते हैं। और फिर वहां मौजूद लोग रावण के उन टुकड़ों को उठाकर घर ले जाते हैं। जसवंतनगर के रावण की मौत के तेरहवें दिन रावण की तेरहवीं भी की जाती है।
जसवंतनगर की रामलीला का इतिहास करीब 160 वर्ष पुराना है और ये खुले मैदान में होती है। यहाँ रावण की आरती उतारी जाती है और उसकी पूजा होती है। हालाँकि ये परंपरा दक्षिण भारत की है लेकिन फिर भी उत्तर भारत के कस्बे जसवंतनगर ने इसे खुद में क्यों समेटा हुआ है ये अपने आप में ही एक अनोखा प्रश्न है। यहां की रामलीला के जानकार बताते है कि रामलीला की शुरुआत यहाँ 1857 के ग़दर से पहले हुई थी। यहाँ रावण, मेघनाथ, कुम्भकरण ताम्बे, पीतल और लोह धातु से निर्मित मुखौटे पहन कर मैदान में लीलाएं करते हैं। शिव जी के त्रिपुंड का टीका भी इनके चेहरे पर लगा हुआ होता है।
जसवंतनगर के रामलीला मैदान में रावण का लगभग 15 फुट ऊंचा रावण का पुतला नवरात्र के सप्तमी को लग जाता है। दशहरा पर जब रावण अपनी सेना के साथ युद्ध करने को निकलता है तब यहाँ उसकी धूप-कपूर से आरती होती है और जय-जयकार भी होती है। दशहरा के दिन शाम से ही राम और रावण के बीच युद्ध शुरू हो जाता है जो कि डोलों पर सवार होकर लड़ा जाता है। रात दस बजे के आसपास पंचक मुहूर्त में रावण के स्वरुप का वध होता हैं पुतला नीचे गिर जाता है। एक और खास बात यहाँ देखने को मिलती है जब लोग पुतले की बांस की खप्पची, कपड़े और उसके अंदर के अन्य सामान नोंच नोंच कर घर ले जाते है। उन लोगों का मानना है कि घर में इन लकड़ियों और सामान को रखने से भूत-प्रेत का प्रकोप नहीं होता। यहाँ की रामलीला काफी प्रसिद्द है और इसका इतिहास करीब 160 वर्ष पुराना है। यहाँ मैदानी रामलीला होती है। यहाँ की परंपरा दक्षिण भारत से प्रभावित है। दरअसल रावण बहुत ज्ञानी थे और यहाँ रावण के पांडित्य और ज्ञान रुपी स्वरुप को तो पूजा जाता है जबकि उसके राक्षसत्व के कारण उसका वध किया जाता है।
जसवंतनगर की रामलीला में लंकापति रावण के वध के बाद पुतले का दहन नहीं होता है, बल्कि उस पर पत्थर बरसा कर और लाठियों से पीटकर धराशायी कर देते हैं। इसके बाद रावण के पुतले की लकड़ियां बीन-बीन कर घरों में ले जाकर रखते हैं। लोगों की मान्यता है कि इस लकड़ी को घर में रखने से विद्वता आती है और धन में बरक्कत होती है। इस लोक मान्यता का असर यह है कि रावण वध के बाद पुतले की लकड़ी के नाम पर मैदान में कुछ नहीं बचता है। दूसरी खास बात यह है कि यहां रावण की तेरहवीं भी मनाई जाती है, जिसमें कस्बे के लोगों को आमंत्रित किया जाता है।
रामलीला समिति के कार्यकारी अध्यक्ष प्रदीप लंबरदार का कहना है कि यहा की रामलीला अनोखी इसलिये होती है क्यो कि रामलीला का प्रर्दशन खुले मैदान मे होता है। दक्षिण भारतीय शैली मे हो रही इस रामलीला मे असल पात्रो को बनाये जाने के लिये उनके पास पूरे परंपरागत कपडे और मुखौटो के अलावा पूरे शस्त्र देखने के लिये मिलते है। समिति के प्रबंधक राजीव गुप्ता का कहना है कि यहा की रामलीला पहले सिर्फ दिन हुआ करती है लेकिन जैसे प्रकाश का इंताजम बेहतर होता गया तो इसको रात को भी कराया जाने लगा है http://visfot.com