गहलोत व लाला बन्ना के प्रभारी बनने की खबर दबी कैसे?

22जैसे ही अजमेरनामा ये खबर उजागर की कि नगर निगम के पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत व पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना को आगामी नगर निकाय चुनाव में दो भिन्न नगर पालिकाओं का प्रभारी बनाया गया है तो अजमेर की राजनीति में भूचाल आ गया। मीडिया जगत भी भौंचक्क रह गया। असल में ये खबर अजमेर के लिए इसलिए बेहद गंभीर थी, क्योंकि इससे यहां के दो दिग्गजों के राजनीतिक भविष्य पर सवाल लग रहा था। साथ ही सामान्य वर्ग के अन्य दावेदारों की किस्मत के ताले खुल रहे थे। इस कारण भाजपा खेमे में यह खबर खासी चर्चा में रही। कांग्रेसियों ने भी खूब चटकारे ले कर इस खबर को एक दूसरे को बताया। विशेष रूप से उन कांग्रेसी दावेदारों ने राहत महसूस की, जो कि इन दोनों के सामने चुनाव लडऩे के लिए दावेदारी कर रहे हैं।
यूं इस खबर पर सभी का चौंकाना स्वाभाविक ही था। कारण कि 12 जून को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी की ओर से जारी इस आदेश के बारे में किसी को पता क्यों नहीं लगा? कदाचित किसी अखबार ने इसे छापा भी होगा तो ऐसे किसी कोने में जहां किसी की नजर नहीं पड़ी। सवाल उठता है कि क्या जानबूझ कर इस खबर को दबाया गया या फिर इसको मीडिया ने गंभीरता से लिया ही नहीं? सुविज्ञ सूत्रों के अनुसार भले ही किसी को कानों कान ये खबर पता नहीं लगी, मगर कम से इन दोनों नेताओं को तो पता लग ही गया था कि उनके राजनीतिक कैरियर पर बैरियर लगाने का षड्यंत्र रचा जा चुका है। इसी कारण दोनों ने अपनी और अपने आकाओं की ओर से प्रभारी पद की नियुक्ति रद्द करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। बताया यही गया है कि फिलवक्त उनकी मांग मान ली गई है, मगर इसकी आधिकारिक घोषणा प्रदेश मुख्यालय ने नहीं की है।
बहरहाल, अब भले ही दोनों को टिकट दे कर चुनाव लडऩे की हरी झंडी दे दी जाए, मगर ये सवाल ज्यादा अहम है कि आखिर जानते बूझते हुए ये कारसतानी किस स्तर पर हुई? एक ओर जहां इसमें मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का इशारा माना जा रहा है तो शक ये भी है कि किसी शातिर खिलाड़ी ने प्रभारियों की लिस्ट बनते वक्त इन दोनों के नाम उसमें घुसड़वा दिए। सोचने का विषय ये भी है कि इन दोनों के स्थानीय आकाओं को इस करतूत की हवा तक क्यों नहीं लगी? सवाल ये भी है कि दोनों को ये झटका क्यों दिया गया, जबकि दोनों ही मेयर पद के प्रबलतम दावेदार हैं? ऐसा तो हो नहीं सकता कि प्रदेश आलाकमान को पता ही न हो। और अगर पता नहीं था तो इससे शर्मनाक बात कोई हो ही नहीं सकती। साफ है कि या तो दोनों का पत्ता साफ करने की बाकायदा रणनीति थी या फिर पार्टी ने अब तक इस चुनाव की कोई रणनीति बनाई ही नहीं है किन-किन को मेयर बनाने की खातिर मैदान में उतारना है।
एक बड़ा सवाल और भी खड़ा हो गया है। वो ये कि जब जीतने और भाजपा का बहुमत आने के बाद दोनों में से कोई एक ही मेयर बन सकता है, और दूसरे को मात्र पार्षद पद पर संतुष्ट होना पड़ेगा, तो क्या एक बार मेयर व सभापति रह चुके नेता इसके लिए मानसिक रूप से तैयार हैं? अथवा ढ़ाई-ढ़ाई साल का फार्मूला फिर अपनाया जाएगा? या फिर संघ के रुख के बाद कोई एक चुनाव मैदान में उतरेगा ही नहीं? और ये भी कि कहीं, ऐन वक्त पर दोनों की लड़ाई का कोई तीसरा तो लाभ नहीं उठा ले जाएगा? जो भी हो, मगर अब इस चुनाव में टिकट बंटने से लेकर परिणाम आने व बोर्ड बनने तक अब दोनों ही सबकी नजर में रहेंगे।
फिलवक्त दोनों के प्रभारी पद से मुक्त होने की कानाफूसी के बीच बांछें खिले हुए जे. के. शर्मा, नीरज जैन व सोमरत्न आर्य के चेहरे कुछ मायूस हो गए हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

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