कैसे पकी जसवंत सिंह को लेकर खिचडी?

Jaswant_Singhसंजय तिवारी– भारतीय जनता पार्टी ने अपने संस्थापक सदस्य रहे जसवंत सिंह को एक बार फिर पार्टी से बाहर निकाल दिया है। देश की दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी में अनुशासन बनाये रखने के लिए जिस ‘कठोर निर्णय प्रक्रिया’ की जरूरत होती है उसका पूरा पालन किया गया और निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा सीट से मरुभूमि के मैदान में खड़े जसवंत सिंह को छह साल के लिए निष्कासित कर दिया गया है। भाजपा में यह दूसरा ऐसा मौका है जब जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया है। एक बार तब जब उन्होंने पार्टी के भीतर वैचारिक विद्रोह किया था और एक बार अब जब उन्होंने उसे चुनौती दी है जो भाजपा की नियति हो चुका है।

सेना की सेवा से देशसेवा की राजनीति में आये जसवंत सिंह संवेदनशील और लिखने पढ़नेवाले आदमी हैं। वे राजनेताओं की उस जमात का हिस्सा नहीं हैं जो सिर्फ हर चेहरे पर वोट की तदबीर पढ़ते हैं। जसवंत सिंह सीधे तौर पर वोट की राजनीति में कम ही रहे हैं। लोकसभा में वे तीन बार दस्तक जरूर दे चुके हैं लेकिन उनकी पहचान लोकसेवक के बतौर कम, राजनयिक के बतौर ज्यादा है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दिनों में वे विदेशनीति के पर्याय ही बन गये थे। हालांकि आंतरिक कलह की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी को उन्हें वित्त मंत्रालय देना पड़ा लेकिन राजनय की राजनीति जसवंत सिंह का पसंदीदा विषय है। इंसान और इंसानी सभ्यताओं को समझने की उनकी प्यास ने उन्हें बहुत बार मरुभूमि से बहुत दूर घाट घाट का पानी पिलाया है लेकिन मरुभूमि से लगाव की उनकी प्यास कभी खत्म नहीं हुई। शायद इसीलिए वे अपने जीवन का अंतिम चुनाव अपनी जन्मभूमि से लड़ना चाहते थे। बाड़मेर से।
भाजपा के भीतर जसवंत सिंह को लेकर क्या खिचड़ी पकी इसे पक्के तौर पर कोई नहीं बता सकता क्योंकि अब तक वसुंधरा राजे और राजनाथ सिंह दोनों ही अपनी अपनी तरह से सफाई दे चुके हैं जो हुआ मजबूरी में हुआ। लेकिन बीजेपी के भीतर भी किसी को शायद ही पता हो कि वह मजबूरी कौन सी थी जिसकी दुहाई राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे दोनों दे रहे हैं। देश के लिए न सही लेकिन पार्टी के भीतर जसवंत सिंह आडवाणी से कम हैसियत के नेता नहीं रहे हैं। सरकार होने के दिनों में वे अटल बिहारी वाजपेयी की परछाई हुआ करते थे। लेकिन तब जब सत्ता का सारा केन्द्र जसवंत सिंह के इशारों पर नाचा करता था, जसवंत ने एक अदने से आदमी को भी अपने इशारे पर नहीं नचाया। संभवत: यह उनकी वह इंसानी संवेदनशीलता ही रही होगी जो किसी भी रचनाधर्मी में पाई जाती है। पार्टी के भीतर तब भी उनका विरोध होता था, संघ परिवार उन्हें उस तरह से स्वीकार नहीं कर पाता था जैसा कि उसे स्वीकार करना चाहिए था, फिर भी ज्यादातर मामलों में जसवंत सिंह मौन ही रहा करते थे। संघ परिवार की भीतरी राजनीति से वे हमेशा बाहर ही रहे।
समय आया कि सरकार भी गई। जैसे उस दौर के सब बड़े नेता घर बैठ गये वैसे ही जसवंत सिंह भी घर बैठ गये। योजना बनानेवाले जसवंत सिंह ने किताबें लिखनी शुरू कीं। इसी दौर में उनकी एक किताब आई “जिन्ना-इंडिया, पार्टीशन, इन्डिपेन्डेन्स।” जिन्ना का नाम सुनते ही संघ परिवार एक बार फिर उखड़ गया और जिन्ना के सवाल पर ही आडवाणी की ऐसी तैसी करनेवाले संघ परिवार के डर से इस बार जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर कर दिया गया। जिस वक्त 2009 में यह कार्रवाई की गई उस वक्त जसवंत सिंह पार्टी के टिकट पर लोकसभा दार्जीलिंग से प्रतिनिधि थे। इधर भाजपा ने जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर निकाला तो उधर गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने जसवंत सिंह की किताब को गुजरात से बाहर निकाल दिया। अगस्त 2009 में गुजरात सरकार ने यह कहते हुए जसवंत सिंह की किताब को प्रतिबंधित कर दिया कि किताब में सरदार वल्लभभाई पटेल के बारे में ऐसी टिप्पणी की गई है जिससे उनकी छवि पर असर पड़ता है। हालांकि खुद जसवंत सिंह ने इस आरोप से इन्कार किया और गुजरात सरकार के फैसले के खिलाफ गुजरात हाईकोर्ट चले गये। गुजरात हाईकोर्ट ने अगले ही महीने किताब पर लगे प्रतिबंध को असंवैधानिक करार देते हुए प्रतिबंध तोड़ दिया लेकिन यहीं से मोदी और जसवंत के बीच बैर का एक ऐसा रिश्ता कायम हो गया जो कभी नहीं टूटा।

संजय तिवारी
संजय तिवारी

राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा राजे यह बखूबी जानती है कि जसवंत सिंह उनके लिए कोई ऐसा खतरा नहीं हैं कि उनके टिकट में टांग फंसाई जाए। लेकिन यहां यह तथ्य भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बीते विधासनभा चुनाव में मोदी का पूरा गुजरात राजस्थान विधानसभा में वसुंधरा राजे की मदद करने में लगा हुआ था। खुद मोदी ने कई सभाएं की थीं। राजनीति में वसुंधरा राजे और नरेन्द्र मोदी की यह नजदीकी सयास हो कि अनायास लेकिन कहीं न कहीं यह वो तथ्य जरूर है जिसके कारण जसवंत सिंह को एक बार फिर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। तो क्या, यह नरेन्द्र मोदी थे, जिन्होंने जसवंत सिंह को टिकट नहीं देने दिया? आखिर क्या कारण है कि पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज को सार्वजनिक रूप से यह बयान देना पड़ा कि दल के संसदीय दल में जसवंत सिंह के नाम की चर्चा तक नहीं हुई? कुछ ऐसा हुआ जैसा एक बार उमा भारती के साथ हो चुका है, और करनेवाली कोई और नहीं बल्कि यही सुषमा स्वराज हैं जो आज शिकायत कर रही हैं। जरूर कुछ ऐसा था जिसपर एक रहस्य बनाकर रखा गया और इस बात की परवाह भी नहीं की गई कि इसका आखिरी परिणाम क्या आयेगा?
वसुंधरा राजे को विश्वास है कि उनका राजपूताना और मोदी का मंत्र दोनों मिलकर राजस्थान में तीर मारकर शहतीर हासिल कर लेंगे। लेकिन जिस तरह से जसवंत सिंह को लेकर राजस्थान के सरहदी राजपूत समाज में बेचैनी दिखाई और सुनाई दे रही है वह एक टिकट से भी ज्यादा राजपूत सम्मान का मुद्दा बन गया है। बाड़मेर जैसलमेर लोकसभा सीट पर कुल 2.5 लाख राजपूत मतदाता हैं जबकि जिन कर्नल सोनाराम चौधरी को वसुंधरा राजे ने भाजपा में शामिल करवाकर टिकट दिलवाया है उस जाट समुदाय के 3.5 लाख वोट हैं। कांग्रेस से बीजेपी में आये सोनाराम का संकट यह है कि उनका अपना परंपरागत वोटर उनके साथ रहे तो रहे बीजेपी के वोटर और सपोर्टर उनका साथ नहीं दे रहे। तिस पर राजपूत अस्मिता की दुहाई ने सोनाराम की सेहत और खराब कर दी है। क्षेत्र की राजपूत बिरादरियां खुलकर जसवंत सिंह का समर्थन कर रही हैं और जसवंत की जीत को राजपूत अस्मिता से जोड़ दिया है। 28 मार्च को बाड़मेर की एक राजपूत सभा को संबोधित करते हुए क्षत्रिय युवक महासंघ के भगवान सिंह रोलसाहबसर ने जिस तरह से कहा कि जसवंत का मैदान में खड़े होने का मतलब है हर राजपूत मैदान में खड़ा है, बताता है कि भाजपा का यह हवा हवाई निर्णय जमीनी तौर पर कितना गलत संदेश लेकर गया है।
लेकिन बाड़मेर में अकेले राजपूत ही जसवंत की जीत पक्की नहीं कर रहे हैं। स्थानीय अल्पसंख्य समुदाय के भीतर से भी इस बार जसवंत को बड़ी संख्या में समर्थन मिलने की उम्मीद है जो इस लोकसभा सीट पर दूसरा सबसे बड़ा वर्ग है। बाड़मेर जैसलमेर में 3 लाख मुस्लिम मतदाता हैं जो कम से कम बीजेपी के सोनाराम को तो वोट नहीं करेंगे। ऐसे में निर्दलीय हो चुके जसवंत उनके लिए पहली पसंद बन सकते हैं। अब निष्कासन के बाद जिस तरह से जसवंत सिंह ने नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाया है अल्पसंख्यक वोटरों के बीच उसका फायदा भी उन्हें मिलना तय है। सोनाराम के बीजेपी में आने से बीजेपी के नाराज समर्थक वसुंधरा के कहने पर सोनाराम के समर्थक हो जाएंगे यह सोचना भी अति का आत्मविश्वास ही होगा। ऐसे में जसवंत की पराजय तभी हो सकती है जब शासन या प्रशासन के स्तर कुछ ऐसा किया जाए जिसके लिए हमारा लोकतंत्र अक्सर बदनाम होता रहा है। अन्यथा बाड़मेर से जसवंत की जीत पक्की है।
लेकिन जसवंत सिंह के लिए असली मुश्किल चुनाव के दौरान नहीं जीत के बाद संसद पहुंचने पर खड़ी होगी। क्या एक बार फिर वे उसी तरह अकेले खड़े नजर आयेंगे जिस तरह पिछले निष्कासन के दौरान वे लोकसभा में अपनों के बीच बेगाने बने बैठे रहते थे? भाजपा के संस्थापक सदस्यों में शामिल रहे जसवंत सिंह के लिए सचमुच जीत के बाद की जंग इस जीत हार की जंग से बड़ी चुनौती होगी। जयचंदों की बीजेपी में जसवंतों के लिए सचमुच बहुत मुश्किल वक्त आ गया है।

4 thoughts on “कैसे पकी जसवंत सिंह को लेकर खिचडी?”

  1. Jo bhi ho aap ki lekhani ki me kadar karta hu or Salam karta hu ek bat jarur kahunga ki jaychand to chunav ke doran bhi the or tikat katawane me bhi the to……………aap ne Jo likha hai usme kuchh log yah jarur kahenge ki sayad aap samrthak ho lekin jis vykati ka pura visv kadr Kare uske liye yah bhi kam hai thanks sir ek bar or Salam

  2. sab kursi ki ladai hai bhai…..agar bjp se tiket mil jata to koi rag nahi alapta…..

  3. dusra sabse bade matdata barmer me meghwal hai 3.5 lack ……..aapko akado ka bhi pata nahi hai……

Comments are closed.

error: Content is protected !!