एक समय था जब केन्द्र में बैठी कांग्रेस सरकार की काश्मीर नीति को, विपक्षी भारतीय जनता पार्टी पानी पी-पीकर कोसा करती थी और सिर के बदले सिर मांगती थी। एक समय ये है कि वर्दीधारी भारतीय सैनिक काश्मीर में गुण्डों के हाथों पिट रहे हैं। स्कूली लड़कियां स्कूलों से निकलकर ‘‘हमें चाहिये आजादी’’ के कोरस गा रही हैं। पच्चीस-तीस साल के दाढ़ी-मूंछों वाले मर्द स्कूली ड्रेस में, कंधों पर स्कूली बस्ते लटकाकर मिलिट्री और पुलिस की गाड़ियों पर पत्थर और लाठियां बरसा रहे हैं तथा भारतीय सैनिकों को लात और घूंसों से मार रहे हैं। दूसरी ओर भारतीय सेना भगवान बुद्ध का अवतार धारण करके अंगुलीमाल की आत्मा के परिवर्तित होने की चुपचाप प्रतीक्षा कर रही है।
काश्मीर की अनुभवहीन मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती भारत की राजधानी में आकर वक्तव्य देती हैं कि समस्या के समाधान का मार्ग बातचीत से ही खुल सकता है लेकिन एक तरफ से पत्थर और दूसरी तरफ से गोलियां बरस रही हों तो बातचीत सम्भव नहीं है। तो क्या वे यह कहने के लिये दिल्ली आई थीं कि पत्थर भले ही चलते रहें किंतु गोलियां खामोश रहें ताकि बातचीत का रास्ता खुल सके !
यदि संसार की समस्त समस्याओं का अंत बातचीत ही है तो फिर ये गोलियां बनी ही क्यों हैं ? जनता की गाढ़ी कमाई के कर से खरीदी गई गोलियां क्या केवल सैनिकों की कमर में लटकाने के लिये हैं ? काश्मीर की समस्या में ऐसा नया क्या है जो मानव सभ्यता के इतिहास में पहले से उपलब्ध नहीं है ? क्या भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों और कौरवों के बीच बातचीत का रास्ता खोल पाये थे ? क्या वीर हनुमान और अंगद, राजा रामचंद्र और रावण के बीच बातचीत का रास्ता खोल पाये थे ? क्या प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले बातचीत का मार्ग नहीं अपनाया गया था ? मैं भी मानता हूं कि बातचीत का रास्ता अपनाया जाना चाहिये, लेकिन कब तक ?
यदि उपरोक्त उदाहरणों को पुराना समझकर छोड़ दिया जाये और केवल काश्मीर पर ही बात की जाये तो ऐसी कौनसी बात है जो सन् 1947 से लेकर 2017 तक की 70 साल की अवधि में अब तक हो नहीं पाई है और अब पीडीपी की मुख्यमंत्री करवाना चाहती हैं! जब न तो गोलियां चल रही थीं और न पत्थर, तब यह बातचीत क्यों नहीं कर ली गई ? और यदि बातचीत ही करते रहना है तो भारतीय सेना को वहां से हटा क्यों नहीं लिया जाता ? भारतीय सैनिक भी किसी माँ के बेटे हैं, किसी के भाई और किसी के पिता हैं। वे पत्थर खाने के लिये वहां क्यों हैं ? सैनिक युद्ध करने के लिये होता है, शौर्य का प्रदर्शन करने के लिये होता है, न कि पत्थर और लाठियां खाकर योगाभ्यास करने के लिये।
महबूबा मुफ्ती ने एक और हास्यास्पद बात कही है कि पत्थरबाज हमारे अपने हैं। तो क्या अपने घर से विद्रोह करने वालों के सिर नहीं कुचल दिये जाते ? क्या पाण्डवों ने कौरवों को मारकर धरती पर नहीं सुला दिया ? चलो महाभारत के उदाहरण को एक बार फिर छोड़ दिया जाये तो क्या 1948, 1965, 19़71 और 1999 में भारत ने उन पाकिस्तानी सैनिकों को जान से नहीं मार डाला जो 1947 में भारत से ही अलग होकर पाकिस्तानी बने थे ? क्या भारत और काश्मीर की सरकारें वास्तव में इस भ्रम में हैं कि काश्मीर के पत्थरबाज हमारे अपने हैं। यदि ऐसा है तो मैं निःसंकोच कह सकता हूं कि इससे अधिक अंधापन तो महाभारत के धृतराष्ट्र में भी नहीं था।
काश्मीर की मुख्यमंत्री ने एक और बचकानी बात कही है कि दो से तीन महीनों में काश्मीर समस्या का हल निकल जायेगा। तो क्या मुख्यमंत्री ने किसी प्रयोगशाला में काश्मीर समस्या के बैक्टीरियाओं की जांच करवाई है जिसमें इन बैक्टीरियाओं के दो-तीन माह में स्वतः समाप्त हो जाने की पुष्टि हुई है ! हैरानी होती है ऐसे बचकाना वक्तव्यों पर! वे किसे मूर्ख बना रही हैं। सत्ता के लोभ में आंख मूंदकर बैठी केन्द्र की बीजेपी सरकार को या भारतीय सेना के जवानों को! क्या भारतीय सेना काश्मीर में पत्थरबाजों से पत्थर खाकर, भविष्य में इस योग्य बचेगी कि वह पाकिस्तान के संभावित एटमबमों से निबट सके !
काश्मीर से सैंकड़ो किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ में तो हालात और भी बुरे हैं। नक्सली औरतें, सीआरपीएफ के जवानों के प्राण ले रही हैं। सीआरपीएफ के जवान निरही कीड़े-मकोड़ों की भांति मारे जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में वर्ष 2003 से भारतीय जनता पार्टी के डॉ. रमनसिंह की सरकार है। तो क्या भारतीय जनता पार्टी की नीतियां इतनी कमजोर हैं कि वे 14 साल में भी छत्तीसगढ़ की समस्या का हल नहीं ढूंढ पाईं। या फिर यह कमजोरी सीआरपीएफ आदि केन्द्रीय बलों की है ?
यह समय बातें करने का नहीं है, कुछ करके दिखाने का है। देश को कैशलैस बना देने से सारी समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला। अब तो यह भी लगने लगा है कि कैशलैस वाला जुमला कहीं देश की वास्तविक समस्याओं से ध्यान हटाने के लिये तो नहीं है ! भारतीय जनता पार्टी की सरकारों से जो अपेक्षाएं थीं वे धीरे-धीरे धूमिल होती हुई दिखाई दे रही हैं। राजस्थान की निर्णय विहीन सरकार से लेकर केन्द्र की मोदी सरकार तक हर जगह ऐसी ही स्थितियां दिखाई दे रही हैं।
भारतीय जनता पार्टी केा नहीं भूलना चाहिये कि अटलबिहारी वाजपेयी सरकार की लच्छेदार चालाकियों की विफलताओं के बाद बीजेपी को 10 वर्षों तक विपक्ष में बैठना पड़ा था। यह भी नहीं भूलना चाहिये कि डॉ. मनमोहनसिंह की 10 वर्षों की भयानक गलतियों और अकृमण्यता के बाद ही बीजेपी को दुबारा मौका मिला है। बीजेपी को यह भी नहीं भूलना चाहिये कि समय का पहिया तेजी से आगे बढ़ जाता है और फिर कभी पीछे नहीं घूमता। अभी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है, भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार उठें और देश की वास्तविक समस्याओं पर दृढ़ता से काम करें।
मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं कि लॉलीपॉप छाप राजनीति से देश की समस्याओं का हल नहीं होगा। आज दुनिया तेजी से बदल रही है। यूरोप के उदारीकरण और वैश्वीकरण की बखिया उधड़ रही है। वे फिर से अपने देशों की सीमाएं एक दूसरे के लिये बंद कर रहे हैं। उन्हें स्वयं को बचाने की चिंता है न कि अपने पड़ौसियों को। हमें भी स्वयं को बचाने के लिये हर संभव प्रयास करना चाहिये।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
63, सरदार क्लब योजना
वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर
1 thought on “काश्मीर के पत्थरबाजों से अब कौनसी बात करनी शेष रह गई है !”
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महोदय, आपका यह लेख कश्मिर के पत्थरवाजों … में जो चितन और एक राह पठाकों को दिखाये है वह फलिभूत होती दिख रही है अति सून्दर विवेचन ।