सोशल मीडिया और न्यू मीडिया अतिवादी ताकतों के हाथ में

social-media 2सोशल मीडिया ने आज आम जनमानस को अपनी बात कहने का मौका दिया है. जहाँ पहले मुख्यधारा मीडिया का संपादक ही तय करता था की कौन सी बात बाहर आनी है और कौन सी नहीं वहां आज सोशल मीडिया पर सिर्फ खबर बनाने के लिए बातें नहीं हो रही हैं बल्कि उन समस्यायों के निवारण के लिए मिलकर आवाज़ उठाने का भी काम हो रहा है. सबसे बड़ी बात की जो मध्यवर्ग हमेशा ही रोटी कपड़ा और मकान को ही अपना मुख्या मुद्दा मानता आ रहा था और जिसकी वजह से ये माना जाता था की यह आन्दोलनो में नहीं आ सकता न्यू मीडिया की वजह से ही इसने दुनिया के बड़े आन्दोलनो की अगुवाई की. मिस्र, ट्यूनीशिया के आन्दोलन भारत में अन्ना आन्दोलन , निर्भया के समर्थन में आन्दोलन इसके प्रबल उदाहरण हैं.

इस बात से इतना तो सिद्ध हो जाता है कि सोशल मीडिया या न्यू मीडिया जिनमे फेसबुक , ट्विटर, ब्लॉग, ऑनलाइन पोर्टल आदि हैं, ने पारंपरिक मीडिया के एकाधिकार को तोड़ा है और इन्होने एक व्यापक मंच तैयार किया जिसकी वजह से मुख्यधारा मीडिया भी अपने आप में परिवर्तन करने या कम से कम दिखने को तो बाध्य हुआ ही है. लेकिन इस बात पर खुश होकर ताली पीट लेने से काम नहीं चल पायेगा क्यूंकि वास्तव में ये सिर्फ एक पक्ष है हम सिर्फ प्रभाव से खुश हैं किन्तु प्रभाव का परिणाम देखे बिना हमें कोई निष्कर्ष निकल लेने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए.

वास्तव में अगर हम चश्मा हटाकर और सच को स्वीकार करने की हिम्मत के साथ अवलोकन करे तो हम पायेंगे की सोशल मीडिया और न्यू मीडिया अतिवादी ताकतों के हाथ में जा रहा है ट्यूनीशिया और मिस्र जैसे देशों में जहाँ आज़ादी और समानता को लेकर सोशल मीडिया पर शुरू हुए आन्दोलन की परिणति कट्टरपंथी सरकारों में हुई है कुछ वैसी ही स्थिति भारत में भी हो गयी है. आज अगर फेसबुक जो की सोशल मीडिया में सबसे ज्यादा प्रभावी है पर अगर देखा जाय तो वास्तव में अतिवादी विचार बहुतायत में फैले हुए हैं. वाम, दक्षिण, भाजपा, कांग्रेस, क्षेत्रीय पार्टियाँ, फेमिनिस्ट , हिन्दू, मुस्लिम यहाँ तक की जातियों के भी पेज अब बन चुके हैं और इनकी टिप्पणिया इतनी एक दूसरे के प्रति इतनी घृणा से भरी हुई हैं कि इन्हें देख कर कही से नहीं कहा जा सकता कि ये आगे जा कर समानता और आज़ादी की बात करने वाले हैं. इसने आज ‘आलोचना जो कि इसलिए ताकि सुधार हो सके’ की जगह ‘आलोचना जो कि नष्ट कर सके’ वाला भाव ले लिया है. एक दूसरे कि आलोचना में गाली गलौच तक उतर कर यह माध्यम अपने असर को निकट भविष्य में कम ही करेगा.

विवेक सिंह
विवेक सिंह

इसकी वजह यह है कि जहाँ मुख्यधारा मीडिया में संपादक होता है और उसकी जिम्मेदारी बनती है ऐसे कंटेंट को रोकने की, जो समाज में विद्वेष फैलाएं उसके स्तर को दूषित करे, वही सोशल मीडिया में इसका पूर्णतया अभाव है, यहाँ लोग अपनी सामान विचारधाराओं के साथ ही संवाद कर रहे हैं और विरोधी विचारो के साथ अछूतों सा व्यवहार कर रहे हैं इनमे वे लोग भी बहुतायत में हैं जो जाति और वर्ग को मिटने की बात किया करते हैं और यहाँ पर एक नए ही समर्थक वर्गों का अस्तित्व तैयार कर रहे है जो उसी तरह की घृणा लिए हुए उभर कर सामने आ रहा है. हालांकि सभी यही कहेंगे की यहाँ पर संपादक हो नहीं सकता जो किसी के कंटेंट को रोके और मै भी इस बात से सहमत हूँ  किन्तु जब हमने मीडिया की जिम्मेदारी,  उसका नेक काम खुद करना शुरू कर दिया है तो हमें ही उसकी समीक्षा और उसके दायित्वों का निर्वहन भी करना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब इस पर सामाजिक आंदोलनों के प्रयास में स्वयं असामाजिक होते चले जायेंगे. भड़ास4मीडिया से साभार

लेखक विवेक सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्नातक हैं और इलाहाबाद में ही रहकर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं. सोशल मीडिया और न्यू मीडिया पर इनकी खासी सक्रियता रहती है.  विवेक से मुलाकात[email protected] के जरिए की जा सकती है.

error: Content is protected !!