अंजान रिश्ता…

अश्वनी कुमार
अश्वनी कुमार

-अश्वनी कुमार- गर्मियों के मध्य की एक गर्म सुबह, अपनी अगली कहानी के लिए एक नए शीर्षक और भूमिका की तलाश में हर सुबह की भाँती एक बार फिर घर से निकल पड़ा एक नवयुवक, जिसने शायद अभी-अभी लिखने की शुरुआत की है. वह लिखने के लिए ऐसे विषयों का चुनाव कर रहा है, जिसमें समाज की सच्चाई है, जिन विषयों पर शायद पहले भी काफी कुछ लिखा जा चुका है परन्तु वह उन्हीं सब विषयों को अपनी नज़रों से देखकर, महसूस करके, उनमें जीना चाहता है, अपनी तरह से लिखना चाहता है. और इस लिखने के अपने चंचल मन को लिए जगह-जगह घूमता रहता है. यहाँ से वहां, न जाने उसकी तलाश कहाँ ख़त्म होने वाली है. कोई नहीं जानता, शायद वो भी नहीं. इसी रास्ते में चलते हुए जो भी कुछ उसके सामने पड़ता वह उसके विषय में कुछ लिख देता. परन्तु वह एक बात का सच्चा था, या कह सकते है कि उसमें इस बात को लेकर सच्चाई थी कि वह उस घटना को, उस वाकिए को उसी के कलेवर में लिखना चाहता है, कोशिश करता है कि जो देखा है, उसी को उसी प्रकार लिखा जाए. किसी भी तरह का बदलाव न हो, वह घटना कोई कहानी न लगे, बल्कि घटना ही रहे.

उसका सफ़र कहाँ जाकर ठहरेगा, उसे भी नहीं मालूम था परन्तु वह चलता जा रहा है. उन अनजान राहों पर जो अनंत हैं. जिनका कोई छोर शायद हो सकता है परन्तु यह उसे नहीं मालूम. एक ओर उसके लेखन से काफी लोग प्रभावित थे तो काफी लोगों का मानना था कि उसे लिखना नहीं आता. वह बेकार और व्यर्थ ही अपना समय गँवा रहा है, पर उसे इस किसी भी बात कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह था अपनी ही धुन में मस्त. एक दीवाने के सामान. जो लिखता था उसे संभाल कर रखता है और समय आने पर प्रकाशित करने के लिए दे दिया करता था. उसकी कई कहानियां प्रकाशित भी हो चुकी थीं. जिन्हें काफी सराहना भी मिली थी परन्तु फिर भी वह कुछ नया और अनोखा लिखना चाहता था. अपने लिए नहीं समाज में बदलाव के लिए शायद उसने आज़ादी के समय के सभी लेखकों को अपनी प्रेरणा मान लिया था, जिनके लेखन से एक चिंगारी उठ जाती थी, और उसी चिंगारी ने आज़ादी बनकर हमें स्वतंत्रता दिलाई. वह लिखना चाहता था, समाज में घट रही हर एक घटना के विषय में, समाज में फैली दरिद्रता के विषय में, भूख से तड़पते बचपन के विषय में, लाचारी भरी जवानी के विषय में, सहारा ढूंढते बुढ़ापे के विषय में, और लिखना चाहता था, हर उस घटना के विषय में जो समाज में उसे दिखाई दे रहे थे.

हर रोज़ वह घर से निकल जाता था, किसी को बिना बताये, कहाँ जा रहा है, उसे भी नहीं पता था. वह कभी मंदिरों में, गिरजाघरों में, मस्जिदों में, कभी सडकों के किनारे, लाल बत्तियों पर, बंजर पड़े पुलों के नीचे, चलती बसों में, रेलवे स्टेशनों पर, गली कूचों में भीख मांगते, कुछ सामान बेचते बचपन को, लाचार जिंदगियों को देखता था, तो सोचता था कि आखिर ऐसा क्यों है………??? हमने तो तरक्की कर ली है, फिर भी ऐसा क्यों………??? आखिर क्यों……………….??? क्या यही तरक्की की है हमने………………..??? आंसू बहने लगते थे उसके जब कोई लाचार बच्चा जो शायद अपना पेट भरने या अपने परिवार का पालन पोषण करने के लिए उसका हाथ पकड़ कर उसके पीछे तब तक पड़ा रहता, जब तक की वह किसी दूसरी बस में नहीं चढ़ जाता था. पर उस बच्चे को फिर भी कोई दुःख नहीं था, वह उसका हाथ छोड़कर किसी और का हाथ पकड़ लेता था, इसी आस में कि शायद कहीं और से कुछ मिल जाएगा, और उस बच्चे का यह काम सारा दिन उसी प्रकार जारी रहता था.

एक दिन कि बात है. वह फिर से अपने घर से निकला इसी आस में कि शायद आज लिखने को कुछ ऐसा मिल जाए, जिससे समाज की हकीक़त, देश की हकीक़त का पता चले. आखिर इतनी तरक्की के बाद भी हम इतने पिछड़े हैं……..ऐसा वह सोचता हुआ चल रहा था. कदम बढ़ते जा रहे थे……..सोच के सागर में वह डूबता जा रहा था. उसमें जज्बा था कुछ करने का, समाज में सुधार का का. पर अभी उस मुकाम को हासिल नहीं कर पाया था जिसके बाद कुछ कर पाता. इसीलिए उसकी आँखों से आंसू नहीं रुकते थे, देखा नहीं जाता था, उससे समाज में फैला यह अन्धकार. जब कुछ कर नहीं पाता तो रो लेता था, या अपने भावों को अपनी लेखनी के माध्यम से प्रकट कर दिया करता था. इसी सोच में डूबा की शायद कभी तो कुछ बदलाव होगा, वह एक बस में जा चढ़ा, और पिछली सीट पर जा बैठा…………….!!! बाहर के नज़रों को देखता जा रहा था, और मन में एक नया भाव पनपा की प्रकृति कितनी सुंदर है. हर एक जगह पेड़ पौधे हरियाली, नदी झरने, कितना सुंदर लगता है. भाव में बदलाव आ चुका था, वह खो गया था प्रकृति की सुंदरता में, अब शायद समाज के बारे में कुछ समय के लिए भूल गया था. एक गाँव से दूसरे, दूसरे से तीसरे, गुजर रहे थे, बस अपनी ही धुन में चलती जा रही थी, चढ़ने उतरने वालों के बदलते चेहरे, बदलते मौसम की तरह लग रहे थे उसे. अचानक बस एक जगह रुक गई, बस के कंडक्टर ने उससे पूछा अरे……………………..!!!!!! भई जाना कहाँ है, तुन्हें, टिकट यहाँ पर ख़त्म हो जाती है. अब बस वापिस जायेगी…………………………कहकर कन्डक्टर बस से उतर जाता है. और खाना खाने के लिए सड़क के किनारे खड़ी एक रेहड़ी की ओर बढ़ता है. शायद वहां किसी और की नज़र उस महिला पर नहीं गई थी, जो वहां खड़ी किसी से भीख में कुछ मिल जाने का इंतज़ार कर रही थी. शायद वह वहां रोजाना आती होगी…………………उसने मन ही मन सोचा…….!!! वह महिला किसी की भी नज़रों में नहीं आ रही थी, उसका शक यकीं में बदल गया था, इस घटना के बाद………………..!!! जब वह खाना खाते एक व्यक्ति की ओर बढ़ी और उस व्यक्ति ने उसे यह कहकर…………………….वहां से भगा दिया कि क्या रोज रोज आ जाती है………………..भाग यहाँ से पागल………………………….कहीं की……………………..!!! कपड़े पहने तो थे उस महिला ने जिसे लोग पागल का दर्जा दे रहे थे, या ये भी हो सकता है कि वह महिला पागल न हो……………….उसे यह जामा ऐसे ही पहनाया जा रहा हो. अपना खाना न देने के लिए……………………….खा भी कितना लेगी वह……………………..ये सोचता हुआ वह उस महिला को निहारता रहा. वह उसे ऊपर से नीचे तक देख रहा था. और सोच रहा था कि क्या एक महिला ऐसे भी रह सकती है, जैसी स्थिति में यह महिला है. एक हल्का पीले से रंग का कपड़ा लपेट रखा था, उसने अपने बदन पर…………………..सूरज की तपती गर्मी ने उसके रंगा को झुलसा दिया था. उसका शरीर सूखे चमड़े की भाँती दिख रहा था. आँखों के नीचे के काले घेरों ने इस कदर उसके चेहरे पर अपनी जगह पक्की कर ली थी कि मानो अब अपनी जगह नहीं छोड़ेंगी………………!!! हाथों पैरों के नाखून शायद हद से ज्यादा ही बड़े हो गए थे इस महिला के………………!!! कुछ तो सूरज ने उसके शरीर को जला रखा था, ऊपर से बरसों से न नहाने के कारण जो मैल उसके शरीर पर चढ़ गया था………………..वह बहुत दूर से ही देखा जा सकता था. उस पीले कपड़े के अलावा उसके पास और कुछ नहीं था……………..!!! वह उसे निहारता हुआ शायद कहीं खो गया था, स्वप्न से बाहर आया तो देखता है कि वह महिला…………………………….उस रेहड़ी के पास ही खड़ी एक गंदी सी बाल्टी, कूड़ेदान से……………………… जहां ग्राहक के खाने के बाद बचा खाना फेंका जा रहा था, वहां से उस कूड़ेदान में से बची कटी, टूटी रेट मिली, मिट्टी मिली सब्जी और पानी में तरबतर रोटी के टुकड़े उठा उठा कर खा रही थी, पास ही के गड्ढे में कुछ पानी भर गया था, ये पानी बर्तन मांझने के दौरान उस काम करने वाले बच्चे से गिरा था, झुककर मुंह से पी रही थी, क्योंकि उसके लिए, उस रेहड़ी पर पानी भी नहीं था. जिसे पीकर वो अपनी प्यास बुझा लेती…………………..!!! कितनी निर्मम स्थिति थी………..उस महिला की…………………!!!

क्या जीवन जी रही थी वह…………………………………!!! उससे रहा नहीं गया………………..और भागता हुआ उस महिला के पास पहुंचा और उसे प्लेट में खाना देकर उसी के पास बैठ गया उसे खिलाने के लिए……………….!!! उस महिला को इतनी जल्दी थी उस खाने को खाने की कि मानो उसे पहली बार ही ऐसा खाना मिल रहा हो, वह इतनी जल्दी में थी कि उसे यह भी डर नहीं था कि उसे फंदा लग सकता है, उसके गले में खाना अटक सकता है…………………..वह बस अपनी ही धुन में थी………………….. खाना ख़त्म होने के बाद उसने उस महिला से पूछा और खाना चाहिए………………………………………….. ??? तो वह महिला उसकी तरफ तरस भरी आँखों से देखने लगी, दर्द था उसकी आँखों में………………………….. चेहरे पर किसी अपने से काफी समय मिलने के बाद की भावना उमड़ पड़ी थी…………………………. बेशक एक दूसरे को जानते नहीं थे परन्तु एक रिश्ता था…………… उनके बीच जो उन दोनों की आँखों में हलके आंसू बनकर बहने लगा था………………. वह महिला उसे देखकर रो रही थी, और वह भी अपने आंसू बहने से रोक नहीं पा रहा था. तभी उसे टोकते हुए एक व्यक्ति ने कहा……………….. अरे! आज तो खिला दिया है, तूने कल कौन खाना देगा इसे………………..!!! वह स्तब्ध रह गया, आखिर कहता भी क्या ऱोज आ भी नहीं सकता था उसे खाना देने और एक वक़्त के बात दुसरे वक़्त के खाने का क्या…………………..??? ऐसे ही सवाल उसके मन में आने लगे थे………!!! इसके बाद वह सिर्फ इतना ही कह पाया, हे राम क्या हो रहा है ये………………..!!! इसके बाद कोई शब्द नहीं थे उसके पास कहने को और करने को तो कुछ था ही नहीं………………!!! वह घर लौट आया लगभग एक महीने तक न तो वह ठीक से कुछ खा पा रहा था, और नहीं कुछ कर पा रहा था………………!!! उसके जहन में तो बस वह हलके पीले रंग के एक छोटे से कपडे से ढंकी उस महिला की यादें ही बसी थी……वह आज तक यही सोच रहा है, कि आखिर उसने कुछ खाया होगा या नहीं हिम्मत नहीं हो रही थी उस तक जाने की, क्योंकि अब उसमें इतनी ताक़त नहीं थी कि वह दोबारा उसे उस दयनीय हालत में देख पाए…इसी डर से वह किसी से बात भी नहीं कर रहा था. बताना नहीं चाहता वह अपनी इस परेशानी को किसी भी व्यक्ति से यहाँ तक कि अपने जिगरी दोस्तों से भी नहीं, क्योंकि उसे पता था कि वह सभी उसका मज़ाक बनाएंगे उसका ही नहीं उस महिला का भी जो लाचार है, किस्मत के मारी है. अगर वह किसी से कहता भी है तो सब बस यही कहेंगे यह एक थोड़ी है भाई……………………..न जाने कितनी ही और महिलाएं हैं, हमारे यहाँ जो इससे भी बद्तर हालत में हैं. उसे केवल खाना ही नहीं मिल रहा है, कई तो ऐसी हैं, जिनके साथ न जाने क्या क्या किया जा रहा है, सडकों पर……………!!! बस यही वो सुनना नहीं चाहता था, क्योंकि एक महिला का दर्द उससे सहा नहीं जा रहा था, तो ऐसी अनेकों महिलाओं का कैसे सहेगा.

दिन बड़ी तेज़ी से बीत रहे थे, उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उसे मिलना था उस महिला से, वह निकला और उसी बस में जा बैठा, फिर से वाही नज़ारे घूम रहे थे उसके सामने………………………अचानक से बस रुकी………………………………..उतरो…………..उतरो बस यहीं तक है…………………सब लोग खाली कर दो बस को……………………..जोर से आती इस आवाज़ से उसकी नींद खुली……………………!!! वह बड़ी तेज़ी से बस से उतरा और भाग कर उसी रेहड़ी के पास जाकर रेहड़ी पर काम कर रहे छोटे बच्चे से बोला……………………….वो औरत कहाँ है…………………??? जो यहाँ से खाना उठाकर खाती थी……………………….अरे! कौन साब……………….मुझे नहीं पता………………..बच्चे ने जवाब देते हुए अपना काम जारी रखा……………..अरे अरे वो जो इस कूड़ेदान में से खाना उठाकर खाती थी…………………….बेचैनी भरे स्वर में फिर से उसने पूछा……..!!! तभी उसी कंडक्टर ने जिसकी बस में वह पहली बार यहाँ आया था, उसे पहचान कर कहा…………………..वह तो मर है भाई……………………कई दिनों से भूखी थी……………जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो यहीं अपना दम तोड़ दिया, आज ही नगर निगम की गाड़ी उसे उठा कर ले गई है………इतना सुनते ही घुटने अपने आप मुड़ गए…………………आँखें नदिया बन गई………………..और जीवन पर मानो उदासी का पहाड़ गिर गया हो उसके……………………!!! अब किसी से कुछ कहने और पूछने को कुछ भी नहीं था. पैदल ही चल दिया……….अपने घर की ओर फिर कभी नहीं मिला वह किसी को न तो अपने घर वालों को और न ही किसी रिश्तेदार को…………………सबने बहुत ढूंढा……………….पर वह जा चूका था बहुत दूर………………एक अज्ञात खोज में……

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