ताजियों की परंपरा…..
मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है, यह सिर्फ इस्लामी हिजरी सन्
का पहला महीना है। पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और
दस तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में
इबादत की जाती है। क्यूंकि ये तारिख इस्लामी इतिहास कि बहुत
खास तारिख है…..रहा सवाल भारत में ताजियादारी का तो यह
एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई ताल्लुक़
नहीं है।
इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी,
जिसका ताल्लुक शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ-
सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन
की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है)
की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं।
भारत में ताजिए के इतिहास और बादशाह तैमूर लंग
का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और
विश्व विजय उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के
नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में
जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया।
सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन
गया।
फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ
भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ
98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध
कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट
घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर
लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था।
तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल
इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल
नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे
सफर के लिए मना किया था।
बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने
ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के
कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम
हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया।
कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से ‘कब्र’ या इमाम
हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के
फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस
ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में
रखा गया।
तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से
राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत
(दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश
की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत
हो गई।
खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब
थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया तब से लेकर
आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश
और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है।
जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में
या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख
नहीं मिलता है।
68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई
ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में
मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के
बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19
फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट,
कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया। लेकिन तैमूर
के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही।

तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा।
मुगल बादशाह हुमायूं ने सन् नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46
तौला के जमुर्रद (पन्ना/ हरित मणि)
का बना ताजिया मंगवाया था।
कुल मिलकर ताज़िया का इस्लाम से कोई ताल्लुक़
ही नही है….लेकिन हमारे भाई बेहेन जो न इल्म है और इस काम
को सवाब समझ कर करते है उन्हें हक़ीक़त पता चलना चाहिये……
ऐतेजाद अहमद खान साहब शायद देवबंदी है। मौहर्रम की बात उन्होंने इसी नजरिये से की है। देवबंदी लोग मौहर्रम को नहीं मानते हैं। ये लोग दरगाह या किसी कब्र पर फातिहा भी नहीं पडते है। असल में तैमुर लंग इमाम हुसैन को मानने वाला था। और हर मौहर्रम माह में इमाम की शहादत पर इराक जाता था। क्योंकि वह हिंद का बादशाह था इसलिये हर साल उसका वहां जाना मुमकिन नहीं था। एक दिन उसे बसारत हुई कि वह इमाम हुसैन के रोजे जैसी प्रतिकृति हिन्दुस्तान मंे बना ले और यही जियारत कर ले। बादशाह ने वैसा ही किया………तब ही से ताजिये बनना शुरू हो गये। ताजिये शिया-सुन्नी सम्प्रदाय का प्र्रतीक ही नहीं बल्कि हिन्दू भाईयों का आस्था का प्रतीक भी है। रियाज खान, ब्यावर
Janab aitzad sahab kis khyal ke hain ye alag baat hai. Lekin taziyadari ko lekar bareilly sharif se bhi fatwa aa chuka hai.