पहरे में धन, पिंजरे में धनवान

– मोहन थानवी
बीकानेर। पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी। नोटबंदी ने धन पर पहरा लगा दिया। जीएसटी से धनवान पिंजरे तक सीमित होने लगे। नतीजन विकास के कदम थम से गए। सरकारी खजाने से करोड़ों अरबों की लागत से भले ही कितने ही शिलान्यास, लोकार्पण होने लगे हों मगर राष्ट्र की नियमित वाणिज्यिक गतिविधियों पर नोटबंदी और जीएसटी का प्रभाव जीडीपी के गिरते ग्राफ में दुनिया देख रही है। निसन्देह सरकार के नुमाइन्दों ने नोटबन्दी और जीएसटी जैसे कदम उठाने से पहले इसके प्रभाव और दुष्प्रभावों पर मंथन कर लिया होगा और विकास कार्यों के प्रभावित होने की आशंका का निवारण भी तलाशा होगा। मगर यह अनपेक्षित ही है कि इसके प्रभाव से छोटे दुकानदार, दैनिक श्रमजीवी इस कदर प्रभावित होते दिख रहे कि जीएसटी से लाभ दिखाई देने के बजाय खुदरा बाजार में कीमतों का ग्राफ बढ़ने के बावजूद कुल व्यापार 20 से 30 प्रतिशत तक लुढ़क रहा है। खास तौर से नमकीन और मिष्ठान्न के उ़द्यमी त्योहारी सीजन में बाजार की ऐसी गत देख चिंतित हैं।

मोहन थानवी
मोहन थानवी
देश विदेश में अपने नमकीन उत्पादों से ख्यातनाम बीकाजी गु्रप से जुड़े एक सूत्र के अनुसार इस ग्रुप पर जीएसटी के बाद बिजनेस में कोई फर्क नहीं पड़ा है लेकिन नमकीन-मिठाई के छोटे व्यवसायी एक तिहाई काम ही पहले के मुकाबले कर पा रहे हैं। इस क्षेत्र में बाहर से आकर अपनी सेवाएं देने वाला श्रमिक वर्ग भी परेशान है क्योंकि उनकी संख्या भी नमकीन इकाइयों में पहले की तुलना में घटती जा रही है। बेशक नोटबंदी से काला धंधा करने वालों के हाथ पांव फूल गए हों, बेशक बड़े उद्योग समूहों पर जीएसटी का असर नहीं हुआ हो मगर नोटबंदी के बाद निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर कम होना चिंतनीय है। असाक्षर वर्ग का श्रमिक वर्ग भी रोजगार के अवसर कम होने के परिणाम भुगत रहा है। नवरात्रा, दीपावली त्योहारी सीजन और सावा मुहूर्त के नजदीक होने के बावजूद वस्त्र व्यवसाय में खुदरा बाजार धड़ाम से गिरता दिखाई दे रहा है जबकि श्राद्ध पक्ष के खत्म होते होते शहर शहर कपड़ों की दुकानों में ग्राहकों की रेलमपेल से बहार छाई दिखती थी। कपड़े के स्थानीय खुदरा बाजार की 50 से अधिक दुकानों पर हालचाल जानने से पता चला कि ग्राहक गायब ही हो गया है। कई बार तो दिनभर बोहनी तक नहीं होती। ऐसा नहीं है कि रोजगार की समस्या गहराने, जीडीपी में गिरावट होने और निजी क्षेत्र पर नोटबंदी व जीएसटी के तात्कालिक प्रभावों को लेकर सरकार चिंतित नहीं है, सरकार को चिंता है और यह इसी से जाहिर होता है कि ऐसे मुद्दे को प्रस्तावित बैठक में प्रमुखता से शामिल किया गया है। दरअसल नोटबंदी लागू करने से धन के अवांछित लेन-देन पर जो प्रभाव पड़ा उसके बारे में अवांछित तत्व चर्चा कर नहीं सकते किंतु कर चुका कर राष्ट्र के विकास में भागीदार बनने वाले धनवान भी जीएसटी के चक्कर में अपने हाथ पांव समेटने लगे तो बाजार में प्रवाहित हो रही नोटों की धारा सिकुड़ती चली गई। सरकारी खजाने से निकले और निकलते नोट तो योजनाओं के पेटे बड़े बड़े समूहों के पाले में जाने लगे क्योंकि योजनाओं के तहत निर्माण कार्य तो उन्हीं समूहों को करना होता है। निजी क्षेत्र के समूह कम से कम मानव श्रम में अधिक से अधिक कार्य करवाकर ही लाभ कमाते हैं यह सर्वविदित है। जबकि सरकारी खजाने से नियमित रूप से राशि लेने वाला वर्ग कर्मचारी वर्ग है और सरकार सातवें वेतन आयोग के अलावा समान वेतनमान के चक्रव्यूह को भी निरन्तर चलायमान रखने जैसे कदम उठा कर मानों इस वर्ग को भी अपनी निवेश और व्यय क्षमता पर अंकुश लगाने की विवशता सौंप रही है। आमजन की संख्या अधिक है जबकि अनुमान के अनुसार काला धंधा करने वाले आमजन की तुलना में एक-दो प्रतिशत भी नहीं। विशेषज्ञों की मानें तो तुलनात्मक संख्या में नगण्य अवांछित लोगों की वजह से राष्ट्र को नुकसान हो रहा था, नोटबंदी के दौरान इस तर्क के साथ खड़े होकर आमजन ने कुछ दिन सप्ताहों तक की परेशानी झेल ली। जीएसटी से आमजन का सीधा कोई लेनदेन नहीं होने के बावजूद आमजन ही प्रभावित हो रहा है, यही बात चिंतनीय है। धन पर सरकारी पहरा और धनवान पिंजरे में होंगे तो धनराशि प्रवाहित कौन करेगा ? बिजनेस केवल बड़े समूह करेंगे तो छुटकर काम धंधा करने वाले कैसे अपनी और परिवारजन की उदरपूर्ति करेंगे? सरकार ऐसे ज्वलंत मुद्दों पर शीघ्र ही सकारात्मक निर्णय लेते हुए कदम उठाएगी, जनता द्वारा इसकी आशा तो की ही जा सकती है। वरना चुनावों में जनता क्या आशांए पालेगी, इसका अनुमान हर कोई लगा सकता है।

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