बीबीसी के संवाददाता सुहैल हलीम ने एक लेख साझा किया है। यह बीबीसी की वेबसाइट पर भी उपलब्ध है।
मंदिरों से जब ये एलान होने लगे कि किसने अपने घर में क्या खाया था, तो ज़रा फ़िक्र होती ही है. प्रधानमंत्री जब ख़ामोश तमाशाई बने देखते रहें तो ज़रा डर लगता ही है.
लोग जब ये कहें कि दादरी में जो हुआ वह अफ़सोसजनक था तो यह पूछने का दिल करता है कि क्या वास्तव में आपको भी अफ़सोस हुआ?
यह सवाल भी दिल में आता ही है कि राजनेता अब भी सबक़ सिखाने की बात कर रहे हैं, क्या उन्हें लगाम देने की ताक़त किसी में नहीं? या कोई देना नहीं चाहता?
क्या कोई पैग़ाम पहुंचाने की कोशिश की जा रही है? मानने में झिझक ज़रूर होती है लेकिन डर लगता है. अपने लिए नहीं, तो बच्चों के लिए.
पैग़ाम कौन पहुंचा रहा?
और जब लोग यह कहते हैं कि ज़्यादातर हिन्दू भी अच्छे हैं और मुसलमान भी, तो इससे कोई हौसला नहीं मिलता.
मेरा ज़्यादातर से नहीं सिर्फ़ उन लोगों से सरोकार है जो मेरे चारों ओर रहते हैं और जिनकी निगाह मेरे फ्रिज पर हो सकती है.
क्या उन्हें कोई यह पैग़ाम पहुंचा सकता है कि न मेरे घर में झाकें न मेरे दिल में. न मैं इस्लामिक स्टेट को जवाबदेह हूं, न आज़म ख़ान के बयानों के लिए.
न दाऊद इब्राहिम से मेरी कोई हमदर्दी है और न दाऊद को वापस लाना मेरी ज़िम्मेदारी.
पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना है तो खेलें नहीं खेलनी, तो कोई मुद्दा नहीं.
ग़ुलाम अली का कॉन्सर्ट रद्द करना है, ख़ुशी से कीजिए, राहत फ़तेह अली ख़ान के कार्यक्रम में भाग लेना है, ख़ुशी से लें. आप वह करें जिसमें आपको ख़ुशी मिलती है, मुझे वो करने दें जिसमें मुझे सुकून मिलता है.
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