लोकजीवन का प्रतीक,धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत है शोभायात्रा मेला

0- धनियां, चावल उगाकर छाया बारां, तो डोल शोभायात्रा ने किया आकर्षित
0- प्रकृति की हरियाली का वैभव, सौन्र्दय निहराने निकलते है भगवान !

shareiq_1368446154-909554दिलीप शाह
हमारे प्रार्चीन मन्यदृष्टा, विचारवेता तथा )षियों ने समाज के उल्लास में पर्व एवं परम्परा का सूत्रपात किया है। फिर पर्व परम्पराए भी इतनी अधिक है कि यह युक्ति यहा पूर्णरूप से चरितार्थ होती है कि ‘माह में दिन तीन व पर्व बतीस’। )र्षि मुनियों का विचार चिंतन हर किसी पर्व के साथ जुडा है। यहीं कारण है कि त्यौहारो को दर्शानिक आधार प्रदान करते हुए सांस्कृतिक भागीरथी की धारा अनंतकाल से अनवरत प्रवाहमान रहीं है।
राजेन्द्र सिंह बेदी ने पंजाबी संस्कृति को पर्वो से भरी संस्कृति मानकर मुक्कंठ से घोषणा की थी कि पंजाबी कौम एक जिंदा कौम है और सचमुच किसी भी समाज में सजीवता का प्रमाण उसके प्रचलित त्यौहार ही तो है। कोई कौम हंसी के क्षण आने पर कितने ठहाको से हंसती है, खुशी के क्षणो से कितनी रंग-रंगोलियां और नृत्य की थिरकनों से सजाती है। यह है इस समाज के जीवन की कसौटी।
भारतीय संस्कृति एक पर्व प्रधान संस्कृति रहीं है। यहीं है इसके चिर यौवन का प्रतीक है। कृष्ण यदि कृरूक्षेत्र में चक्र चलाते है तो अवसर आने पर बांसूरी की धुन तान भी लेते है। कृष्ण यदि कंस का वध करते है,तो गोपियों के साथ रास भी रचाते है। इस श्रम मिश्रण का नाम ही तो संस्कृति है । जहां खेत खलियान से थका हारा किसान रात को चंग की थाप पर होली के गीत गुनगुनाता है। खेत में मिट्टी से सने हाथो से जब ग्राम बालिकाएं सावन के झूलों से हिलोरे लेती है, तो सहज ही भारतीय संस्कृति में पदों की उपादेयता स्पष्ट होती है।
जलझुलनी एकादशी पर राजस्थान के बारां जिले में विभिन्न 55 मंदिरो से निकलने वाली भगवान विग्रह की विमानो पर गाजेबाजो के साथ निकलने वालीैै शोभयात्रा और उसके दर्शनाथ उमडने वाला सैलाब भी अलोकिक दृश्य प्रकट करता है। शोभा यात्रा के साथ ही हैरत अंगेज करतब दिखाते अखाडबाजो को देखने भी हजारो लोग पहुंचते है। तालाब पर होने वाली सामूहिक आरती को देखकर श्रद्वालु अपने को धन्य मानते है।
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धनियां चावल उगाकर छाया बारां,
तो डोल शोभायात्रा ने किया आकर्षित
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बारंा तथा इसके आसपास का बसा क्षेत्र जिसे राजस्थान के अनाज का कटोरा कहे अथवा पांच नदियों की धारा वाला मिनी पंजाब। या फिर डोल शोभायात्रा को देखकर रामदेवरा का मेला कहें। या फिर गंगा की आरती का नजारा। इन सभी का मिलाजुला रूप है कोटा, बारां- भोपाल, जबलपुर रेल लाईन के मध्य स्थित बारां का यह क्षेत्र। विभिन्न आपदाओं से जूझना जानता है और इस संधर्ष को भी पर्वो के माहौल में भुलकर मधुर मुस्कान बिखेरना जानता है। नदियां इसका जीवन है, प्रकृति की गोद को यहां के लोगो ने संवारा भी है। यदि धनियां और चावल उगाकर बारां पूरे राजस्थान में छाया है , तो डोल मेला जैसे मेलो से भी इसने अन्य राज्यों के लोगो को भी अपनी और आकर्षित किया है।

दिलीप शाह
दिलीप शाह
हाड़ौती का ही नहीं वरन् पूरे राजस्थान एवं मध्यप्रदेश का तक के दूरदराज क्षेत्रो में ख्याति प्राप्त कर चुका बारां के लोकजीवन का प्रतीक, धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत बारां का प्रसिद्व डोल शोभायात्रा मेला इस वर्ष भी भाद्रपद शुक्ला जलझूलनी एकादशी विभित्र मंदिरों के विमानो की वाली शोभायात्रा के साथ 13 सितम्बर को प्रांरभ हो जाएगा।
प्राचीन है परम्पराएं
बारां में डोल मेला कब से लगता है इस बारे में लोग निश्चित कुछ नहीं बताते। बुजुर्ग इतना ही कहते हैै कि जब उन्होने होश संभाला तब से ही यह शोभायात्रा मेला देखते आए है। यह बताते है कि आज से कोई 70-80 वर्ष पूर्व बारां का यह डोल मेला मात्र दो-दिन का होता था। हाट की तरह ठेलो, तम्बूओं में गांव की दुकानें लगती थी। लेकिन समय के साथ यहां के लोगो की श्रृद्वा बढी और आज यहीं मिला पूरे एक पखवाडे तक लगता है। कोटा संभाग व मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के कई कस्बो से व्यापारी इस मेले से खरीद फरोख्त करने आते है। मेले का यूं अपना आकर्षण होता है लेकिन खास आकर्षण पूरे शहर के विभिन्न धर्म जातियों के मंदिरो के निकलने वाले विमानो की शोभायात्रा होती है। पहले गिनती के ही विमान निकलते थें, लेकिन आज 55-60 देवविमानो की शोभायात्रा गाजे बाजों एवं भजन कीर्तन मंडलियों के साथ निकलती है। सजे संवरे इन डोल विमानो के आगे सहस्त्रो युवको के मल्ल तथा शारीरिक कौशल के अनूठे हैरतअगेंज कर देने वाले करतबों को देखकर तो दर्शनार्थी बरबस दांतो तले अंगुली दबा लेते है।
कई मान्यताएं है विद्यमान
शोभायात्रा को लेकर कई मान्यताएं विद्यमान है। कहते है इस दिन भगवान श्रीविग्रह अपने वाहन में बैठकर विचरने निकलते है। दूसरी यह कि इस दिन श्रीकृष्एा की माता गाजेबाजो के साथ कृष्ण जन्म के 18 वें दिन सूर्य पूजा के लिए घर से निकलती है। विभिन्न मंदिरो के भगवान प्रकृति की हरियाली का वैभव एवं सौन्र्दय निहराने निकलते है।
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श्रीजी रधुनाथ जी के गले मिलते है विमान
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यद्यपि समय के साथ परम्पराएं बदल जाया करती है, लेकिन बारंा के साथ यह बात सत्य साबित नहीं हुई। मेले की वर्षो पुरानी परम्परा आज भी कायम है। श्रीजी मंदिर से विमानो की शोभायात्रा शुरू होती है, रघुनाथ मंदिर का ही विमान सबसे आगे होता है। इस मंदिर को राजमंदिर कहा जाता है। यह विमाान मंदिर के बाहर आकर रूक जाता है। जहां श्रीजी व रघुनाथ जी के विमान गले मिलते है। यह परपरा भी वर्षो से चली आ रहीं है। इस दृश्य को देखने के लिए हजारो दर्शनर्थ टूट पड़ते है और दर्शन कर अपने को धन्य समझते है। शहर के बाजारो में तिलभर भी जगह नहीं होती, लेकिन लोग बताते है कि जब दोनो विमान गले मिलने के बाद रघुनाथ मंदिर का विमान आगे हो जाता है तो स्वतः ही रास्ता हो जाता है। इसे लोग भगवान की कृपा मानते हैै। फिर कतारबद्व चलने वाले इन विमानो जिनमें हरिजनो का विमान भी शामिल होता है। उंच-नीच की कोई निरर्थक भावना शोभायात्रा के दौरान व्यक्तियो के मनो में परिलक्षित नहीं होती।

मंदिर मजिस्द देते है साम्प्रदायिक सद्भाव का पैगाम
बारां में स्थित श्रीजी मंदिर जहां से शोभायात्रा शुरू होती है, जो 500 से 600 वर्ष से भी अधिक पुराना बताया जाता है। हाडौती के इतिहास में उल्लेख है कि बूंदी के महाराज सूलजन हाड़ा ने रणथम्बोर का किला अकबर को सौंप दिया था उस समय वहां से देा देवो की मुर्तियों को लाया गया था। एक प्रतिमा रगनाथ पीठ तथा दूसरी कल्याणराय की थी। रगनाथ जी की मुर्ति को बूंदी में स्थापित किया तो कल्याणराय जी को बारां लाया गया। बूंदी की तत्कालीन महारानी ने श्रीजी मंदिर का निर्माण कराया। कहीं औरगजेब मंदिर को नुकसान नहीं पहंुचाए। इसलिए मंदिर से सटकर जामा मस्जिद बनवाई। दोनो मंदिर मस्जिद दोनो समुदाय के लिए श्रृद्वा के केंन्द्र बनें। मंदिर मस्जिद के निर्माण के दौरान बारां जिले का शाहाबाद क्षेत्र औरंगजेब की छावनी बना हुआ था। मुस्लिम समुदाय के ताजिए भी यहीं से शुरू होते है। जहां से डोल शोभायात्रा की शुरूआत होती है। यहीं इस शहर को सौहार्द से रहने की सीख देता है। तो देशभर को साम्प्रदायिक सदभाव की भावना का पैगाम भी देता है।

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