महाराणा प्रताप के विद्रोही भाई शक्तिसिंह द्वारा राणा प्रताप की सुरक्षा
महाराणा प्रताप का प्राण प्रिय घोड़ाचेतकभी युद्ध में जख्मी हो गया था।हल्दीघाटी के युद्धमें घायल होने के बाद राणाप्रताप बिना किसी सहायक के अपने पराक्रमी चेतक पर सवार होकर पहाड़ की ओर चल पड़े। दोमुग़लसैनिक घात लगाकर उनका पीछा कर रहे थे,परन्तु चेतक ने प्रताप को बचा लिया। रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था। घायल चेतक फुर्ती से उसे लाँघ गया,परन्तु मुग़ल उसे पार न कर पाये। चेतक नाला तो लाँघ गया,पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुग़लों के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा मेवाड़ी बोली में आवाज़ सुनाई पड़ी- “हो,नीला घोड़ा रा असवार।” प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उन्हें एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह कोई अन्य नहीं किन्तु उनका विद्रोही भाई शक्तिसिंह था। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध की वजह से वो अकबर की शरण ले चूका था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से युद्ध कर रहा था। जब शक्तिसिंह ने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा,और उसने दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचा दिया तथा महाराणा प्रताप के प्राणों की रक्षा की।
जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहे थे,चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक स्मारक बनाया गया जो आज तक उस स्थान को इंगित करता है,जहाँ पर स्वामी भक्त चेतक मरा था। प्रताप को विदा करके शक्तिसिंह खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर वापस लौट गये। सलीम को उस पर कुछ सन्देह पैदा हुआ। जब शक्तिसिंह ने कहा कि प्रताप ने न केवल पीछा करने वाले दोनों मुग़ल सैनिकों को मार डाला अपितु मेरा घोड़ा भी छीन लिया। इसलिए मुझे खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर आना पड़ा। सलीम ने वचन दिया कि अगर तुम सत्य बात कह दोगे तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। तब शक्तिसिंह ने कहा, “मेरे भाई के कन्धों परमेवाड़राज्य का बोझा है। इस संकट के समय उसकी सहायता किए बिना मैं कैसे रह सकता था।” सलीम ने अपना वचन निभाया,परन्तु सलीम ने शक्तिसिंह को अपनी सेवा से मुक्त कर दिया।
संकलनकर्ता डा. जे. के गर्ग
सन्दर्भ— विभिन्न पत्रिकाएँ, एम राजीव लोचन- इतिहासकार, पंजाब विश्वविद्यालय, सरकार जदुनाथ (1994).A History of Jaipur: c. 1503 – 1938,आइराना भवन सिंह (2004). महाराना प्रताप — डायमंड पोकेट बुक्स. pp.28, आदि
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