उन भाजपाइयों को समर्पित जो किनारे लगाए जाने वाले हैं

bjp logo-श्रीराम तिवारी- आरएसएस की आनुशांगिक राजनैतिक आकांक्षा के रूप में कभी जनसंघ को, कभीं जनता पार्टी को और कभी वर्तमान बिकराल अमरवेलि रुपी ‘कमल’ छाप, मदमाती-भाजपा को जिन दिग्गजों ने अपने खून पसीने से सींचा है, उनमें अटल बिहारी वाजपेई, नानाजी देशमुख, दीन दयाल उपध्याय, मुरली मनोहर जोशी, जशवंत सिंह, विजया राजे सिंधिया, कुशा भाऊ ठाकरे, उमा भारती, गोविंदाचार्य, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें से कुछ दिवंगत हो चुके हैं कुछ विभिन्न कारणों से गुमनामी के अंधेरे में जबरन धकेल दिए गए हैं। क्योंकि अभी तो अधिनायकवाद का भूत, विजय की आत्ममुग्धता, सत्ता के लालचियों का दासत्वबोध चरम पर है। सट्टा बाजार में, मीडिया में, साहित्य में ही नहीं बल्कि राजनीति परिदृश्य पर भी ये नाम ‘अस्पृश्य’ और त्याज्य होते जा रहे हैं। यहां तक कि ‘कमल पार्टी ऑफिस’ में भी इनका नाम लेने से लोग डरते हैं कि कहीं ‘साहब’ नाराज न हो जाएं! अब तो कोई महाचमचा, महापातकी, महाशिखंडी कृतघ्न ही कह सकता है कि अच्छे दिन आ गए हैं। वो कहावत है कि १२ साल में तो घूरे के भी दिन भी फिरने लगते हैं “वही भो रहा है। जो कभी अर्श पर थे वे अब फर्श पर हैं। जो कभी अर्श पर थे वे अब फर्श पर हैं। जो कभी औरों का ‘चंवर’ डुलाया करते थे, वे अब खुद का ‘चवर’ डुलवा रहे हैं। इसी का नाम पूंजीवादी साम्प्रदायिक राजनीति है। यही दकियानूसी वितंडावाद और वैचारिक पाखंडवाद है। इस धनबल से प्राप्त चुनावी विजय की मृगमरीचिका याने माया महाठगनी की जय हो! भाजपा की यह महाविजय कोई अप्रत्याशित चमत्कार या अनहोनी घटना नहीं है. बल्कि ‘संघ परिवार’ की १०० साल से भी ज्यादा पुरानी निरंतर चली आ रही ‘अघोर’ तांत्रिक साधना रुपी पुरोगामी राजनीति का परिणाम है. हजारों संघियों और लाखों धर्मांध लोगों ने समय-समय पर इस धर्मान्धता के ‘तामस यज्ञ’ में अपने प्राणों की आहूति दी है। अब कहीं जाकर २०१४ में उसे कुछ संतोषजनक प्रतिसाद मिला है। लाखों की कुर्बानी का श्रेय जब एक व्यक्ति को दिया जाएगा तो इस महाझूठ पर साक्षात शैतान भी मचलने लग जाएगा। इंद्र का ‘इंद्रासन’ भी डोलने लगेगा। यदि बैलगाड़ी के नीचे चलने वाला ‘पिल्ला’ सोचने लगे कि गाड़ी में ही हांक रहा हूं तो इसमें उसकी अक्लमंदी क्या है ? ये तो उसका भरम ही हैं न!

अर्ज किया है ;-

तेल जरे बाती जरे ,नाम दिया का होय।

लल्ला खेलें और के, नाम पिया का होय।।

अर्थात बीज बोता कोई और लेकिन ‘फसल’ काटता कोई और है !

बेशक अटलजी को तो वो सब मिल गया जिसके वे हकदार थे। अब भूतपूर्व प्रधानमंत्री होकर स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। जयवन्त सिंह के साथ जो हुआ ईश्वर ऐसा किसी दुश्मन के साथ भी न करे। ‘राजमाता’ तो रही नहीं किन्तु उनकी बेटियां ‘फील गुड’ में हैं। पोता जरूर कुछ ‘असहज’ है। स्व. कुशाभाऊ ठाकरे, दीन दयाल उपाध्याय जी एवं नानाजी देशमुख की आत्मा को ईश्वर शांति दे की वे यह ‘महालालची’ मंजर देखने के लिए अब इस दुनिया में नहीं हैं। यदि वे जीवित होते तो आज की यह अडानी-अम्बानी वाली भाजपा का कॉरपोरेट पूंजी की क्रीत दासी का वीभत्स स्वरूप देखकर बेमौत मर गए होते! पार्टी कतारों में इन दिवंगत नेताओं कोई नाम लेवा भी नहीं बचा है। एक बेहतर विचारक गोविंदाचार्य को किनारे लगाने वाले भी आज खुद ही ‘गर्दिश’ में हैं। मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और उमा भारती, संजय जोशी जैसे आत्महन्ताओं के ऊपर जो गुजर रही है, उसके लिए कुछ पंक्तियां पेश है।

१- दिल में फफोले पड़ गए, सीने के दाह से। इस घर को आग लग गई, घर के चिराग से। [मुरली मनोहर जी को समर्पित]

२- दिल के अरमा आंसुओं में बह गए [आदरणीय आडवाणी जी को समर्पित]

३-तू [प्रधानमंत्री की कुर्सी] हमारी थी, जान से प्यारी थी. . . और की क्यों हो गई [सुषमाजी को समर्पित]

४- जब वक्त ने मांगी कुर्बानी तो सर हमने दिया, अब गुलशन आबाद है तो कहते हैं, मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है ? [ उन सभी भाजपाइयों को समर्पित जो चुनचुनकर आइन्दा किनारे लगाए जाने वाले हैं।
http://www.pravakta.com

error: Content is protected !!