भाजपा से कहेगा संघ, सुधर जाओ नहीं तो मुश्किल होगी

पुण्य प्रसून वाजपेयी
पुण्य प्रसून वाजपेयी

– पुण्य प्रसून वाजपेयी- गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी बदले तो लोकसभा की जीत ने इतिहास रच दिया और प्रधानमंत्री मोदी बदले तो दिल्ली ने भाजपा को अर्श से फर्श पर ला दिया। दिल्ली की हार से कहीं ज्यादा हार की वजहों ने संघ परिवार को अंदर से हिला दिया है। संघ उग्र हिंदुत्व पर नकेल न कस पाने से भी परेशान है और प्रधानमंत्री के दसलखा नामधारी कोट पहनने से भी हैरान है। संघ के भीतर चुनाव के दौर में भाजपा कार्यकर्ता और कैडर को अनदेखा कर नेतृत्व के अहंकार के भी सवाल उठ रहे हैं और नकारात्मक प्रचार के जरिए केजरीवाल को निशाना बनाने के तौर-तरीके भी संघ-भाजपा के अनुकूल नहीं मान रहा है।

लेकिन असल क्लास तो मार्च में नागपुर में होने वाली संघ की प्रतिनिधि सभा में लगेगी जब डेढ़ हजार स्वयंसेवक खुले सत्र में भाजपा को निशाने पर लेंगे। लेकिन उससे पहले ही भाजपा को पटरी पर लाने की संघ की कवायद का असर यह हो चला है कि पहली बार संघ अपनी राजनीतिक सक्रियता को भी भाजपा और सरकार के नकारात्मक रवैए से कमजोर मान रहा है। आलम यह हो चला है कि संघ के भीतर गुरु गोलवलकर के दौर का ‘एकचालक अनुवर्तित्व’ याद किया जा रहा है और मौजूदा भाजपा नेतृत्व को कटघरे में यह कहकर खड़ा किया जा रहा है कि वह भी 1973 के दौर तक के ‘एकचालक अनुवर्तित्व’ के रास्ते आ खड़ी हुई। जबकि देवरस के दौर से ही सामूहिक नेतृत्व का रास्ता संघ परिवार ने अपना लिया था।

‘एक व्यक्ति ही सब कुछ’ की धारणा जब संघ ने तोड़ दी तो फिर मौजूदा नेतृत्व को कौन-सा गुमान हो चला है कि वह खुद को ही सब कुछ मान कर निर्णय कर ले। संघ के भीतर भाजपा को लेकर जो सवाल अब तेजी से घुमड़ रहे हैं, उनमें सबसे बड़ा सवाल पार्टी के उस कैनवास को सिमटते हुए देखना है जो 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त भाजपा को विस्तार दे रहा था। संघ के भीतर यह सवाल बड़ा हो चुका है कि भाजपा नेताओं की पहचान सादगी से हटी है। ‘मिस्टर क्लीन’ के तौर पर अण्णा और केजरीवाल की पहचान अब भी है तो इनसे दूरी का मतलब, इन पर नकारात्मक चोट करने का मतलब क्या है।
संघ का मानना है कि दिल्ली में ही अण्णा और केजरीवाल के आंदोलन के वक्त संघ के स्वयंसेवक भी साथ खडेÞ हुए थे। लेकिन आज संघ इनसे दूर है। लेकिन मौजूदा राजनीति में किसे किस तरह घेरना है, क्या इसे भी भाजपासमझ नहीं पा रही है। संघ विचारक दिलीप देवधर की मानें तो संघ के भीतर यह सवाल जरूर है कि उग्र हिंदुत्व के नाम पर जो ऊंटपटांग बोला जा रहा है, उस पर लगाम कैसे लगे। प्रधानमंत्री मोदी की मुश्किल यह है कि वे हिंदुत्व के उग्र बोल बोलने वालों के खिलाफ सीधे कुछ बोल नहीं सकते। वजह, संघ की ट्रेनिंग या कहें अनुशासन इसकी इजाजत नहीं देता है। अगर प्रधानमंत्री मोदी कुछ बोलेंगे तो विहिप के तोगड़िया भी कल कुछ बोल सकते हैं। यानी नकेल सरसंघचालक को लगानी है और संघ उन पर नकेल कसने में इस दौर में असफल रहा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
दिल्ली को लेकर संघ का यह आकलन दिलचस्प है कि दिल्ली चुनाव में संघ की सक्रियता न होती तो भाजपा के वोट और कम हो जाते। यानी 2013 के दिल्ली चुनाव हों या 2014 के लोकसभा चुनाव या फिर 2015 के दिल्ली चुनाव। संघ यह मानता है कि तीनों चुनाव के वक्त संघ के स्वयंसेवक राजनीतिक तौर पर सक्रिय थे। और दिल्ली में 32-33 फीसद वोट जो भाजपा को मिले हंै, वे स्वयंसेवकों की सक्रियता की वजह से ही मिले हंै। और उसके उलट केजरीवाल के हक में वोट इसलिए ज्यादा पड़ते चले गए क्योंकि हिंदुत्व को लेकर बिखराव नजर आया। साथ ही भाजपा नेतृत्व हर निर्णय थोपता नजर आया। मतलब यह कि सामूहिक निर्णय लेना तो दूर सामूहिकता का अहसास चुनाव प्रचार के वक्त भी नहीं था। जाहिर है, संघ की निगाहों में अर्से बाद वाजपेयी, आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे, गोविंदाचार्य की सामूहिकता का बोध है तो दूसरी तरफ अध्यक्ष के मौजूदा कार्यकर्ताओं पर थोपे जाने वाले निर्णय हैं।
खास बात यह है कि केजरीवाल की जीत से संघ परिवार दुखी भी नहीं है। उल्टे वह खुश है कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया और दिल्ली के जनादेश ने मौजूदा राजनीति में ममता, मुलायम, लालू सरीखे नेताओं से आगे की राजनीतिक लकीर खींच दी। और चूंकि नरेंद्र मोदी भी केजरीवाल की तर्ज पर सूचना क्रांति के युग से राजनीतिक तौर पर जुड़े हुए हैं और केजरीवाल की पहुंच या पकड़ राष्ट्रीय तौर पर नहीं है तो भाजपा के पास मौका है कि वह अपनी गलती सुधार ले।
संघ की नजर दिल्ली चुनाव के बाद केजरीवाल को लेकर इतनी पैनी हो चली है कि वह भाजपा को यह भी सीख देने को तैयार है कि मनीष सिसोदिया को उप मुख्यमंत्री बनाकर अगर केजरीवाल आम आदमी पार्टी के विस्तार में लगते हों तो फिर दिल्ली को लेकर केजरीवाल को घेरा भी जा सकता है।
केजरीवाल को दिल्ली में बांधकर भाजपा को राष्ट्रीय विस्तार में कैसे आना है और दिल्ली वाली गलती नहीं करनी है, यह पाठ भी संघ पढ़ाने को तैयार है। यानी भाजपा को राजनीतिक पाठ पढ़ाने का सिलसिला गुरुवार से जो झंडेवालान में शुरू हुआ है, वह रविवार और सोमवार को सरसंघचालक मोहन भागवत और दूसरे नंबर के स्वयंसेवक भैयाजी जोशी समेत उस पूरी टीम के साथ पढ़ाया जाएगा जो मार्च के बाद कमान हाथ में लेगा। अभी तक यह माना जा रहा था कि मोदी सरकार के बाद संघ हिंदू राष्ट्र को सामाजिक तौर पर विस्तार देने में लगेगा। लेकिन दिल्ली की हार ने भाजपा और सरकार को संभालने में ही अब संघ को अपनी ऊर्जा लगाने के लिए मजबूर कर दिया है। और वह भाजपा नेतृत्व को साफ बोलने को तैयार है कि-सुधर जाओ नहीं तो मुश्किल होगी।
(टिप्पणीकार आज तक से संबद्ध हैं।)

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