क्या आध्यात्मिकता (Spirituality) ईगो-स्वअंहकार पर नियन्त्रण रखने में सहायक होती है ?

डॉ. जुगल किशोर गर्ग
डॉ. जुगल किशोर गर्ग

क्या इन्सान अपने आप को मैं-मैं-मैं और मेरा-मेरा के माया जाल से मुक्त कर सकता है ?
अपने आप को मैं-मैं एवं मेरा-मेरा के माया जाल से मुक्त करना बहुत आसान तो नहीं है किन्तु ऐसा करना असंभव भी नहीं है | आत्मानुभव या स्वज्ञान के द्वारा हम अपने आप को मैं-मैं एवं मेरा-मेरा के माया जाल से मुक्त करा कर इस बात की अनुभूती कर सकते हैं कि मैं मात्र पंच महाभूतों से निर्मित शरीर नहीं हूँ किन्तु इससे अलग अविनाशी, अजर अमर शांतिमय, निर्मल पवित्र आत्मा हूँ | परमपिता परमात्मा का अंश हूँ | जो भी हो रहा है वह परमात्मा के द्वारा ही किया जा रहा है, में तो मात्र एक माध्यम हूँ | मैडिटेशन के निरंतर अभ्यास से हमें इस तथ्य का ज्ञान हो जाता है कि में शरीर नहीं हूँ किन्तु पवित्र आत्मा हूँ , आत्मज्ञान अर्जन के बाद हमारा विलासिता, एश्वर्य,मान-सम्मान तथा मोह माया से मोहभंग हो जाता है, और जैसे ही हमारा सम्मान-अपमान से मोहभंग हो जाता है उसी क्षण से हमें मैं—मैं-मैं एवं मेरे-मेरे के माया जाल से मुक्ति मिलना शुरू हो जाता है |
परमहंस रामकृष्ण ने ईगो के दो रूप बताये थे, यथा—
1. परिपक्व ईगो और 2. अपरिपक्व ईगो

परिपक्व ईगो—– में परमपिता परमात्मा का पुत्र हूँ, में यह शरीर नहीं हूँ किन्तु परम पवित्र निर्मल आत्मा हूँ एवं में परमपिता परमात्मा का सेवक हूँ—यह परिपक्व ईगो का सूचक है |
अपरिपक्व ईगो—- में सुन्दर हूँ, में शक्तिशाली हूँ, मेरे जैसा कोई नहीं है, में सर्वश्रेष्ठ हूँ, में धनवान हूँ , मेरे पास सुख सुविधा के सारे साधन हैं,सारी सुख सुविधायें मैनें अपने बुद्धी-सामर्थ्य-चतुराई एवं योग्यता से प्राप्त की है(———यह अपरिपक्व ईगो का सूचक है | अपरिपक्व ईगो इन्सान को सदेव सांसारिकता , भोग-विलास, और मैं-मैं, मेरा-मेरा से जोड़े रखता है |( आजकल के अधिकांक्ष राजनेता हमेशा मैं-मैं-मैं और मेरी उपलब्धी का राग अलापते रहतें हैं) |
परमहंस रामकृष्ण कहा करते थे कि आध्यात्मिकता के सतत प्रयास से हम अपने अपरिपक्व ईगो को परिपक्व ईगो में परिवर्तित कर सकते हैं और इन्सान के भीतर परिपक्व ईगो के प्रादुभाव के साथ ही मैं-मैं, मेरा-मेरा के माया जाल से मुक्ति मिल जाती है |
निष्कर्ष—–
याद रक्खें कि इन्सान की बीती हुई जवानी कभी भी लौट कर वापस नहीं आती है और इसी प्रकार इन्सान का बुढापा कभी लौट कर नहीं जाता है | यह शरीर नाशवान है, पंच महाभूतों से बना है और एकदिन इन्हीं पंच महाभूतों यानी मिट्टी में मिल जाना है तो फिर इस नाशवान शरीर के लिये कैसा ईगो कैसा स्वअंहकार | गोरा रगं हो तो गुमान न हो और काला रंग हो तो कोई हीनता न हो | अटल सत्य तो यही है कि श्मशान मे जलने वाले हर स्त्री-पुरुष की राख का एक ही रंग होता है चाहे वो अमीर हो या गरीब या उनकी चमड़ी काली रही हो या गोरी |
अत: अपने ईगो-अंहकार का त्याग कर विनम्र बनें, जिससे आप किसी के दिल से नहीं उतरें वरन उनके दिल में अपनी जगह बनायें | सबको स्नेह दें सभी का सम्मान करें |
जो परमात्मा के सामने झुकता है वह सबको अच्छा लगता है, किन्तु जो सबके सामने झुकता है वह परमात्मा को भी अच्छा लगता है एवं परमात्मा का लाडला-दुलारा बनता है |
अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिये निर्णय आप ही को करना है ?
डा. जे. के. गर्ग
सन्दर्भ—विकीपिडीया,विभिन्न संतों-महापुरुषों के उद्धबोदन

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