कल रात हम लोग राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिले – साहित्यकार अशोक वाजपेयी, कलाकार विवान सुंदरम और मैं नाचीज। पहली नवम्बर को हमने कांस्टीट्यूशन क्लब में मावलंकर सभागार में जो लेखकों, कलाकारों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों आदि का “प्रतिरोध” आयोजित किया था, उसमें पारित प्रस्ताव राष्ट्रपति को हमने ज्ञापन के रूप में पहुँचाने का जिम्मा लिया था।
राष्ट्रपति के साथ हम करीब पच्चीस मिनट रहे। असहिष्णुता के मुद्दे पर राष्ट्रपति हमें हमारी ही तरह चिंतित जान पड़े। उन्होंने कहा कि दुनिया में कई सभ्यताएं खत्म हो गईं, पर भारत अपने बहुलतावाद के कारण आगे बढ़ता रहा है। उन्होंने (आमिर खान प्रसंग का जिक्र छिड़ने पर) कहा कि यह सही बात है कि पुरस्कार लौटाना भी प्रतिरोध का एक तरीका है।
यह कहने पर कि इसमें कोई योजना या षड्यंत्र नहीं है, जैसा कि प्रतिरोध करने वालों पर आरोप मढ़ा जा रहा है, राष्ट्रपति ने कहा मैं जानता हूँ कि यह (प्रतिरोध) स्वतःस्फूर्त है। हमने उन्हें बताया कि प्रतिरोध का आयोजन हम कुछ उत्साही लोगों ने अपनी पहल से किया। इसमें कोई राजनीतिक दल सहभागी नहीं था जैसा कि आरोप लगाया जाता रहा; हाँ, निजी हैसियत में राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी साथ देते आए हैं।
हमने राष्ट्रपति का आभार माना कि वे हिंसा और असहिष्णुता के खिलाफ बोलते रहे हैं और उनका उल्लेख प्रधानमंत्री ने भी किया, भले ही तब प्रधानमंत्री ने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा।
हमने गुजारिश की कि राष्ट्रपति केंद्र व संबंधित राज्य सरकारों और राजनीतिक दलों आदि को अपने दायित्व के उचित निर्वाह की हिदायत भी दें ताकि सहनशीलता, आपसी सहयोग, समझदारी, बहुलता के प्रति सम्मान, मत-वैभिन्न्य की गुंजाइश और अभिव्यक्ति की आजादी बनी रहे।
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