आम आदमी की तरह केस का सामना कीजिये

श्री राहुल गांधी जी,

sunil darda
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आपने बस इस कारण मे अपनी पूरी ताकत लगा दी है कि आपको कोर्ट के कठघरे में खड़ा होना तक शान के खिलाफ लगता है। आपको कठघरा में खड़ा होने भर से आपको डर क्यों लगता है? अगर आपने कुछ नहीं किया तो कोर्ट जाएं, सवालों का जवाब दें और बाहर सर उठाकर निकलें। कानून पर विश्वास है तो कानून से भागने का रास्ता क्यों अपनाते हैं? शार्टकट रास्ते और तारीख-पर-तारीख से आगे बढ़ना आपकी क्रेडिबलिटी पर सवाल तो उठाता ही,कानून व्यवस्था को भी चुनौती दे रहा है कि वो वास्तव में साबित करे कि कानून सबके लिए समान है।

आप दोषी या निर्दोष हैं,यह कोर्ट साबित करेगा। मैं कानून का जानकार नहीं हूं। हा पर इतना समझता हूँ कि कोर्ट तय करेगा कि आपकी डील कानूनी थी या गैर कानूनी ?

लेकिन आप जिस अंदाज में इस केस से भाग रहे हैं या खुद का पक्ष रखने की बात तक को जरूरी नहीं समझते हैं, मुझे आपसे अधिक हमारी कानूनी व्यवस्था पर गुस्सा आ रहा है।

आखिर में वो कैसे आप जैसे पावरफुल और रसूखवालों के लिए, इतने रास्ते क्यों बना देता है । जहां सजा तो दूर आपको कोर्ट तक बुलाना ही आपको लगता कि सजा मिल रही है ?

मैं आपको यह इसलिए बता रहा हूं कि क्यूँ क़ि आप देश में आम आदमी की आवाज बनना चाहते हैं। आप सूट-बूट की सरकार पर हमला बोलकर गरीब-कुचले की बात कर रहे हैं।

राहुल जी, मैं देश को उस जगह से देखता हूं जहां एक ओर आप दिखते हैं जो तमाम तंत्र लगा देता है कि उसे कोर्ट के कटघरे तक में नहीं जाना पड़े। जबकि कोर्ट उसके घर से महज दो-तीन किलोमीटर भर की दूरी पर है। क्यों लोगो को आप सलमान खान सरीखे दिख हैं जिन्हें राहत देने के लिए मुंबई के हाईकोर्ट से लेकर दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट तक में रात तक अर्जी की लाइन लग जाती है। राहत मिल भी जाती है। याकूब के लिए रात के दो बजे कोर्ट सज जाती है। जयललिता दिखती है जिसे करप्शन के मामले में हाई कोर्ट से सजा मिलती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट तुरंत उस फैसले की समीक्षा करती है। जिस देश में लाखों केस पेंडिंग है,जिनमे एक तारीख के लिए , आम आदमी को सालों लग जाते हैं, जयललिता के लिए हर दिन केस सुनने के लिए खास तौर पर कोर्ट बैठती है। चार महीने में ही फैसला सुना देती है कि वह निर्दोष थी। नतीजे पर संदेह नहीं है। लेकिन सवाल है कि ऐसे नतीजे के रास्ते दूसरे केस में कैसे बंद हो जाते हैं।

सवाल इसलिए है क्योंकि मुझे दूसरी ओर कानपुर के ईमानदार डाककर्मी शिवलाल दिखते हैं जो 15 साल की सजा मात्र 5 रुपये की चोरी के लिए काटते हैं। 30 साल बाद कोर्ट का फैसला आता है कि वह निर्दोष था। उसे ऑफिस वालों ने प्रोमोशन से रोकने के लिए ट्रैप किया था। जेल में बंद ऐसे लोग दिखाए देते हैं जो सालों से जेल में सिर्फ इस कारण बंद है कि उन्हें जमानत लेने के लिए पैसा नहीं है। मुझे ललित नारायण मिश्र मर्डर केस दिखता है जिसमें कुल 47 साल लग जाते हैं फैसला सुनाने में।वह भी अधूरा। वह समाज भी दिखता है जिसमें कचहरी का चक्कर किसी पूर्व जन्म का पाप माना जाता है।

दुविधा यही है। मैं न्याय के किस पहलू को असली मानूं? कैसे मानूं कि कानून सबके लिए समान है?

क्यों कोई सालों अपनी तरकीब लगागर कोर्ट के कटघरे तक में खड़ा होने से खुद को बचा लेता है?

क्यों कोई सालों बिना सजा के जेल में अपनी जिंदगी बिता देता है।

आप अगर वास्तव में देश की गरीबों की बात करना चाहते हैं तो आम आदमी की तरह केस का सामना कीजिये।

आपका
एक मामूली आदमी
sunil darda

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