कहानी में सस्पेंस का प्रयास अंत तक बरक़रार रहा। कहानी की पात्र नौजवान क्रिस्टी हर रोज़ मन में एक कहानी घड़ती है, खुद को सुनाती और सो जाती है. संवादों के माध्यम से कहानी के क़िरदार अपनी बात कहने में सफ़ल रहे हैं. एक क्रिया दूसरी क्रिया की उत्पति का कारण बनती है. पानी की एक लहर जैसे अपनी हलचल से दूसरी को जगा देती है, उसी तरह मानव मन में उठा बवंडर भी अपनी ख़ामोशियों के शोर से सोच में उमंगें पैदा करता है. हलचल का यही उफ़ान उस निशब्दता को भंग करता है जो किरदारों के मन में बर्फ़ की तरह जमी हुई है. जीवन की परिधी में उस मोड़ से गुज़रते हुए इस कहानी की ज़मीन हर युवा जेनरेशन को अपने आप से जोड़ती है जिसमें कुछ अनकही बातें किरदारों के अंतर्मन के द्वंद्व को, उनके ज्ञान-अज्ञान की सीमाओं को, उनकी समझ-बूझ से परिचित कराती है. मन की अवस्था जिसमें सोच की उलझी- उलझी बुनावट है वही नॉर्मल को अब्नार्मल बना पाने में पहल भी हुई है। संस्कार और संस्कृति घर में, आसपास से, वातावरण से हासिल होते हैं. पर कहीं ऐसा भी होता है कि उन संस्कारों की धरोहर को लेकर ही कुछ आत्माएं जन्म लेती हैं- जैसे क्रिस्टी. नाम, माता- पिता, पालन- पोषण सब विदेशी, पर पाकीज़ सोच का दायरा उसके अपने तन-मन में पनपता है, फिर वह चाहे किसी हिन्दू का हो, या क्रिस्टियन का या किसी और जात वर्ण का. वक़्त और वातावरण का उस से कोई सरोकार नहीं रहता.
देवी नागरानी
न्यू जर्सी, यू. एस. ए., dnangrani@gmail.com
