समय निरंतर बदलता रहता है, उसके साथ समाज भी बदलता है और सभ्यता भी विकसित होती है।लेकिन समय की इस यात्रा में अगर उस समाज की सोच नहीं बदलती तो वक्त ठहर सा जाता है।
1901 में जब नोबल पुरस्कारों की शुरुआत होती है और 118 सालों बाद 2019 में जब नोबल पुरस्कार विजेताओं के नामों की घोषणा होती है तो कहने को इस दौरान 118 सालों का लंबा समय बीत चुका होता है लेकिन महसूस कुछ ऐसा होता है कि जैसे वक्त थम सा गया हो।
क्योंकि 2019 इक्कीसवीं सदी का वो दौर है जब विश्व भर की महिलाएं डॉक्टर इंजीनियर प्रोफेसर पायलट वैज्ञानिक से लेकर हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं। यहाँ तक कि हाल ही के भारत के महत्वकांक्षी चंद्रयान 2 मिशन का नेतृत्व करने वाली टीम में दो महिला वैज्ञानिकों के अलावा पूरी टीम में लगभग 30% महिलाएं थीं। कमोबेश यही स्थिति विश्व के हर देश के उन विभिन्न चनौतीपूर्ण क्षेत्रों में भी महिलाओं के होने की है जो महिलाओं के लिए वर्जित से माने जाते थे जैसे खेल जगत,सेना, पुलिस, वकालत, रिसर्च आदि।
अगर आप इस कथन के विरोध में नोबल पुरस्कार के शुरुआत यानी 1903 में ही मैडम क्यूरी को नोबल दिए जाने का तर्क प्रस्तुत करना चाहते हैं तो आपके लिए इस घटना के पीछे का सच जानना रोचक होगा जो अब इतिहास में दफन हो चुका है। यह तो सभी जानते हैं कि रेडिएशन की खोज मैडम क्यूरी और उनके पति पियरे क्यूरी दोनों ने मिलकर की थी लेकिन यह एक तथ्य है कि 1902 में जब इस कार्य के लिए नामांकन दाखिल किया गया था तो नोबल कमिटी द्वारा मैडम क्यूरी को नामित नहीं किया गया था, सूची में केवल पियरे क्यूरी का ही नाम था । पियरे क्यूरी के एतराज और विरोध के कारण मैडम क्यूरी को भी नोबल पुरस्कार दिया गया और इस प्रकार 1903 में वो इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला वैज्ञानिक और फिर 1911 में रेडियम की खोज करके दूसरी बार नोबल पाने वाली पहली महिला बनीं।
स्पष्ट है कि प्रतिभा के बावजूद महिलाओं को लगभग हर क्षेत्र में कमतर ही आंका जाता है और उन्हें काबलियत के बावजूद जल्दी आगे नहीं बढ़ने दिया जाता। 2018 की नोबल पुरस्कार विजेता डोना स्ट्रिकलैंड दुनिया के सामने इस बात का जीता जागता उदाहरण हैं जो अपनी काबलियत के बावजूद सालों से कनाडा की प्रतिष्ठित वाटरलू यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर ही कार्यरत रहीं थीं। इस पुरस्कार के बाद ही उन्हें प्रोफेसर पद की पदोन्नति दी गई।
आप कह सकते हैं कि पुरूष प्रधान समाज में यह आम बात है। आप सही भी हो सकते हैं। किंतु मुद्दा कुछ और है। दरअसल यह आम बात तो हो सकती है लेकिन यह “साधारण” बात नहीँ हो सकती। क्योंकि यहाँ हम किसी साधारण क्षेत्र के आम पुरुषों की बात नहीं कर रहे बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के असाधारण वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, गणितज्ञ, साहित्यकार पुरुषों की बात कर रहे हैं जिनकी असाधारण बौद्धिक क्षमता और जिनका मानसिक स्तर उन्हें आम पुरुषों से अलग करता है। लेकिन खेद का विषय यह है कि महिलाओं के प्रति इनकी मानसिकता उस भेद को मिटाकर इन कथित इंटेलेकचुअल पुरुषों को आम पुरुष की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है । पुरूष वर्ग की मानसिकता का अंदाजा ई -लाइफ जैसे साइंटिफिक जर्नल की इस रिपोर्ट से लगाया जा सकता है कि केवल 20% महिलाएं ही वैज्ञानिक जर्नल की संपादक, सीनियर स्कॉलर और लीड ऑथर जैसे पदों पर पहुंच पाती हैं। आप कह सकते हैं कि इन क्षेत्रों में महिलाओं की संख्या और उपस्थिति पुरुषों की अपेक्षा कम होती है। इस विषय पर भी कोपेनहेगेन यूनिवर्सिटी की लिसोलेट जौफ्रेड ने एक रिसर्च की थी जिसमें उन्होंने यू एस नेशनल साइंस फाउंडेशन से इस क्षेत्र के 1901 से 2010 तक के जेंडर आधारित आंकड़े लिए और इस अनुपात की तुलना नोबल पुरस्कार पाने वालों की लिंगानुपात से की। नतीजे बेहद असमानता प्रकट कर रहे थे। क्योंकि जिस अनुपात में महिला वैज्ञानिक हैं उस अनुपात में उन्हें जो नोबल मिलने चाहिए वो नहीं मिलते।
जाहिर है इस प्रकार का भेदभाव आज के आधुनिक और तथाकथित सभ्य समाज की पोल खोल देता है।लेकिन अब महिलाएँ जागरूक हो रही हैं। वो वैज्ञानिक बनकर केवल विज्ञान को ही नहीं समझ रहीं वो इस पुरूष प्रधान समाज के मनोविज्ञान को भी समझ रही हैं। वो पायलट बनकर केवल आसमान में नहीं उड़ रहीं बल्कि अपने हिस्से के आसमाँ को मुट्ठी में कैद भी कर रही हैं। यह सच है कि अब तक स्त्री पुरूष के साथ कदम से कदम मिलाकर सदियों का सफर तय कर यहाँ तक पहुंची है, इस सच्चाई को वो स्वीकार करती है और इस साथ के लिए पुरूष की सराहना भी करती है। लेकिन अब पुरूष की बारी है कि वो स्त्री की काबलियत को उसकी प्रतिभा को स्वीकार करे और उसको यथोत्तचित सम्मान दे जिसकी वो हक़दार है।
डॉ नीलम महेंद्र
लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं