वो कलाम नहीं कमाल थे

उनका सपना था कि वह प्लेन उड़ाएँ
इस ख़्वाब को हक़ीक़त में बदलने के लिए उन्हें M.I.T. में दाख़िला लेना था जिसके लिए हज़ार रुपए की आवश्यकता थी यह रकम उस समय एक मल्लाह परिवार के लिए बहुत बड़ी थी इसलिए उनकी बहन ज़ोहरा ने अपने ज़ेवर गिरवी रखकर उन्हें पढ़ने भेजा क्योंकि वह बहन अपने भाई को शिक्षित देखना चाहती थी।

बहन का यह एहसान अपने माथे पर लिए M.I.T. के तीन वर्ष को पूरा किया और पहुँच गए देहरादून भारतीय वायुसेना में पायलट बनने का सपना लिये मगर यहाँ उन्हें निराशा हाथ लगी।

अब मन में हज़ारों विचारों ने बग़ावत शुरू कर दी
और निर्णय यह निकला कि जीवन समाप्त कर लिया जाए।

लेकिन मन तो अशांत था तो सोचा ऋषिकेश की प्राकृतिक शांति के शरण मे चला जाए।

यहाँ उनकी मुलाक़ात स्वामी शिवानंद जी से हुई स्वामी जी ने कहा ” अपनी नियति को स्वीकार करो और जाकर अपना जीवन अच्छा बनाओ। नियति को मंजूर नहीं था कि तुम वायुसेना के पायलट बनो, नियति तुम्हें जो बनाना चाहती है उसके बारे में अभी कोई नहीं बता सकता; लेकिन नियति यह पहले ही तय कर चुकी है।
अपनी इस असफलता को भूल जाओ जैसे कि नियति को तुम्हें यहां लाना ही था। असमंजस से निकल अपने अस्तित्व के लिए सही उद्देश्य की तलाश करो और अपने आप को ईश्वर की इच्छा पर छोड़ दो।”

स्वामी जी की यह बात उनके मन में उतर गई और मन के हजारों बाग़ी विचारों को ख़्वाबों के शीशमहल के साथ दफन करके वह फिर नए कल की शुरुआत में जुट गए।

लेकिन असफलताओं और निराशाओं ने उनका साथ यहीं पर नहीं छोड़ा बल्कि उनके ज़िन्दगी के तजुर्बे के साथ असफलताएं और निराशाएं चलती रही जिससे वह हर बार कुछ नया सीख रहे थे।

मगर 10 अगस्त, 1979 S.L.V.-3 की असफ़लता ने चारों तरफ निराशा फैला दी। लेकिन उन्होंने ज़िन्दगी में कभी हारना तो सीखा ही नहीं था इसलिए जुट गए फिर से एक नए कल की सुबह के इस्क़बाल के लिए जिसका सूरज 18 जुलाई, 1980 को S.L.V.-3 की सफलता के साथ उदय हुआ।

इस सफलता की गूंज मैडम इंदिरा तक भी पहुँची।

S.L.V.-3 की सफलता के बाद जब वह एक कार्यक्रम के सिलसिले में बम्बई में थे तब उनके पास प्रो. सतीश धवन का फोन आता है और धवन कहते हैं कि तुम्हें अगली सुबह ही दिल्ली आना होगा।

कार्यक्रम आयोजक ने दिल्ली तक के टिकट का तो इंतेज़ाम कर दिया लेकिन एक और गम्भीर समस्या रह गयी थी तो उन्होंने फिर से धवन साहब को कॉल लगाया और हिचकिचाहट के साथ बताया कि “हमें प्रधानमंत्री से मिलना है लेकिन मैं तो सादे कपड़े और हवाई चप्पल ही पहना हुआ हूँ।”
तो धवन साहब ने कहा कि “तुम्हें कपड़ों से सजने को क्या ज़रूरत है तुम तो अपनी कामयाबी से ही सजे हुए हो।”

इसके बाद न जाने कितनी कामयाबियों ने सर कलाम के क़दमों को चूमा और वह सर कलाम से मिज़ाइल मैन कलाम बन गए।

मेरे प्रेरणास्रोत सर कलाम पायलट तो न बन पाए लेकिन वह वो वह बने जो सदियों तक कोई नहीं बन सकता और इस आधुनिक युग में अपनी मिज़ाइल प्रणाली और फ़क़ीराना अंदाज़ से विश्व पटल पर उन्होंने एक अलग ही पहचान बनाई। पूरी ज़िंदगी में सादगी के साथ एक शिक्षक की भूमिका निभाते रहे और आज ही के दिन वर्ष 2015 में शिलॉन्ग की धरती पर जीवन को एक शांत विराम चिन्ह दे गए…

“बड़े ग़ौर से सुन रहा था ज़माना तुम्हें
तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते-कहते”

-अतहर अहमद
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9314894220

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