ठाकुर संग्रामसिंह ‘राष्ट्रवर’ द्वारा श्रीराम के जीवन पर रचित अनूठे महाकाव्य “दाशरथि” का लोकार्पण

आसान नहीं है, पूर्वजों के अधूरे कार्यों को 45-50 वर्षों उपरांत नई पीढ़ी में कोई ऐसा संस्कारी जन्मे जो उन कार्यों की महत्ता को समझे और उसे आगे बढ़ाने में जी-जान लगा के पूरा करें।

राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट में एक वर्ष के अंतराल में चित्रकला विषय में मुझसे एक वर्ष पूर्व अपना डिप्लोमा पूर्ण करने वाले मित्र बृजराज राजावत ने यह अकल्पनीय कार्य करते हुए इस महाकाव्य के चित्र भी स्वयं की कलम से चित्रित कर अपने नानोसा के स्वप्न को पूरा किया।

तत्कालीन किशनगढ़ स्टेट (वर्तमान में केकड़ी ज़िले) के सापणदा के ठाकुर संग्रामसिंह ‘राष्ट्रवर’ ने छोटे-से गाँव में रहकर लगभग आधी सदी पूर्व रामकथा पर महाकाव्य ‘दाशरथि’ का सृजन किया। ठाकुर साहब तो 30 वर्ष पूर्व परलोक सिधार गए, उनके रहते हुए यह महाकाव्य प्रकाशित नहीं हो पाया था।

बरसों बाद, अपने नानोसा की प्रेरणा से चित्रकार बृजराज राजावत ने इसके प्रकाशन का बीड़ा उठाया। ठाकुर सा. के बेटे नाथू सिंह के पर्याप्त सहयोग से इस ग्रंथ का पिछले साल दिसंबर में प्रकाशन और टोंक में विमोचन हुआ।

शंभूसिंह राजावत ‘अल्पज्ञ’ स्मृति संस्थान के सहयोग से ग्रासरूट मीडिया फाउंडेशन की ओर से 4 अप्रैल, 2024 को जयपुर की प्रसिद्ध कला दीर्घा कलानेरी में आयोजित गरिमामय कार्यक्रम में ‘दाशरथि’ का लोकार्पण किया गया। दिल्ली से आए देवांशु झा ‘पद्मनाभ’ आयोजन के मुख्य अतिथि और हिंदी-राजस्थानी के कवि और शिक्षाविद् गजादान चारण ‘शक्तिसुत’ विशिष्ट अतिथि थे, जबकि राजस्व मंडल के अध्यक्ष राजेश्वर सिंह ने समारोह की अध्यक्षता की.

समारोह के शुरू में गजादानजी ने विविध दोहों और प्रसंगों के ज़रिए ‘दाशरथि’ की गहन व्याख्या तथा विशद् विवेचन किया। उन्होंने महाकाव्य को इस मायने में अनूठा बताया कि संग्रामसिंह जी ने राम को अवतार नहीं, वरन् पराक्रमी राजा, महानायक, मर्यादा पुरुषोत्तम और श्रेष्ठ महापुरुष माना है। वैदिक परंपरा का अनुशीलन करने वाले संग्रामसिंहजी ने अंधविश्वास पर प्रहार और चमत्कारों से परहेज किया। अहिल्या उद्धार का उदाहरण देते हुए गजादानजी से स्पष्ट किया कि संग्राम सिंहजी ने अहिल्या को पाषाण की बजाय पीड़ित, बहिष्कृत, तिरस्कृत नारी बताया है। सीता स्वयंवर में शिव धनुष प्रसंग में रावण और बाणासुर को राम की तुलना में कमजोर दिखाने की बजाय बलशाली बताकर दोनों के आपसी टकराव को टालकर, स्वयंवर स्थल से उनका पलायन करवाया है। संग्रामसिंहजी ने उर्मिला के पात्र के ज़रिए नारी शक्ति और सशक्तिकरण पर व्यापक तथा विस्तार से लिखा है। ‘कोदंड रामकथा’ के लेखक देवांशु और राजेश्वर सिंह ने भी सुरुचिपूर्ण तथा सारगर्भित उद्बोधन दिया। समारोह का संचालन प्रदक्षिणा पारीक ने किया, जबकि समापन पर आयोजक संस्था की ओर से प्रमोद शर्मा ने आगंतुकों का मायड़ भाषा में आभार व्यक्त किया, और कहा कि हमने इस पावन आयोजन के लिए बृजराज जी और ग्रासरूट मीडिया फाउंडेशन का भी सहर्ष आभार व्यक्त करते है ! कार्यक्रम में धर्मेन्द्र राठौड़, अमित कल्ला, महेश स्वामी, जगनमोहन मथोड़िया, माणक चंद, एम.डी. शर्मा, लोकेश कुमार सिंह, राजेन्द्र बोड़ा एवं अन्य कलाकार एवं साहित्यकार उपस्थित रहे।

इस महाकाव्य के रचेता संग्राम सिंहजी ने 12 कांड में रामकथा को विस्तार दिया है। 1320 पृष्ठों के महाग्रंथ का प्रकाशन, शौर्यभूमि प्रकाशन, जयपुर ने किया है।

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