संत रैदास जी नाम से विख्यात संत श्री रविदास जी का मध्ययुगीन संतों में महत्वपूर्ण स्थान है। संत रैदास जी कबीर के समसामयिक कहे जाते हैं। अत: इनका समय सन् 1398 से 1518 ई. (1445 से 1575 ई.) के आसपास का रहा होगा। मान्यता है कि उनका जन्म जन्म सन् 1388 (इनका जन्म कुछ विद्वान 1398 में हुआ भी बताते हैं) को बनारस में हुआ था। उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया बताया जाता है।
जीवन परिचय
श्री रविदासजी ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। आपको रामानन्दजी का शिष्य माना जाता है। इनके अतिरिक्त उनकी संत कबीरदासजी से भी भेंट की अनेक कथाएं प्रसिद्ध हैं। नाभादास कृत भक्तमाल में संत रैदास जी के स्वभाव और उनकी चारित्रिक उच्चता का प्रतिपादन मिलता है। प्रियादास कृत भक्तमाल की टीका के अनुसार चित्तौड़ की झालारानी उनकी शिष्या थीं, जो महाराणा सांगा की पत्नी थीं। इस दृष्टि से संत रैदास जी का समय सन् 1482-1527 ई. (सं. 1539-1584 वि.) अर्थात विक्रम की सोलहवीं शती के अंत तक चला जाता है। कुछ लोगों का अनुमान कि यह चित्तौड़ की रानी मीराबाई ही थीं और उन्होंने संत रैदास जी का शिष्यत्व ग्रहण किया था। मीरा ने अपने अनेक पदों में संत रैदास जी का गुरू रूप में स्मरण किया है –
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी।
सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।
संत रैदास जी ने अपने पूर्ववर्ती और समसामायिक भक्तों के सम्बन्ध में लिखा है। उनके निर्देश से ज्ञात होता है कि संत कबीर की मृत्यु उनके सामने ही हो गयी थी। संत श्री रैदास जी की अवस्था 120 वर्ष की मानी जाती है। इनका निधन सन् 1518 में बनारस में ही हुआ बताया जाता है।
संत श्री रैदास जी की ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्राण भेजा था। मध्ययुगीन साधकों में संत श्री रैदास जी का विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह वे भी संत कोटि के प्रमुख कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे। उन्होंने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। उनको उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी सफाई से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं। उनके चालीस पद पवित्र धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहब में भी सम्मिलित हैं।
व्यक्तित्व
संत श्री रैदास जी के समय में स्वामी रामानन्द काशी के बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सन्त थे। श्री रैदास जी उनकी शिष्यमंडली के महत्वपूर्ण सदस्य थे। प्रारम्भ में ही श्री रैदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष सुख का अनुभव होता था। वह उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने श्री रैदास जी तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। श्री रैदास जी पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोंपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे। कहते हैं, ये अनपढ़ थे, किंतु संत-साहित्य के ग्रंथों और गुरु-ग्रंथ साहब में इनके पद पाए जाते हैं।
वचनबद्धता
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का ज्ञान मिलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। श्री रैदास जी के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को आज ही जूते बनाकर देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि आज मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहां लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इस कठौती के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि -मन चंगा तो कठौती में गंगा।
शिक्षा
संत श्री रैदास जी ने ऊंच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित- भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है, जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि लघु शरीर की पिपीलिका इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
सत्संग
शैशवावस्था से ही सत्संग के प्रति उनमें तीव्र अभिरुचि थी। अत: राम-जानकी की मूर्ति बनाकर पूजन करने लगे थे। पिता ने किसी कारणवश उन्हें अपने से अलग कर दिया था और वे घर के पिछवाड़े छप्पर डालकर रहने लगे। ये परम संतोषी और उदार व्यक्ति थे। वे अपने बनाये हुये जूते बहुधा साधु-सन्तों में बांट दिया करते थे। इनकी विरक्ति के सम्बन्ध में एक प्रसंग मिलता है कि एक बार किसी महात्मा ने उन्हे पारस पत्थर दिया, जिसका उपयोग भी उसने बता दिया। पहले तो सन्त श्री रैदास जी ने उसे लेना ही अस्वीकार कर दिया। किन्तु बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने ग्रहण कर लिया और अपने छप्पर में खोंस देने के लिये कहा। तेरह दिन के बाद लौटकर उक्त साधु ने जब पारस पत्थर के बारे में पूछा तो संत श्री रैदास जी का उत्तर था कि जहां रखा होगा, वहीं से उठा लो और सचमुच वह पारस पत्थर वहीं पड़ा मिला।
सत्य
सन्त श्री रैदास जी ने सत्य को अनुपम और अनिवर्चनीय कहा है। वह सर्वत्र एक रस है। जिस प्रकार जल में तरंगे हैं, उसी प्रकार सारा विश्व उसमें लक्षित होता है। वह नित्य, निराकार तथा सबके भीतर विद्यमान है। सत्य का अनुभव करने के लिये साधक को संसार के प्रति अनासक्त होना पड़ेगा। संत श्री रैदास जी के अनुसार प्रेममूलक भक्ति के लिये अहंकार की निवृत्ति आवश्यक है। भक्ति और अहंकार एक साथ संभव नहीं है। जब तक साधक अपने साध्य के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण नहीं करता तब तक उसे लक्ष्य की सिद्धि नहीं हो सकती।
साधना
सन्त श्री रैदास जी मध्ययुगीन इतिहास के संक्रमण काल में हुए थे। दलित और उपेक्षित पशुवत जीवन व्यतीत करने के लिये बाध्य थे। यह सब उनकी मानसिकता को उद्वेलित करता था। सन्त श्री रैदास जी की समन्वयवादी चेतना इसी का परिणाम है। उनकी स्वानुभूतिमयी चेतना ने भारतीय समाज में जागृति का संचार किया और उनके मौलिक चिन्तन ने शोषित और उपेक्षित शूद्रों में आत्मविश्वास का संचार किया। परिणामत: वह ब्राह्मणवाद की प्रभुता के सामने साहसपूर्वक अपने अस्तित्व की घोषणा करने में सक्षम हो गये। सन्त श्री रैदास जी ने मानवता की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। उनके मन में इस्लाम के लिए भी आस्था का समान भाव था। कबीर की वाणी में जहां आक्रोश की अभिव्यक्ति है, वहीं दूसरी ओर सन्त श्री रैदास जी की रचनात्मक दृष्टि दोनो धर्मों को समान भाव से मानवता के मंच पर लाती है। सन्त श्री रैदास जी वस्तुत: मानव धर्म के संस्थापक थे।
धर्म
वर्णाश्रम धर्म को समूल नष्ट करने का संकल्प, कुल और जाति की श्रेष्ठता की मिथ्या सिद्धि सन्त श्री रैदास जी द्वारा अपनाये गये समन्वयवादी मानवधर्म का ही एक अंग है, जिसे उन्होंने मानवतावादी समाज के रूप में संकल्पित किया था।
जन्म जात मत पूछिये, का जात अरू पात।
रविदास पूत सभ प्रभ के कोउ नहि जात कुजात।।
भक्ति
उपनिषदों से लेकर महर्षि नारद और शाण्डिल्य ने भक्ति तत्व की अनेक प्रकार से व्याख्या की है। श्री रैदास जी ने भक्ति में रागात्मिका वृत्ति को ही महत्व दिया है। नाम मार्ग और प्रेम भक्ति उनकी अष्टांग साधना में ही है। उनकी अष्टांग साधना पध्दति उनकी स्वतंत्र व स्वछंद चेतना का प्रवाह है। यह साधना पूर्णत: मौलिक है।
समाज पर प्रभाव
संत श्री रैदास जी की वाणी, भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उनकी शिक्षाओं का श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे। उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
रचनाएं
संत श्री रैदास जी अनपढ़ कहे जाते हैं। संत-मत के विभिन्न संग्रहों में उनकी रचनाएं संकलित मिलती हैं। राजस्थान में हस्तलिखित ग्रंथों में रूप में भी उनकी रचनाएं मिलती हैं। उनकी रचनाओं का एक संग्रह बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग से प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त इनके बहुत से पद गुरुग्रंथ साहिब में भी संकलित मिलते हैं। यद्यपि दोनों प्रकार के पदों की भाषा में बहुत अंतर है तथापि प्राचीनता के कारण गुरुग्रंथ साहब में संगृहित पदों को प्रमाणिक मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। संत श्री रैदास जी के कुछ पदों पर अरबी और फारसी का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। उनके अनपढ़ और विदेशी भाषाओं से अनभिज्ञ होने के कारण ऐसे पदों की प्रामाणिकता में सन्देह होने लगता है। अत: उनके पदों पर अरबी-फारसी के प्रभाव का अधिक संभाव्य कारण उनका लोक प्रचलित होना ही प्रतीत होता है।
रैदास के पद
अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।
महत्व
आज भी सन्त श्री रैदास जी के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त श्री रैदास जी को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। संत कवि श्री रैदास जी उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही है, जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। मधुर एवं सहज संत श्री रैदास जी की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी श्री रैदास जी उच्च-कोटि के विरक्त संत थे। उन्होंने ज्ञान-भक्ति का ऊंचा पद प्राप्त किया था। उन्होंने समता और सदाचार पर बहुत बल दिया। वे खंडन-मंडन में विश्वास नहीं करते थे। सत्य को शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना ही उनका ध्येय था। संत श्री रैदास जी का प्रभाव आज भी भारत में दूर-दूर तक फैला हुआ है।
संत श्री रैदास जी की विचारधारा और सिद्धांतों को संत-मत की परम्परा के अनुरूप ही पाते हैं। उनका सत्यपूर्ण ज्ञान में विश्वास था। उन्होंने भक्ति के लिए परम वैराग्य अनिवार्य माना जाता है। परम तत्व सत्य है, जो अनिवर्चनीय है-यह परमतत्व एकरस है तथा जड़ और चेतन में समान रूप से अनुस्यूत है। वह अक्षर और अविनश्वर है और जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में अवस्थित है। संत श्री रैदास जी की साधनापद्धति का क्रमिक विवेचन नहीं मिलता है। जहां-तहां प्रसंगवश संकेतों के रूप में वह प्राप्त होती है। विवेचकों ने संत श्री रैदास जी की साधना में अष्टांग योग आदि को खोज निकाला है। संत श्री रैदास जी अपने समय के प्रसिद्ध महात्मा थे। संत कबीर ने संतनि में रविदास संत कह कर उनका महत्व स्वीकार किया। इसके अतिरिक्त नाभादास, प्रियादास, मीराबाई आदि ने संत श्री रैदास का ससम्मान स्मरण किया है। संत श्री रैदास जी ने एक पंथ भी चलाया, जो रैदासी पंथ के नाम से प्रसिद्ध है। इस मत के अनुयायी पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश आदि में पाये जाते हैं।
-पीर सैयद गुलाम रसूल चिश्ती, खुद्दाम ए ख्वाजा, दरगाह शरीफ, अजमेर
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