संघनायक गुरुदेव श्री प्रियदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि दसवेंकालिक सूत्र के चौथे उद्देश्य में विनय समाधि के चार भेद दिए हैं विनय समाधि, सूत्र समाधि, तप समाधि और आचार समाधि। इन भेदों को फरमाते हुए प्रभु ने फरमाया कि तुम इस लोक के लिए तप या आचार आदि का पालन मत करना। ना परलोक के लिए और ना पूजा यश सम्मान आदि की कामना के लिए।तुम केवल और केवल कर्म निर्जरा के लक्ष्य को लेकर ही इस समाधि के सूत्रों का पालन करना।
महावीर कथा के माध्यम से हमारा भी वर्णन चल रहा था की गौशालक भी तेजोलेश्या की लब्धि को प्राप्त करना चाह रहा है, मगर यहां उसका उद्देश्य मान,सम्मान, प्रसिद्धि आदि को प्राप्त करना, चमत्कार आदि को दिखाने का है ।आज भी हमारे यहां ज्यादातर लोग चमत्कार को ही नमस्कार करते हैं।गौतम स्वामी का वर्णन आता है कि वह भी लब्धियो के भंडार थे।उनको भी तेजोलेश्यां की लब्धि प्राप्त थी। मगर वो लब्धिया उन्हें संयम साधना के प्रभाव से स्वत ही प्राप्त हुई थी। गौशालक ने तेजोलेश्या प्राप्त कर सर्वप्रथम उसके प्रयोग के लिए उसका दुरुपयोग कर एक निरप्रराध महिला जो पानी भर रही थी उसको जलाकर कर दिया। और स्वयं को तीर्थंकर बताने लग गया। और आश्चर्य की उसको साथ देने वाले भी मिल गए
इधर सत्येंद्र महाराज द्वारा भगवान की प्रशंसा की गई तो संगम नामक देव को यह सहन नहीं हुई उसने कहा मैं भगवान को साधना से विचलित करके रहूंगा। वह जाता है और एक ही रात में सांप, बिच्छू, सिंह आदि बनकर प्रभु को 20 महान उपसर्ग देता है,लेकिन प्रभु उन्हें भी समभाव से सहन कर लेते हैं। लगातार 6 माह तक व प्रभु को कष्ट देकर साधना से विचलित करने का प्रयास करता है। मगर प्रभु की क्षमता के सामने वह हार जाता है। प्रभु से माफी मांगता है और शकेंद्र महाराज द्वारा सुधर्म सभा में से निष्कासित किया जाता है। जीर्ण सेठ का वर्णन आता है कि वह प्रभु को आहार देने की भावना से अपना संसार घटा लेता है।
दसवेकालिक सूत्र के 9 वे अध्ययन का विवेचन करते हुए गुरुदेव श्री सौम्यदर्शन मुनि जी महारासा ने फरमाया कि विनय समाधि दिलाने वाला होता है। क्रोध,मान,माया आदि विनय के शत्रु होते हैं। गुरु यदि मंदबुद्धि या अल्प श्रुत ज्ञान वाले भी क्यों ना हो,साधक को पूर्ण विनयवान होना चाहिए। गुरु की आशातना करने वाला मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। और वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। जिस प्रकार वृक्ष उसकी जड़ के आधार पर टिकता है, उसी प्रकार धर्म रूपी वृक्ष भी विनय रूपी जड़ के आधार पर ही टिकता है। शिष्य को अपनी इच्छाओं का त्याग करके गुरु की इच्छा के अनुरूप कार्य करने का प्रयास करना चाहिए।अगर गुरु तप करने की मना करें तो तप नहीं करना और सेवा के लिए कहे तो अपना स्वाध्याय आदि छोड़कर सेवा करना। प्रभु ने तो यहां तक कह दिया कि गुरु हित की बात कहे और शिष्य उसे स्वीकार नहीं करें तो जैसे आई हुई दिव्य लक्ष्मी को कोई डंडे मार कर भगा दे यह उसी के समान होता है। अत:विनय गुण को धारण करके गुरु कृपा प्राप्ति का शिष्य को प्रयास करना चाहिए ।
दसवेंकालिक सूत्र का मूल वाचन पूज्य श्री विरागदर्शन जी महारासा ने किया।
धर्म सभा का संचालन हंसराज नाबेड़ा ने किया।
पदमचंद जैन