दरगाह में चढावे पर रिसीवर नियुक्त करने के निर्णय का खुलासा

dargaah-450-360अजमेर। सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह पर श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाऐ जाने वाले चढ़ावे पर हक के विवाद के 80 साल पुर्व निर्णित वाद की इजराय याचिका का निपटारा करते हुऐ जिला एवं सत्र न्यायाधीश श्री उमेश कुमार शर्मा ने दरगाह के प्रबंध की देख भाल करने वाली दरगाह कमेटी को रिसीवर नियुक्त करते हुऐ चढ़ावे की वसूली की कार्यवाही की प्रक्रिया का निर्धारण करके तीन सप्ताह के भीतर जिला न्यायालय सहित डिक्रीदार व अन्य पक्षकारो के सूचित करने के निर्देश जारी किये हैं। जिला न्यायाधीश उमेश कुमार शर्मा ने शनिवार को खुले न्यायालय में यह आदेश सुनाया।
डिक्रीदार दरगाह दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान के विधि अधिकारी एडवोकेट सैयद नजमी फारूकी ने बताया कि अदालत ने इजराय याचिका का निपटारा करते हुऐ वाद पर दो बिन्दू तय किये पहला ये क्या वाद पूर्व न्याय के सिद्धांत से प्रभावित है इस बिन्दू को डिक्रीदार दरगाह दीवान के पक्ष में निर्णित करते हुऐ अदालत ने खादिमों की इस दलील को नामंजूर कर दिया कि रिसीवर नियुक्ति का मुद्दा अदालत 11 अक्टूबर 12 को ही तय हो चुका है। तत्कालीन जिला न्यायाधीश अजय शारदा ने दरगाह दीवान की अर्जी खारिज करते हुए रिसीवर नियुक्ति से इंकार कर दिया था। ऐसे में एक बार जब यह बिंदु तय हो गया तो इसे दुबारा नहीं उठाया जा सकता है।
फारूकी ने बताया कि अदालत ने याचिका पर दुसरा बिन्दु यह तय किया कि आदेश 21 नियम 32.5. सी.पी.सी. के तहत डिक्री के निष्पादन के लिये रिसीवर नियुक्त किया जा सकता है। यह बिन्दु भी अदालत ने डिक्रीदार दरगाह दीवान के पक्ष में तय करते हुऐ माना कि सीपीसी के आदेश 21 नियम 32(5) के तहत रिसीवर के तौर पर नियुक्ति की जा सकती है। अदालत ने दरगाह दीवान व खादिमों के बीच चल रहे विवाद व उनके हितों का हवाला देते हुए दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट के तहत दरगाह कमेटी को रिसीवर नियुक्ति के लिए उपयुक्त माना। अदालत ने कहा कि दरगाह कमेटी डिक्री के निष्पादन के लिए कार्यविधि योजना तैयार कर तीन सप्ताह में पेश करे। यदी कोई पक्षकार चाहे तो इस पर आपत्ति दर्ज करवा सकते हैं। यह कार्रवाई आगामी तीन सप्ताह में की जानी है।
उन्होने बताया कि दरगाह दीवान जैनुअल आबेदीन की ओर से पूर्व में रिसीवर नियुक्ति की अर्जी नामंजूर होने के बाद सीपीसी के आदेश 21 नियम 32(5) के तहत अर्जी पेश कर निवेदन किया कि डिक्री का निषपादन न्यायालय अपने स्तर पर करके डिक्रीदार को उसका आधा हिस्सा दिलाऐ जाने का उचित आदेश प्रदान करें । दीवान का कहना था कि दरगाह में पेश होने वाले चढ़ावे व नजराने के लिए तत्कालीन दीवान सैयद आले रसूल के पक्ष में हुई डिक्री के तहत वह हिस्सा पाने के अधिकारी हैं। लेकिन खादिम विगत कई सालों से चढ़ावे में उनका हिस्सा नहीं दे रहे हैं। इसलिए डिक्री की पालना नहीं हो रही है। डिक्री की पालना तभी संभव है जबकि चढ़ावे के हिसाब व उसमें से दीवान का तय हिस्सा न्यायालय द्वारा नियुक्त व्यक्ति के जरिए दिया जाए की व्यवस्था करने के आदेश प्रदान करने का निवेदन किया था। डिक्रीदार दरगाह दीवान की ओर से एडवोकेट ललित कुमार सोगानी, एडवोकेट एस.ए.अलीमी, एडवोकेट सैयद नजमी फारूकी खादिमों की ओर से एडवोकेट ओ.पी.मंगल, एडवोकेट पी. गंडेविया, एडवोकेट इकबाल हुसैन, ने पैरवी की।
मुख्य तौर पर क्या कहा न्यायाधीश ने अपने आदेश में:-
ऽ पूर्व न्याय के सिद्धांत से प्रभावित होने के तर्क पर न्यायालय का निष्कर्ष था कि इस न्यायालय के आदेश दिनांक 5.10.2002 पर अतिविश्वास व दृष्टि चूक के कारण हुआ क्योंकि यह आदेश माननीय उच्च न्यायालय द्वारा एस.बी. सिविल रिविजन पिटिशन न. 374/2003 दिनांक 10.04.2006 को अपास्त किया जा चुका था।
ऽ इसी न्यायालय में पूर्व मे प्रस्तुत प्रार्थनापत्र आदेश 40 नियम 1 सी.पी.सी. के अन्र्तगत था। आया डिक्री के निष्पादन में अन्र्तगत आदेश 21 नियम 32 5 में समुचित आदेश किया जा सकता है नहीं उठाया गया था। इस लिऐ यह नहीं कहा जा सकता कि यह नहीं सुना गया और निर्णीत किया गया इस लिये पुर्व न्याय का सिद्धांत आकर्षित नहीं होता।
ऽ न्यायलय नें उन तर्कों से भी असहमति व्यक्त कि जिसमें इजराय के तहत प्रस्तुत डिक्री के बी. भाग को अलग करके देखना चाहिऐ क्योकि इसका डिक्री के ए. पार्ट से कोई संबध नहीं है। अदालत की नजर में इजराय के लिऐ प्रस्तुत डिक्री एक संयुक्त डिक्री है अतः उसे दो भागों मे नही बाटा जा सकता।
ऽ बुनियादी तौर पर वाद इन्टर प्लीडर के रूप मे मेजर आर.जे. हिले ओ.बी.ई. तत्कालीन जिला मजि. अजमेर मेरवाड़ा ने दायर किया उसमे यह अभिकथित किया गया कि 14 दिसम्बर 1925 से ख्वाजा साहब कि दरगाह और गुम्बद में चढ़ावे के तौर पर रूपयों और कबर पोश के रूप में 23 दिसम्बर 1925, वाद के आदेश अन्तर्गत धारा 144 सी.आर.पी.सी. इकत्रित किये व दरगाह कमेटी के अध्यक्ष के पास कोषालय में जमा किये गऐ
ऽ यह सत्य है कि पवित्र गुम्बद में जायरीन चढ़ावा इत्यादी पेश करते है। इस परिस्थती में यह नहीं माना जा सकता कि या डिक्रीदार को यह आदेश नहीं दिया जा सकता कि वह प्रत्येक भक्त से जोर जोर से चिल्ला कर ये कहे कि जो भी चढ़ावा पेश करना चाहता है उसमे से 50 फिसदी डिक्रीदार को देवे। ऐसी परिकल्पना भी श्रद्धालु की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने वाली होगी।
ऽ में इस बिन्दु से भी आंख नही चुराना चाहिऐ कि नजराना प्राप्त करने वाले के अधिकार के अतिरिक्त भक्तगणों के सलाम पेश करने के अधिकार को भी बिना किसी हस्तक्षेप सम्मान दिया जाना चाहिये।
ऽ मूल वाद के लंबित रहते 15.03.1926 को भी रिसीवर नियुक्त किया गया था। सब जज फस्र्ट क्लास अजमेर के समक्ष 14.03.1926 को खादिमों की ओर से रिसीवर नियुक्त करने हेतु एक प्राथर्नापत्र प्रस्तुत किया गया था और इस अर्जी पर रिसीवर नियुक्त किया गया था।
ऽ में प्रतिवादी विद्धान अधिवक्ताओं के इस तर्क से असहमत हूं कि इजराय के तहत प्रस्तुत डिक्री केवल घोषणात्मक डिक्री है और खादिमों को पेश किये जाने वाले नजराने में से वे 50 फिसदी देने हेतु बाध्य नहीं हैं। इस बिन्दु पर कई आॅथरिटिज प्रस्तुत की गई परंतु वह वर्तमान प्रकरण से भिन्न हैं। अतः यह पुर्णतः स्पष्ट है कि यदी किसी कार्य को न करने हेतु निषेधाज्ञा जारी की जाती है तो वह आज्ञापक निषेधाज्ञा भी रखती है।
ऽ यहां मुझे यह कहने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि यदी पक्षकारों ने सुफिज्म के सिद्धांतों व ज्ञान प्रेम दर्शन शास्त्र को मानते तो यह परिस्थती टाली जा सकती थी। उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्रार्थनापत्र को स्वीकार करना प्रकरण के समस्त पक्षकारों और जायरीनों के हक में होगा।
ऽ प्रश्न यह है कि यह जिम्मेदारी किसे न्यासित की जाऐ दरगाह कमेटी एक कानूनी निकाय है जो इस कार्य को अंजाम दे सकती है। दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट 1955 की धारा 11 की उप धारा एफ. और एच. के अनुसार दरगाह कमेटी का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह दरगाह मामलात का प्रबंधन करे।
ऽ दरगाह कमेटी इस हेतु बाध्य है कि वह मुस्लिम विधि के नियम जो भारत हनफी मुसलमानों पर लागु है की अनुपालना करते हुऐ अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुऐ अपनी ड्यूटी दे और उस पर यह भी बंधनकारी है कि वह सुस्थापित अधिकारों व कर्मकांडों धार्मिक अनुष्ठानों को चिश्तिया सिलसिले की मान्यताओं के अनुसार सुचारू रूप से चलावे।
ऽ अतः सी.पी.सी. के आदेश 21 नियम 32 5 के तहत दरगाह कमेटी को रिसीवर नियुक्त कर दरगाह कमेटी को यह निर्देश दिया जाता है कि वह तीन सप्ताह में अदालत को यह बताऐ कि वह सम्पूर्ण चढ़ावा प्राप्त कर इजराय के तहत पक्षकरों के बीच चढ़ावे को विभाजित करने का कार्य किस प्रकार किस तरह व किन तरिकों से करेगी।
पुर्व में भी रह चुका है रिसीवरः-
ख्वाजा साहब के आस्ताने मे रिसीवर की नियुक्ती पहली बार नहीं हुई है पूर्व में भी चढ़ावे पर हक के विवाद के चलते रिसीवर रह चुके है। 1922 में दरगाह दीवान और खादिमों के बीच विवाद के चलते तत्कालीन जिला कलेक्टर ने धारा 144 लगाकर चढ़ज्ञवा वसुलना आरम्भ कर दिया था इसके विरूद्ध सब जज फस्र्ट क्लास अजमेर के समक्ष 14.03.1926 को खादिमों की ओर से रिसीवर नियुक्त करने हेतु एक प्राथर्नापत्र प्रस्तुत किया गया था और इस अर्जी पर 1926 से 1040 तक रिसीवर नियुक्त किया गया था। इसी वाद में 19 नवम्बर 1979 से 24 जुलाई 1980 तक रिसीवर रहा। इसके बाद 27 फरवरी 1998 को राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा अतिरिक्त जिला न्यायाधीश संख्या एक को भी रिसीवर नियुक्त किया था।
ये है 80 साल पुराना मामला ………
तत्कालीन दरगाह दीवान सैयद आले रसूल ने दरगाह में पेश होने वाले नजराने में हिस्सा दिए जाने के लिए एक वाद संख्या 37/1926 न्यायलय सब जज अजमेर मे खादिम अल्ताफ हुसैन व अन्य के खिलाफ दायर किया। बुनियादी वाद इन्टर प्लीडर के रूप मे मेजर आर.जे. हिले ओ.बी.ई. तत्कालीन जिला मजि. अजमेर मेरवाड़ा ने दायर किया उसमे यह अभिकथित किया गया कि 14 दिसम्बर 1925 से ख्वाजा साहब कि दरगाह और गुम्बद में चढ़ावे के तौर पर रूपयों और कबर पोश के रूप में 23 दिसमबर 1925, वाद के आदेश अन्तर्गत धारा 144 सी.आर.पी.सी. इकत्रित किये व कोषालय में जमा किये गऐ ओर सुरक्षित रिखने हेतु दरगाह कमेटी के अध्यक्ष के पास यह भी अभिकथन किया गया कि प्रतिवादी सेख्या 1 जो उस समय अल्ताफ हुसैन पुत्र फिदा हुसैन थे बादशाह शाहजहां के फरमान के तहत उनका दावा करता है ओर दरगाह ख्वाजा के खादिम उस पर अपना हक जताते हैं। खादिमों और वर्तमान दीवान साहब के पुर्वजों के मध्य हुऐ इकरार नामे के तहत चुंकि वादी प्रतिवादीगण के अधिकारों के भिज्ञ नहीं हैं इसलिऐ प्रार्थना की गई कि पक्षकारों के पारस्परिक दावों को निस्तारित किया जावे कुछ व्यक्तियों को कथित सम्पत्ती व चढ़ावे को वसूल करने हेतु अधिकृत किया जावे। 3 मई 1933 में आले रसूल का दावा मंजूर हुआ और उन्हें नजराने में आधा हिस्सा दिए जाने के आदेश जारी किऐ गऐ 29 जनवरी 1940 को संशोधित डिक्री पारित हुई। डिक्री के दो हिस्से थे। इसमें से एक में कहा गया था कि आस्ताना शरीफ में पेश होने वाले नजराने में खादिम और दीवान का बराबर हिस्सा होगा। सूत्रों के अनुसार आले रसूल विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए थे। कुछ सालों तक बंटवारे की व्यवस्था भी रही लेकिन फिर दीवान का हिस्सा बंद हो गया। तब डिक्री की पालना के लिए वर्तमान दीवान जैनुअल आबेदीन ने 17 अगस्त 1991 में इजराय याचिका दायर की थी। इसी में कई अर्जियां पेश हुईं और मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा चुका है।

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