यहाँ हर रोज होती है लोकतंत्र की हत्या

राजेन्द्र हाड़ा
राजेन्द्र हाड़ा
कुछ लोगों का मानना है कि मेयर की कुर्सी को लेकर नगर निगम में शुक्रवार को जो कुछ हुआ उससे लोकतंत्र की हत्या हो गई। अपनी राय में ऐसा मानने वाले बड़े बेचारे हैं। बेचारे इसलिए कि हत्या होती कहां है, हमेशा की जाती है। होता तो हादसा है। होती तो दुर्घटना है। जो जानकारी में किया जाए, वह होता तो नहीं है। ठहरा लोकतंत्र उसकी इस देश और शहर में कोई पहली बार हत्या की गई हो ऐसा तो नहीं है। ऐसी हत्याएं होती रहेगी और रोज होती रहेगी। नागरिक होने के नातेा अगर आप खामोश रहे तो पल-पल ऐसी हत्याएं होेती देखा करेंगे। जिला प्रमुख की कुर्सी के लिए चुनाव हुआ, क्या तब लोकतंत्र की हत्या नहीं हुई ? सभी विधायकों की सहमति के बाद एक अकेले विधायक ने अपनी मर्जी से नाम में फेरबदल कर दिया। वह क्या था ? सर्वसम्मति के बाद लोकतंत्र की हत्या ही तो थी। लोकतंत्र में कहां जरूरत है कि निकाय चुनाव भले वह पंचायत का हो या नगर पालिकाओं का राजनीतिक दलों के बैनर पर लड़ा जाना चाहिए। छात्र संघ चुनाव भी अब तो इसी आधार पर होने लगे हैं। वहां भाजपा, कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ही तो नहीं होता परंतु छद्म जी हां छद्म नामों से राजनीतिक पार्टियां ही तो चुनाव लड़ती हैं। राजनीतिक दल भला ऐसे नियम या नीति ही क्यों बनाते हैं जिनका इस्तेमाल बाद मे अपनी सुविधा से तोड़-मोड़ करने या किसी की राजनीतिक हत्या करने के लिए किया जाता है। लोकतंत्र है जहां से इच्छा है वहां से चुनाव लड़े। यह तो जनता तय करेगी कि उसे उस वार्ड से जिताना है या नहीं। वार्ड बदलने की नीति बनाई और फिर उसे तोड़ कर लोकतंत्र की हत्या की गई। आरक्षण का नियम लागू कर फिर लोकतंत्र की हत्या की गई। वार्ड पार्षद के पदों में से लेकर मेयर तक को जातियों में आरक्षित कर क्या निचले स्तर तक सदियों पुरानी जातीय परम्परा की पैरवी नहीं की जा रही। धर्म, जाति, लिंग, समुदाय निरपेक्ष इस लोकतंत्र में इन्हीं बाध्यताओं-अनिावर्यताओं को लागू कर हम किस लोकतंत्र को गोदी में लिटाकर दूध पिला रहे हैं। अस्सी हजार रूपए में चुनाव लड़ने के नियम के बावजूद दूसरा ना जीते इसलिए अपना आदमी उसके सामने खड़ा कर लाखों रूपए बहा रहे हैं। कहां है लोकतंत्र ? जीतने के लिए सामने वाले प्रत्याशी से उसके हारने के अस्सी लाख रूपए में सौदे कर रहे हैं। कहां है लोकतंत्र ? वोट पाने के लिए धमकियां, मारपीट, शराब-कबाब, गाड़ियों में पैट्रोल-डीजल, एक-एक हजार रूपए, साड़ियां, गिफट हैम्पर, रातों रात शेड लगवाने कौन सा ऐसा गलत काम था जो चुनाव जीतने के लिए नहीं किया गया। कहां है लोकतंत्र ? कुर्सी पाने के लिए हर तरह की नैतिकता ताक पर रखना। दावे ईमानदारी के और भ्रष्टाचार जमकर कहां है लोकतंत्र ? पार्षदों का बिकना। गोली की जगह पर्ची निकालना। अफसरों को खरीदना, उनका अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना। कहां है लोकतंत्र ? पार्षद क्यों बनना चाहते हैं ? मासूम सा जवाब आता है समाज सेवा करने के लिए। समाज सेवा के लिए आपको सरकारी पद ही क्यों चाहिए। कौन कह रहा है कि बिना पद के आप समाजसेवा नहीं कर सकते। क्या इसलिए कि स्मार्ट सिटी के लिए अमरीकन डॉलर आने वाला है। कहां है लोकतंत्र ? आने वाले दिनों में निगम में नए से नया लोकतंत्र नजर आएगा। दिलों में गांठें बंध चुकी है। आसानी से खुलती दिख नहीं रही। एक और नया शब्द इस गिरते-पड़ते लोकतंत्र में आजकल सुनाई देने लगा है। बाड़ाबंदी। यानि बाड़े में बंद करना। किसी अनपढ़ ग्रामीण से भी जरा पूछ लें कि बाड़े में बंद किसे किया जाता है। जानवरों को या इंसानों को। बाड़ाबंदी शब्द का सभी बेझिझक इस्तेमाल करते हैं। वे भी जो खबर लिखते हैं। वे भी जो बाड़े के रखवाले होते हैं। और वे खुद भी जो बाड़े में बंद होते हैं। आपको अपने लिए यही नाम पसंद है तो, बहुत-बहुत बधाई बाड़ाबंदी भाइयों- बहनों ?
-राजेन्द्र हाड़ा 09829270160

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