कन्फ्यूज़ हो गये बाबू साहेब…जमीन अपनी है या परायी..!

kulbhushanकन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन है, सोल्यूशन कुछ पता नही, सोल्यूशन कुछ मिला तो साला, क्या पंगा था पता नही, जी हां कुछ ऐसा ही हाल और पसीने का रुमाल हो रखे है हमारी परिषद के बाबू साहेब। गत महीनों पूर्व एक सरकारी जमीन को ऐसा कन्फ्यूज किया कि जमीन को खुद पता नही कि आखिर वो सरकारी है या फिर नीजि, मामला आपसे छुपा नही है,दौलतगढ़ सिंघा क्षेत्र स्थित करोडो की वो बेशकीमती जमीन जहां एक जनाब ने सरकारी जमीन पर अपना खूंटा टांग दिया। परिषद को भनक लगी तो उसने खूंटे सहित जमीं को सीज कर दिया। मूंह पर सील चपड़ी होने से जमीं का दम घुटा तो बाबु साहेब से रहा नही गया। वो कन्फ्यूजं हो गये कि जमीन खूंटा टांगने वालें को सौंप दे या फिर उसे उसके सर्वेसर्वा के पास ही रहने दे। ये कन्फ्यूजन उन्हे गलत फैंसले पर ले गया और बाबू साहेब ने फिर से जमीं की सील चपडी हटाकर उस पर खूंटा तंगवा दिया। पार्षद की निगाहे जब इस मामले पर पड़ी तो मानो खूंटा लगी जमीन पर भूकंप आ गया हों, जमीं तो हिली जो हिली, बाबू साहेब तो ऐसे हिले कि गुपचुप तरीके से जमीनं पर सील चपड़ी लगकर सीज का ठप्पा फिर लग गया। ये छुपमछुपाई का खेल है भैया, पहले गोंद लगी सील चपडी लगाकर सीज करना है फिर गुपचुप में पीछे से आकर थप्पी मारनी है। इस खेल में आबूस आबूस का नियम भी बना, लेकिन रैफरी पार्षद ने आबूस को आ कर के डुस कर दिया। पेचिदा हुए इस खेल में बाबू साहेब फिर कन्फ्यूज हो गये कि आखिर सीज की गई जमीं अपनी है या परायी ? अपनी है तो सीज क्यो है और परायी है तो सील क्यो नही हट रही ? परिषद खुद मान रही है कि प्रथम दृष्टया जमीनं सरकारी ही है, तो ऐसे में अपनी जमीं पर परायों का दबदबा क्यो है, बार बार रास्ते देेकर मौके क्यों दिये जा रहे है ? परिषद ने पहले भी जमीनं पर मालिकाना हक के दस्तावेज मांगे लेकिन ना तो दस्तावेज मिले ओर ना ही मालिकाना हक का कोई पुख्ता सबूत। ऐसे में एक बार फिर परिषद दस्तावेज मांगकर क्या दर्शाना चाहती है ? तय अवधि में पुख्ता दस्तावेज नही सौंपे गये तो शायद बाबू साहेब को फिर कन्फ्यूज नही होना पडेगा और दावे से कह सकेंगे की इस खेल में नही चलेगी कोई पारी, ये जमीनं है सिर्फ सरकारी।

कुलभूषण उपाध्याय

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