सोच समझ कर पश्चिम बंगाल भेजा गया है धनखड़ को

पूर्व केन्द्रीय मंत्री जगदीप धनखड़ को सोची समझी रणनीति के तहत पश्चिम बंगाल भेजा गया है। वे बेहद शातिर व तेज-तर्रार हैं। पश्चिम बंगाल की खुर्रांट मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर नकेल कसने के लिए उनके जैसा ही नेता चाहिए था। वे सुप्रीम कोर्ट के वकील होने के कारण कानून के गहरे जानकार तो हैं ही, लंबी राजनीतिक यात्रा की वजह से राजनीति के दाव-पेच भी भलीभांति जानते हैं। हां, एक बात ये जरूर है कि वे कट्टर हिंदूवादी नहीं हैं। उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि कांग्रेस विचारधारा की रही है।
ज्ञातव्य है कि उनकी राजनीतिक यात्रा 1989 में झुंझुनूं से जनता दल सांसद के रूप में हुई थी। पहली बार में ही वी पी सिंह सरकार में संसदीय कार्य राज्य मंत्री बनाए गए। 1991 में जनता दल छोड़ कर कांग्रेस की सदस्यता ले ली। कांग्रेस टिकट पर अजमेर से लोकसभा चुनाव लड़ा, मगर भाजपा के प्रो. रासासिंह रावत से हार गए। उसके बाद 1993 में अजमेर जिले की किशनगढ़ विधानसभा सीट से कांग्रेस टिकट पर लड़ कर विजयी हुए। 1998 में झुंझुनू से कांग्रेस टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा, मगर तीसरे स्थान पर रहे थे। 2003 में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनने पर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली थी। गत विधानसभा चुनावों में उनके कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा होती रहती थी. मगर उन्होने भाजपा नहीं छोड़ी।
अजमेर से नाता रहने के कारण स्थानीय कांग्रेसी उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं। कंप्यूटर की माफिक तेजी से दायें-बायें चलती उनकी आंखें बयां करती हैं कि वे बेहद तेज दिमाग हैं। चाल में गजब की फुर्ती है। बॉडी लैंग्वेज उनके ऊर्जावान होने का सबूत देती है। हंसमुख होने के कारण कभी वे बिलकुल विनम्र नजर आते हैं तो मुंहफट होने के कारण सख्त होने का अहसास करवाते हैं। जब अजमेर में लोकसभा चुनाव लडऩे को आये स्वर्गीय श्री माणक चंद सोगानी शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष थे। नया बाजार में सोगानी जी के सुपुत्र के दफ्तर में हुई पहली परिचयात्मक बैठक में ही उनका विरोध हो गया, चूंकि उन्हें यहां कोई नहीं जानता था। प्रचार का समय भी बहुत कम था। फिर भी उन्होंने प्रोफेशनल तरीके से चुनाव लड़ते हुए सारे संसाधन झोंक दिए। टेलीफोन डायरेक्टरी लेकर सुबह छह बजे से आठ बजे तक आम लोगों से वोट देने की अपील करते थे। हालांकि उन्होंने चुनाव बड़ी चतुराई व रणनीति से लड़ा, मगर सारा संचालन अपने साथ लाए दबंगों के जरिए करवाने के कारण स्थानीय कांग्रेसियों को नाराज कर बैठे। वे जीत जाते, मगर स्थानीय कांग्रेस नेताओं को कम गांठा और सारी कमान झुंझुनूं से लाई अपनी टीम के हाथ में ही रखी। यही वजह रही कि स्थानीय छुटभैये उनसे नाराज हो गए और उन्होंने ठीक से काम नहीं किया। हारने के बाद पलट कर अजमेर का रुख नहीं किया।
हालांकि अजमेर व किशनगढ़ वासियों के लिए यह सुखद हो सकता है कि अब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हो गए हैं, मगर वे हाई-फाई और सेलिब्रिटी स्टाइल के नेता होने के कारण गिनती के कांग्रेसियों से उनके संपर्क हैं। हां, इतना जरूर है कि जाट समाज में उनकी खासी प्रतिष्ठा है। उनकी राज्यपाल पद पर नियुक्ति करके जाट वोट बैंक को साधा गया है। रहा सवाल पश्चिम बंगाल को तो समझा जाता है कि वे कानूनी दावपेच में ममता को अडऩे नहीं देंगे।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

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