अजमेर नगर निगम के वार्ड 22 व 52 के लिए हुए उपचुनाव के जो भी राजनीतिक अर्थ निकाले जाएं, मगर सच्चाई ये है कि दोनों ही वार्डों में हार-जीत पार्टियों की नहीं, बल्कि प्रत्याशियों की हुई है।
इस चुनाव की दिलचस्प बात ये है कि दोनों दलों ने उन्हीं को प्रत्याशी बनाया, जो कि 2015 के मुख्य चुनाव में हार गए थे। इस बार दोनों ने ही अपनी हार का बदला ले लिया।
वार्ड 22 की बात करें तो यहां अब तक कांग्रेस का कब्जा रहा, मगर उसमें अहम भूमिका थी बलविंदर सिंह की। जनता पर उनकी गहरी पकड़ थी। सदैव सेवा को तत्पर रहते आए। पहली बार वे 2000 में पार्षद बने। दूसरा चुनाव भी उन्होंने ही जीता। उसके बाद 2010 में बलविंदर की बहन कुलविंदर जीतीं। 2015 में बलविंदर व कुलविंदर की मां अमरजीत कौर ने जीत हासिल की। इससे स्पष्ट है कि सारा कमाल बलविंदर का था। इस बार उन्हें मजबूरी में सावित्री गुर्जर पर सहमति देनी पड़ी। बलविंदर परिवार का कोई सदस्य सामने नहीं था, इस कारण जनता ने कांग्रेस का साथ नहीं दिया। और गायत्री सोनी जीत गईं, वैसे कहा ये भी जा रहा है कि बलविंदर ने पूरी रुचि नहीं ली, क्योंकि अगर सावित्री जीत जातीं तो इस इलाके में उनके लिए आगे दिक्कत हो सकती थी। वैसे असल बात ये मानी जाती है कि प्रत्याशी का चयन सही नहीं था।
बात करें वार्ड 52 की। यह भाजपा का गढ़ कहा जाता है। मगर सच्चाई ये है कि यहां स्वर्गीय पार्षद भागीरथ जोशी का राज था। वे 1990 से लगातार यहां पार्षद रहे। एक बार टिकट न मिलने पर निर्दलीय रूप से जीत गए। उनकी खासियत ये थी वे बिना किसी राजनीतिक भेदभाव के लोगों के काम करवाते थे। उसमें भी विशेषता ये कि उन्होंने यदि हाथ रख दिया तो मानो काम शर्तिया होगा ही। वजह थी नगर निगम तंत्र पर गहरी पकड़।
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि दोनों वार्डों में व्यक्तियों का वर्चस्व रहा और दोनों के ही परिवार से किसी को टिकट नहीं मिला तो दोनों ही गढ़ ढह गए। निष्कर्ष ये कि निकाय चुनाव में पार्टी से कहीं अधिक प्रत्याशी की अहमियत होती है।
-तेजवानी गिरधर
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