क्यों मर गई इंसानियत और मानवता?

-लॉक डाउन के दौरान भोजन व खाद्य सामग्री लेने के लिए क्यों बन रहे हैं भिखमंगे
-जरूरतमंदों का क्यों छीन रहे हैं निवाला
-जरूरतमंदों की बजाय धापे हुए लोगों का जरूरत से ज्यादा क्यों भर रहे हैं पेट

प्रेम आनंदकर
यह ब्लॉग मैं बहुत ही व्यथित मन से लिख रहा हूं। इसका मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना या आहत करना बिल्कुल नहीं है। लेकिन कोरोना महामारी के चलते लॉक डाउन होने के कारण शासन, प्रशासन, सामाजिक व स्वयंसेवी संस्थाओं, दानदाताओं और भामाशाहों की ओर से निहायत गरीबों, दिहाड़ी मजदूरों, रोज कुआं खोदने-रोज पानी पीने वालों, विधवाओं, निसहाय वृद्धों और खानाबदोशों को भोजन के पैकेट, सूखी खाद्य सामग्री जैसे आटा, तेल, चावल, मसाले, दाल आदि बांटे जा रहे हैं। लेकिन यह सब ऐसे लोग भी ले रहे हैं, जिन्हें इनकी कोई जरूरत नहीं है या फिर खुद यह सब सामग्री खरीदने में सक्षम हैं। जरूरतमंदों के बीच ऐसे लोगों को भी लाइन में खड़ा और हाथ फैलाए हुए देखकर बड़ी हैरानी होती है। ऐसे लोगों के कारण अनेक जरूरतमंद यह सामग्री लेने से वंचित रह जाते हैं। अनेक ऐसे लोग भी यदा-कदा नजर आते हैं, जो दो या तीन जगह से भोजन के पैकेट ले तो लेते हैं लेकिन इनमें से एक वो पैकेट खाते हैं, जिसमें भोजन अच्छा हो। बाकी पैकेट बाद में फेंक देते हैं। इस तरह ऐसे लोग दूसरों के मुंह का निवाला भी छीन लेते हैं। यही नहीं, कुछ जगहों पर तो भामाशाहों और दानदाताओं से मिली सहायता राशि से कतिपय समाज सेवक “अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को देय” की तर्ज पर मिलने वालों और सक्षम लोगों को बांट रहे हैं। ऐसे समाज सेवकों के कारण “एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है”, की भांति अन्य सच्चे और ईमानदार सेवकों पर भी अंगुली उठने लगी है। इस भारी संकट के समय हमें इंसानियत और मानवता दिखाते हुए जरूरतमंदों का ध्यान रखना चाहिए ताकि किसी भी घर में कोई जरूरतमंद भूखा ना सो पाए।

-प्रेम आनन्दकर, अजमेर, राजस्थान। 10 अप्रैल, 2020, शुक्रवार।

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