अब हृदय सम्माननीय के जुमले से कौन पुकारेगा?

जी हां, हृदय सम्माननीय। वे विशेष रूप से खबरनवीसों और खास लोगों को इसी संबोधन से बुलाया करते थे। दरअसल यह उनका तकिया कलाम हो गया था। दो शब्दों का यह जोड़ उनकी पहचान बन गया। अजमेर में वे इकलौते थे, जो इसका इस्तेमाल किया करते थे। उन्होंने ही इसका इजाद किया था, जो किसी भी हिंदी शब्दकोष में नहीं है। यह उनका सम्मान देने का तरीका था, जिसका अर्थ ये निकाला जा सकता है कि हृदय से सम्मान।
आप समझ गए होंगे कि किनकी बात कर रहे हैं। जी हां, जनाब हाजी शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती। अफसोस, अब उनके नाम के साथ मरहूम शब्द जुड़ गया है। वे हमें सदा के लिए अलविदा कर गए। बेहद जज्बाती व बहुत प्यारे इंसान, लाजवाब शख्सियत, बिंदास पर्सनालिटी। कोई ऐसा जलसा नहीं देखा, जिसमें उनकी मौजूदगी ने दस्तक न दी हो। हर एक से गर्मजोशी से मिलने का उनका खास अंदाज पूरी महफिल खुशनुमा किए देता था। ऐसे जिंदादिल इंसान मैने अपनी उम्र में कम ही देखे हैं। वे कम उम्र में ही खासे चर्चित हो गए थे। राजनीति व समाजसेवा में खूब काम किया। बहुत नाम कमाया।
गरीब नवाज सूफी मिशन सोसायटी के अध्यक्ष तो बहुत बाद में बने, उससे पहले ही अपनी पहचान बना ली थी उन्होंने। बात बहुत पुरानी है। सन् तो मुझे याद नहीं। उनकी उम्र रही होगी कोई बाईस-तेईस साल। इतनी कम उम्र में ही वे उस जमाने के युवा खादिमों में उभर कर आ गए थे। तब भाजपा के स्तम्भ व पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी विपक्ष में थे। केसरगंज में उनकी सभा थी। अच्छी खासी भीड़ थी। ऐसे गरिमामय मंच पर भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत ने उन्हें पहली बार यह कह कर तकरीर के लिए बुलाया था कि लीजिए अब आपसे मुखातिब होंगे युवा खादिम शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती। जोश से लबरेज उस अनजान युवक ने जो भाषण दिया तो सब दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो गए। खैर, बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद बदले माहौल में वे कांग्रेस में शामिल हो गए। पार्टी में खूब काम किया। अनेक पदों पर रहे। शहर की बहबूदी से जुड़े मुद्दे पर बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे।
उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि कोई भी फरियादी उनके पास आ जाए, वे तुरंत उसके काम के लिए निकल पड़ते थे। किसी जायरीन को कोई मुसीबत हो जाए तो किसी न किसी जरिये से तुरंत इमदाद करवाते थे। जायरीन की सहूलियत को खास तवज्जो देते थे। दरगाह शरीफ से जुड़े हक-हकूक के हर मुद्दे पर खुल कर सामने आते थे। सांप्रदायिक सौहाद्र्र कायम रखने में सदा आगे रहते थे। दरगाह शरीफ में खिदमत के वक्त जरूरी से जरूरी काम भी छोड़ कर पहुंचते थे।
जिला हज कमेटी के संयोजक रहे जनाब जुल्फिकार चिश्ती का जन्म 11 दिसम्बर, 1969 को जनाब शेखजादा इम्तियाज मोहम्मद चिश्ती के घर हुआ। उन्होंने अलीगढ़ से एम.ए. के समकक्ष अदीब, माहिर व कामिल की पढ़ाई की। वे अफ्तावारी अखबार अजमेर अदालत के संपादक भी रहे। राज्य सरकार से अधिस्वीकृत खबर नवीस। वे दरगाह क्षेत्र विकास समिति के अध्यक्ष, अंजुमन बज्म-ए-आदब के महासचिव, नौजवान अब्बासियान संस्था के सलाहकार, सीएलजी के सदस्य, मुस्लिम एकता मंच और जेल सलाहकार समिति के सदस्य भी रहे। कई साल से हर साल बारह वफात का जुलूस निकालने में उनकी ही अहम भूमिका रही।
जाने-माने बुद्धिजीवी, शिक्षाविद व पीयूसीएल के अग्रणी नेता अनंत भटनागर की फेसबुक पर शाया लफ्जों की ये सफें उनकी शख्सियत पर और रोशनी डालती हैं:-
पीयूसीएल, अजमेर के जुझारू साथी व उपाध्यक्ष तथा अजमेर में कौमी एकता व गरीबों के हकों के लिए अनेक मोर्चों पर जोशोखरोश से सक्रिय साथी जुल्फिकार चिश्ती का महज 45-50 की उम्र में इंतकाल हो गया। फरवरी में जुल्फिकार ने गांधी भवन पर एनसीआर व एनपीआर के विरोध में सात दिन के विरोध प्रदर्शन का आयोजन करवाया। इसकी खासियत यह थी कि इसमें हर दिन महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा थी। उनकी संगठन क्षमता, साहस और ताकत का यह धरना प्रमाण था। मानवाधिकार के संघर्ष के इस दौर में उन्हें अभी अनेक लड़ाइयां लडऩी थीं।
अब जरा निजी बात। वे मेरे खासमखास दोस्त थे। उनका जिक्र हो और मेरे एक और खास दोस्त जनाब मुजफ्फर भारती का हवाला न आए तो बात अधूरी रह जाएगी। दरअसल ये जुगल जोड़ी थी। दोनों से पारिवारिक व निजी रिश्ते रहे। खूब ऊठ-बैठ रही। दोनों मेरे निजी कामों में भी साथ रहते थे। दरगाह इलाके के बारे में मेरी जो भी समझ है, उसमें इन दोनों की खास हिस्सेदारी रही है। इन दोनों की बदोलत ही मैने एक खबरनवीस के नाते दरगाह इलाके में जम कर बैटिंग की। एक से एक ऐसे न्यूज आइटम दिए, जिन पर कभी किसी खबरनवीस की नजर नहीं पड़ी। उस एहसान को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। बाद में जनाब जुल्फिकार चिश्ती के ही भानजे पत्रकार जनाब नवाब हिदायतुल्ला ने भी इस इलाके में मेरी पकड़ बनाए रखने में मदद की।
खैर, मैं अपने खास, अजीज दोस्त के यूं यकायक इस फानी दुनिया से अलविदा कर जाने से बेहद दु:खी हूं। उनकी यादें मेरे जेहन में सदा जिंदा रहेंगी। कई किस्से बार-बार याद आएंगे। मगर कुदरत का ये निजाम समझ से बाहर है कि अमूमन अच्छे और काम के इंसान ही क्यों छीन लिए जाते हैं? इतना अफसोस हरदम रहेगा कि अब मुझे हृदय सम्मानीय कह कर कौन पुकारेगा?
ये इत्तेफाक ही है कि अभी चंद रोज पहले ही बीके रमेश भाई ने एक पुरानी यादगार फोटो भेजी थी। हमने उनके साथ माउंट आबू के ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सात दिन के कैंप में शिरकत की थी। उसमें जुल्फिकार भाई के अलावा मरहूम हाजी पीर गुलाम रसूल मियां चिश्ती व पत्रकार मधुलिका सिंह भी साथ थीं। वह फोटो इस आलेख के साथ साझा कर रहा हूं। यह उनकी मजहबी मोहब्बत का सबूत है।
आखिर में इतनी ही दुआ है कि अल्लाहताला अपने हबीब के सदके, सुल्तानुल हिन्द ख्वाजा गरीब नवाज के सदके मरहूम को जन्नतुल फिरदौस में आला से आला मकाम अता फरमाये। घर वालों को सब्रे जमीर अता फरमाये। आमीन।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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