सबा खान : एक जिंदा औरत का इंतकाल

सुर्खी पढ़ कर आपका चौंकना लाजिमी है। इंतकाल तो किसी जिंदा इंसान का होता है, भला मरा हुआ कैसे इस फानी दुनिया को छोड़ सकता है? वह तो पहले ही अलविदा कर चुका होता है। आपके दिमाग में उठा यह सवाल बिलकुल वाजिब है। मगर मेरी कलम की कोख से यह सुर्खी इसलिए पैदा हुई, क्योंकि मेरी नजर में यह शहर गिनती के जिंदा लोगों की बस्ती है। इसका कत्तई मायने ये नहीं कि बाकी के सारे लोग मरे हुए हैं। वे भी जिंदा हैं, मगर उतने नहीं, जितने सबा खान जैसे गिनती के लोग होते हैं। मायने ये कि शहर के सारे वाशिंद जिंदा तो हैं, मगर जिस्मानी तौर पर। दिमागी या रूहानी तौर पर नहीं। या तो वे दिमाग सिरहाने रख कर सो रहे हैं या फिर उनकी रूह मर चुकी है। कुछ दोस्तों को ऐसा कहना नागवार गुजर सकता है, मगर जरा मेरे अंदाज-ए-बयां पर गौर फरमाइये। यदि आपने ये जुमला सुना हो कि अजमेर टायर्ड और रिटायर्ड लोगों का शहर है, तो बड़ी आसानी से आपको मेरी बात गले उतर जाएगी। अजमेर के बारे में यह जुमला मेरी मखलूक नहीं। जब मेरी समझदानी अभी ठीक से काम करना भी शुरू नहीं हुई थी, तब से समझदार लोगों से सुनता आया हूं। नहीं पता कि ये जुमला किसके मुंह से निकला, मगर जमीनी हकीकत यही है। किसी शायर ने यूं ही नहीं कहा कि अजीब लोगों का बसेरा है इस शहर में, सब कुछ सहन करते हैं, मगर चूं तक नहीं करते। ये चंद अल्फाज अजमेर और अजमेर वासियों की फितरत को बयां करते हैं।
बहरहाल सबा खान का जिक्र करते हुए उनके नाम के साथ मरहूम इसलिए नहीं जोडूंगा, चूंकि उनके भीतर जो जज्बा था, वो शहर में गिनती के जिंदा लोगों के जेहन में धड़क रहा है। वह कभी नहीं मरा करता। सबा ने जो पहचान बनाई, वह उनके अलविदा होने के बाद भी जिंदा है। और नाम के साथ श्रीमती इसलिए नहीं जोडूंगा कि मेरी नजर में वे मर्द औरत थीं। बिंदास। उनके कांधे पर चस्पा उन तमगों का जिक्र करना बेमानी सा है, जिसके बारे में हर किसी को पता है कि वे राजस्थान प्रदेश महिला कांग्रेस की प्रदेश महासचिव थीं, अजमेर शहर जिला महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं, सामाजिक सरोकार के क्षेत्र में अग्रणी संस्था प्रिंस सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष और जवाहर फाउंडेशन की मजबूत स्तंभ थीं। हां, इतना जरूर कहना पड़ेगा कि वे एक जिंदादिल इंसान, हरदिल अजीज और खुश मिजाज थीं। हर किसी से बड़े खुलूस के साथ मिला करती थीं, मानों बरसों जी जान-पहचान हो।
जैसे ही उनके इंतकाल की खबर आई तो वाट्सऐप और फेसबुक के जरिए पूरे शहर में आग की तरह फैल गई। सुनने वाले हर शख्स की सांसें चंद लहमात के लिए ठहर सी गई। हजारों की आंखों में पानी तैरने लगा। किसी को यकीन ही नहीं हुआ। मगर यह कड़वी हकीकत थी। असल में वे भरपूर सेहतमंद थीं। गर कोरोना के शिकंजे में नहीं आतीं तो खूब जीतीं। क्या यह सरासर नाइंसाफी नहीं है कि कोरोना ने कम उम्र में ही जबरन उनकी सांसें रोक दीं? बिना यह सोचे कि ऐसे इंसानों की अजमेर को कितनी दरकार है?
अब जरा, उनकी शख्सियत के बारे में। उनमें गजब की फुर्ती थी, चुस्ती थी। यानि बिजली जैसी चपलता। तभी तो उनकी साथिनें पूछा करती थीं कि कौन सी चक्की का आटा खाती हो। कांग्रेस में तकरीबन दस साल शहर महिला अध्यक्ष रहीं। इस दौरान शायद ही कोई ऐसा दिन रहा हो कि वे कहीं नजर न आई हों। राजनीति से इतर भी वे आम अवाम के हर काम के लिए जुटी दिखाई देती थीं। उनके पास शहर का जो भी मसला आता था, जो भी फरियादी आता था, वे तत्काल आला अफसरान के चेंबर में बेधड़क घुस कर पैरवी करती थीं। सियासत उनकी रोजमर्रा की जिंदगी बन गई थी। कांग्रेस और भाजपा, दोनों में इस किस्म के नेता कम ही हैं। बावजूद इसके नगर निगम के लगातार दो चुनावों में कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया। असल में टिकट बांटने का गणित ही कुछ और है। हां, चंद महीनों के लिए जरूर मनोनीत पार्षद बनाया गया, मगर इतने समय में वे कर भी क्या सकती थीं? असल में उनका सपना था कि चाहे अजमेर से चाहे पुष्कर से, विधायक बनें और जनता की सेवा करें।
अफसोस, एक मर्द औरत कोरोना से जंग हार गईं। और इसी के साथ अपार संभावनाओं का अंत हो गया। शहर वासियों केलिए भी, परिवार वालों के लिए भी।

इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलेही राजऊन
अल्लाह उन्हें जन्नतुल फिरदोस में आला मुकाम अता फरमाए। गमजदा परिवार वालों को सब्र जमील अता फरमाए।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
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