मैं जब नागौर में था, तब वहां एक कहावत सुना करता था- छोटी मोटी झूंपडी तारागढ नांव। असल में छोटी मोटी की जगह मारवाडी का एक षब्द बोला जाता है, मगर वह अष्लील है, इस कारण उसकी जगह छोटी मोटी षब्द का उपयोग कर रहा हूं। यह कहावत अजमेर के तारागढ के नाम पर बनी हुई है। इसका मतलब यह है कि नाम तो तारागढ है, जबकि है छोटी मोटी बिल्डिंग।
जब अजमेर माइग्रेट हो कर आया तो पता किया कि कहावत में जिस तारागढ का जिक्र है, वह कहां है, तो पता लगा कि हालांकि वह गढ अब जर्जर हो चुका है, मगर उसके बहुत से अंष, मोटी दीवारें, बुर्ज, गेट आदि अब भी बयां करते हैं कि यह गढ अपने जमाने में बडे भूभाग में था। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई पर पहाड़ी पर करीब अस्सी एकड़ जमीन पर बना यह किला राजा अजयराज चौहान द्वितीय द्वारा 1033 ईस्वी में बनवाया गया। इस पर विस्तार से चर्चा फिर कभी। बहरहाल, इस पर सवाल किया कि तो फिर इसे छोटी मोटी क्यों कहा गया तो किसी जानकार ने बताया कि असल में अधिसंख्य लोगों ने तारागढ देखा ही नहीं है।
उन्हें नीचे से जो नजर आता है, वह बड़े पीर साहब संत सुंडे शाह की दरगाह है, जिसमें गढ जैसा कुछ भी नहीं है। इसी कारण किसी ने कहावत गढ दी कि छोटी मोटी झूंपडी, तारागढ नावं। हालांकि इतनी भी छोटी मोटी नहीं है, कि ऐसा कहावत बनाई जाती। हां किसी गढ की तुलना में जरूरी छोटी मोटी कही जा सकती है। जिन लोगों ने अब तक तारागढ नहीं देखा है, वेयही समझते हैं कि जो दिखाई दे रहा है, वही तारागढ है। आपने देखा कि कैसे कभी कभी अधूरे ज्ञान के कारण कहावतें गलत भी बन जाती हैं। यहां उल्लेखनीय है कि किसी समय में तारागढ पर जाना बहुत कठिन था, मगर जब से तारागढ संपर्क सडक बनी है, वहां जाना आसान हो गया है। पर्यटक डिग्गी चौक से विविध वाहनों के जरिए तारागढ जाते हैं और वहां भ्रमण करने के अतिरिक्त दरगाह मीरां साहब की जियारत करते हैं।