रिजू झुंझुनवाला का चार लाख से हारना आज भी एक गुत्थी

तकरीबन डेढ साल पहले कांग्रेस छोड चुके जाने माने उद्योगपति रिजू झुंझुनवाला भाजपा में षामिल हो गए। हालांकि भाजपा में जाने का तानाबाना बहुत पहले ही बुन लिया गया था, मगर अब उपयुक्त समय पा कर भाजपा में षामिल हुए हैं। राजनीतिक क्षेत्र में लगभग गुमनाम हो चुके रिजू एक बार फिर सुर्खियों में हैं।
ज्ञातव्य है कि पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने अजमेर से चुनाव लडा और भाजपा के भागीरथ चौधरी से चार लाख से भी ज्यादा वोटों से हार गए थे। आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि आखिर मतों का इतना बडा अंतर हुआ कैसे? रिजू की हार पर कांग्रेस तो सन्न थे ही, भाजपाई भी कम चकित नहीं थे। यहां तक कि जनता भी भौंचक्की थी। क्या कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने बिलकुल काम ही नहीं किया? क्या भाजपा कार्यकर्ताओं ने कुछ ज्यादा ही मेहनत कर ली? क्या भागीरथ चौधरी वाकई इतने लोकप्रिय हो गए थे, जिन्हें विधानसभा चुनाव में किशनगढ़ से टिकट देने तक के लायक नहीं समझा गया? या रिजू बिलकुल ही बेकार व नकारा थे? जवाब आज तक किसी को समझ में नहीं आया है। खुद भाजपाई भी चकित थे कि इतनी बड़ी जीत हुई तो हुई कैसे? वे भी अधिक से अधिक एक लाख से कुछ ज्यादा से जीत की उम्मीद में थे। अति उत्साही भाजपाई दो लाख से जीतने के दावे कर कर रहे थे। जीत जब चार लाख से भी अधिक हुई तो उनका भी दिमाग घूम गया।
जरा चुनाव प्रचार की चर्चा कर लें। चौधरी जहां केवल व केवल मोदी के नाम पर ही वोट मांग रहे थे, वहीं रिजू जीतने पर सिर्फ और सिर्फ विकास करवाने पर जोर दे रहे थे। चूंकि उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी, इस कारण राजनीति पर तो कुछ बोले ही नहीं। न भाजपा की आलोचना की और न ही चौधरी के बारे में कुछ कहा। उनके चेहरे की सहज मासूमियत लोगों को कुछ समझ में भी आ रही थी। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि उन्होंने चुनाव प्रचार में पैसे की कोई कमी नहीं रखी, जिसे कि हार की एक वजह माना जाए। एक बात तो पक्की मानी गई कि लोगों ने तथाकथित राष्ट्रवाद व मोदी ब्रांड के नाम पर वोट डाला है, मगर आज तक इस सवाल का उत्तर किसी के पास नहीं है कि आखिर जीत चार लाख को पार कैसे कर गई? कुछ लोगों ने ईवीएम पर संदेह किया, मगर चूंकि उसका कोई प्रमाण नहीं, इस कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था में आए इस परिणाम को स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
खैर, हारने के बाद भी रिजू ने अजमेर को अपनी कर्मभूमि बनाने के लिए कुछ कांग्रेसियों को साथ लेकर पूर्वांचल जन चेतना समिति की इकाई बनाई, जिसने जनसेवा के भरपूर काम किए। उनकी ही एक और संस्था जवाहर फाउंडेषन ने भी धरातल पर सक्रियता दिखाई। किसी हारे हुए प्रत्याषी का इस तरह जनसेवा के काम निरंतर जारी करना वाकई एक मिसाल है। यही माना गया कि आगामी चुनाव के लिए ग्राउंड बनाए रखना चाहते हैं। फिर उन्होंने कांग्रेस छोडी तो लगा कि राजनीति में उनकी रूचि समाप्त हो गई है। अब जब भाजपा में षामिल हुए हैं तो चर्चा है कि भाजपा के टिकट पर चुनाव लडेंगे। कोई अजमेर का नाम ले रहा है तो कोई भीलवाडा का। वैसे संभावना भीलवाडा की अधिक है, क्योंकि चाहे समाजसेवा के लिहाज से चाहे व्यापार के हिसाब से भीलवाडा ही उनकी मौलिक कर्मस्थली है।

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