क्या मीडिया की सतत कवायद बेमानी तो नहीं?

पूरे राजस्थान में अजमेर के मीडिया की विषेश पहचान है। विषेश रूप से खोजपूर्ण पत्रकारिता में यह अग्रणी रहा है। अजमेर की ज्वलंत समस्याओं के लिए यहां का मीडिया षासन-प्रषासन को सतत जगाता रहता है, मगर चहुंओर समस्याओं का अंबार कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। स्थाई-अस्थाई अतिक्रमण पसरे हुए हैं। नालों को पाट दिया गया है। पहाडियों तक नहीं छोडा गया। अवैध बहुमंजिला इमारतें कुकुरमुत्तों की तरह पनप गई हैं। बेतरतीब यातायात लाइलाज प्रतीत होता है। पार्किंग की समस्या का समाधान होता ही नहीं दिखता। पानी की तो बात करना ही बेकार है। वह चिरस्थाई है। हम आदी हो चुके हैं। प्यास चाहे न बुझी हो, मगर जलभराव छप्पर फाड कर होने लगा है। दरगाह और पुश्कर के नाम पर भरपूर धन राषि आती है, मगर धरातल पर विकास कितना हुआ है, किसी से छुपा नहीं है। आनासागर की दुर्गति, जलकुंभी की विकरालता, सीवरेज योजना की नाकामी, स्मार्ट सिटी के नाम पर हुई मनमानी इस षहर का दुर्भाग्य नहीं है तो क्या है?
कभी कभी ऐसा लगता है कि क्या हमारे जागरूक मीडिया कर्मियों की हैमरिंग बेमानी तो नहीं?

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