आनासागर के पास से रोज़ गुजरता हूँ
अब तो इसका नीला पानी भी काला पड़ने लगा है.
पानी की सतह पर दौड़ते-भागते कीड़े-मकोड़े
या तैरते पक्षी अब नहीं दिखते.
लगता है प्रवासी पक्षियों ने भी आनासागर से नाता तोड़ लिया है.
अब तो इसके पानी में छाया-आकृति भी नहीं बनती.
परसों ही ढाई साल की अपनी नातिन को
आनासागर की चौपाटी पर घुमाने ले गया था –
बड़ी खुश हुयी थी, हाथी, बंदर, मोर आदि के बुत देखकर,
बार-बार खुशी से चिल्ला पड़ती थी,
अचानक पानी की ओर इशारा कर मुझसे बोली –
‘नाना ! गन्दा पानी… गन्दा पानी!’
फिर पलटकर मेरी ओर देखने लगी
और फिर भागती-दौड़ती गिलहरियों को देखकर खुश हुयी
और उन्हें पकड़ने को दौड़ने लगी …
मेरे ज़हन में बात उठी
करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी
इस जलाशय में हम घोल रहे हैं गंदगी
तभी तो इस जलाशय में ना तो जीवन की कोई आहट दिखती,
ना ही प्रवासी पक्षियों का आना,
और अब तो पानी भी पड़ने लगा है काला !
– केशव राम सिंघल