कड़े फ़ैसलों से डर क्यों गये जेटली?

arun-jaitley-क़मर वहीद नक़वी- बजट से हमें कुछ करिश्मे की उम्मीद थी कि कुछ बड़ा कमाल होगा, कोई नयी बात होगी, कोई नयी दृष्टि होगी, कोई नयी राह होगी, लेकिन जेटली जी ने बड़ी ‘डिफ़ेन्सिव’ बल्लेबाज़ी की। कुल मिला कर बजट सब साधने, सबको ख़ुश करने की कोशिश करता है। बजट में मैन्यूफ़ैक्चरिंग, इंफ़्रास्ट्रक्चर, कृषि, स्किल डेवलपमेंट पर ज़ोर है। अच्छा है। शहर से लेकर गाँव तक सबको कुछ देने की कोशिश की गयी है, लेकिन समस्या यह है कि अर्थव्यवस्था के बुनियादी मुद्दों पर बजट बिलकुल मौन है या फिर लकीर का फ़क़ीर है। इसलिए अर्थव्यवस्था की हालत में कोई बड़ा सुधार कैसे होगाकब तक हो पायेगाअँधेरी सुरंग के आगे रोशनी कहाँ हैंपता नहीं चलता।

देश में अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत को देखते हुए उम्मीद थी कि बजट में कुछ ऐसे नये क़दम उठाये जायेंगे, जो भले ही कड़े हों, लेकिन अर्थव्यवस्था की बुनियादी बीमारियों को दूर कर सकें। लेकिन वित्तमंत्री ने बहुत ‘सेफ़’ खेलने की कोशिश की है और कोई बड़ी ‘सर्जरी’ करने के बजाय मरीज़ को रंग-बिरंगी गोलियाँ देकर अगले साल तक की मुहलत ले ली! मोदी और जेटली दोनों हालाँकि पिछले दिनों ‘कुछ कड़े फ़ैसलों’ की बात कह चुके थे, लेकिन फिर भी बजट में कोई कड़ा फ़ैसला नहीं है! क्यों? अच्छे दिनों का सपना अब और न टूटे, शायद इसीलिए बजट ‘गुडी-गुडी’ है!

देश की अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौतियाँ क्या हैं? कालाधन, सब्सिडी और महँगाई। वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में यह तो कहा कि काला धन हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अभिशाप है और सरकार कालेधन की समस्या से पूरी तरह निपटेगी। लेकिन कैसे निपटेगी, इसका कोई ख़ाका पेश नहीं किया गया। विदेश में जमा कालेधन को वापस लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर विशेष जाँच दल तो बन गया, लेकिन देश में जमा कालेधन को बाहर लाकर उसे अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में लाने का काम कैसे हो, यह बड़ा सवाल है और बजट इस पर चुप क्यों है। ख़ासकर तब, जबकि नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में कालेधन को बड़ा मुद्दा बनाया था। इसीलिए अब उनकी सरकार बनने के बाद यह उम्मीद थी कि वह कालेधन के ख़िलाफ़ कोई बड़ा अभियान छेड़ेंगे। लेकिन बजट उसे बस छू कर निकल गया।

दूसरा बड़ा मुद्दा है सब्सिडी का। नरेन्द्र मोदी लगातार यह कहते रहे हैं कि ग़रीबों को सब्सिडी देने के बजाय उन्हें आर्थिक रूप से इतना सक्षम बनाने की कोशिश होनी चाहिए ताकि उन्हें सब्सिडी ज़रूरत ही न पड़े। बहुत अच्छी बात है। इसीलिए इस बजट से उम्मीद थी कि यह ऐसे किसी रास्ते का संकेत ज़रूर देगा, ऐसी किसी योजना को ज़रूर पेश करेगा, जिससे ग़रीबों की आर्थिक स्थिति सुधरे। कम से कम किसी ‘पायलट प्रोजेक्ट’ के तौर पर ऐसी योजना तो दिखनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखा। बल्कि अपनी सारी आलोचनाओं को वह भूल गये और पिछली सरकारों की ‘बीमारी’ यानी सब्सिडी को उन्होंने छुआ भी नहीं!

तीसरा मुद्दा है महँगाई का। महँगाई कैसे रुकेगी, पता नहीं। वित्त मंत्री ख़ुद कहते हैं कि ख़राब मानसून और इराक़ की मौजूदा हालत एक बड़ी चुनौती है। यह बात सही है, लेकिन रोज़ बढ़ती क़ीमतें भी आम आदमी के लिए जानलेवा चुनौती है। मध्य वर्ग को कर-मुक्त आय की सीमा पचास हज़ार रुपये बढ़ जाने से लगभग पाँच हज़ार रूपये सालाना के आय कर की बचत से मामूली राहत हो जायेगी, लेकिन ग़रीबों पर महँगाई की मार तो बदस्तूर पड़ती रहेगी। मोदी ने महँगाई को भी बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था। बजट में मूल्य स्थिरीकरण कोष बना कर महँगाई पर लगाम लगाने की थोड़ी कोशिश ज़रूर की गयी है, लेकिन यह कामचलाऊ उपाय है। बजट से कोई ऐसी दिशा नहीं मिलती, जिससे लगे कि मुद्रास्फ़ीति और महँगाई रोकने का कोई ठोस और कारगर तरीक़ा सोचा गया है। महँगाई से सिर्फ़ आम आदमी पर ही मार नहीं पड़ती, बल्कि ब्याज दरें भी बढ़ती हैं, जिससे नये उद्योगों की लागत ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाती है और नतीजे में विकास की रफ़्तार धीमी पड़ जाती है।

अरुण जेटली कहते हैं कि पी चिदम्बरम ने इस साल के अन्तरिम बजट में वित्तीय घाटे को 4.1 फ़ीसदी रखने का लक्ष्य रखा था। हालाँकि इस लक्ष्य को पा लेना बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी वह पूरी कोशिश करेंगे कि यह लक्ष्य पा लिया जाये। अगले साल वह इस घाटे को 3.6 और उसके अगले साल इसे 3 प्रतिशत तक लाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि मौजूदा बजट में उन्होंने मैन्यूफ़ैक्चरिंग, इंफ़्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देने और रक्षा, बीमा व रियल एस्टेट में विदेशी निवेश आदि के बारे में जो क़दम उठाये हैं, उससे वह यह लक्ष्य पा लेंगे। आज के हालात को देख कर यह बात कुछ ज़्यादा ही आशावादी लगती है़, क्योंकि कालेधन और सब्सिडी के सवाल पर मौन रह कर और अर्थव्यवस्था की पूरी ‘ओवरहालिंग’ किये बिना केवल कट-पेस्ट‘ टाइप के बजट से यह लक्ष्य पा पाना केवल दिवास्वप्न लगता है।
क़मर वहीद नक़वी। वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता के जनक में से एक हैं। हिंदी को गढ़ने में अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सही अर्थों में कहा जाए तो आधुनिक हिंदी को अखबारों ने ही गढ़ा (यह दीगर बात है कि वही अखबार अब हिंदी की चिंदियां बिखेर रहे हैं), और यह भी उतना ही सत्य है कि हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को भाषा की तमीज़ सिखाने का काम क़मर वहीद नक़वी ने किया है। उनका दिया गया वाक्य – यह थीं खबरें आज तक इंतजार कीजिए कल तक – निजी टीवी पत्रकारिता का सर्वाधिक पसंदीदा नारा रहा। रविवार, चौथी दुनिया, नवभारत टाइम्स और आज तक जैसे संस्थानों में शीर्ष पदों पर रहे नक़वी साहब इंडिया टीवी में भी संपादकीय निदेशक रहे हैं। नागपुर से प्रकाशित लोकमत समाचार में हर हफ्ते उनका साप्ताहिक कॉलम राग देश प्रकाशित होता है।

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