तारकेश कुमार ओझा
वाकई हमारे देश में होने वाले तरह – तरह के चुनाव की बात ही कुछ औऱ है। इन दिनों देश के कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। इस दौरान तरह – तरह के विरोधाभास देखने को मिल रहे हैं। पता नहीं दूसरे देशों में होने वाले चुनावों में एेसी बात होती है या नहीं। अब देखिए ना चुनाव मैदान के अधिकांश उम्मीदवार करोड़पति हैं जबकि मतदाता गरीब। चुनाव मैदान में खम ठोंक रहे करोड़पति – अरबपति और समाज के विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गज झुग्गी – झोपड़ियों में जाकर गरीब – गुरबों से वोटों की भिक्षा मांग रहे हैं। है ना मजेदार कि तंगहाली में जीने वाला भीषण गर्मी से बचने के लिए अपनी झोपड़ी में आराम फरमा रहा है, वहीं करोड़ों में खेलने वाला पसीना पोंछते हुए गरीब के सामने खड़ा होकर वोटों के लिए गिड़गिड़ा रहा है। अब एक और विरोधाभास देखिए । जनता कहलाती है जनार्दन यानी लोकतंत्र का राजा। जबकि माननीय कहलाते हैं जनसेवक। लेकिन वास्तव में होता क्या है। चुनावी सभाओं में यही सेवक शीतताप नियंत्रित और बड़े – बड़े पंखों से लैस मंचों पर शोभायमान होते हैं, जबकि लोकतंत्र का राजा यानी प्रजा भीषण गर्मी में जमीन पर बैठ कर पसीना पोंछ रही है। सेवकों (माननीयों) की मेजों पर तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सीलबंद पानी की बोतलें सजी है। जिसकी ओर कोई देखने वाला नहीं। वहीं जमीन पर बैठा धूप खा रहा राजा यानी प्रजा सरकारी टैंकरों के सामने जमा भीड़ निहारती हुई अपना नंबर आने की प्रतीक्षा कर रही है। मंचों पर रखी गई मेजों पर चाय से लेकर काजू – किसमिस नजर आ रहे हैं, तो नीचे जनता अपने लाने वाले ठेकेदार से पूछ रही है कि पेटपूजा कब कराओगे। हेलीकाप्टर से उड़ कर सभास्थल तक पहुंचने वाला जनता से सेवा का अवसर मांग रहा है, तो नीचे अवसर देने वाला लोकतंत्र का बास यानी जनता इस उम्मीद में इधर – उधर हाथ – पांव मार रहा है कि सभास्थल पर घूम रहे कैमरे कहीं उनका भी चेहरा शूट कर ले। क्या पता चैनलों पर दिखाई जाने वाली भीड़ में उसका भी चेहरा दिखाई पड़ जाए।
