लोकतंत्र और अभिव्यक्ति का हनन करती सत्ता

कमलेश केशोट
कमलेश केशोट
लोकतंत्र का हनन और उसकी मौजूदा परिवेश जानना चाहते हैं तो दिल्ली के यूनिवर्सिटी केम्पस और उत्तर प्रदेश चुनाव में चले आइए. इन दिनों यहाँ लोकतंत्र की जमकर खिल्ली उड़ाई जा रही है. देश के लोकतंत्र के दायरे में ही नए सिरे से लोकतंत्र की नई नींव रखी जा रही है. एक ऐसा लोकतंत्र जो राष्ट्रवाद से शुरू होकर श्मशान और कब्रिस्तान तक जाता है. जिसके विरोध में किसी ने बोलने की हिमाकत की तो वह राष्ट्रद्रोह के दायरे में होगा. असल में जिस लोकतंत्र की बात यहाँ की जा रही है. उसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी भी शामिल है. हाल ही में इसके दो रूप सामने आए हैं. एक जिसे देश के शीर्ष नेतृत्व ने अपनें शब्दों से गर्त में ला खड़ा किया है. वहीं दूसरा देश का भविष्य तय करने वाली युवा पीढ़ी. जिसे बोलने नहीं दिया जा रहा है. वह लोकतंत्र जिसे आज़ादी के बाद देश को चलाने का जरिया बनाया गया था. उसने दम तोड़ सा दिया है. इस सबके बीच देश के तमाम माननीय गधों में तब्दील हो गए हैं. कैम्पस में आज़ादी के लिए संघर्षरत युवा पीढ़ी अपनों के ही खून की प्यासी हो चली है. देश बदल तो रहा है. लेकिन जा किस दिशा में रहा है. अब इस पर गौर करना जरूरी हो चला है.

कमलेश केशोट
नई दिल्ली. तकरीबन सड़सठ साल पहले संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जिस उदार लोकतंत्र की संरचना की थी. उसके चरित्रगण लक्षणों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, कानून व्यवस्था, शक्तियों के वितरण के आलावा अभिव्यक्ति, भाषा, सभा, धर्म और संपत्ति की स्वतंत्रता प्रमुख है. यह सब मौजूदा लोकतंत्र से गौण हो चला है. इसमें सबसे अहम मसला भाषा और अभिव्यक्ति का है. यह मसला मौजूदा दौर में बड़ा अहम् हो चला है. पिछले दिनों से देश और सियासी हलकों में जो घट रहा है. वह संकेत है देश के भीतर सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. सालभर पहले जेएनयू में एक घटना होती है. फरवरी 2016 में एक रैली के दौरान छात्र नेता कन्हैया कुमार के नेतृत्व में आज़ादी और कश्मीर के अलगाववादी अफजल गुरु की फंसी को लेकर नारे लगाए जाते हैं. जिसमे कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का मुकदमा बनता है. इसके आलावा जेनयू प्रशासन के गठित एक दल ने कन्हैया कुमार समेत सात छात्रों को अकादमिक शिक्षा से वंचित कर देता है. कन्हैया की गिरफ़्तारी भी होती है. इस मसले को लेकर देशभर में खूब सियासी बवाल होता है. कई छात्र संगठनों ने कन्हैया के पक्ष विपक्ष में प्रदर्शन करते हैं. कन्हैया पर देशद्रोह का मुकदमा लंबित है. वे जमानत पर बाहर हैं. पुलिस ने इस मामले में अभी तक कोर्ट में चार्जशीट तक दाखिल नहीं की है. इस मामले को सालभर भी नहीं होता है. इससे पहले नया बवाल खड़ा हो जाता है.
इसी साल फरवरी के महीने में दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में हंगामा होता है. यह वही रामजस कॉलेज है. जिसकी संस्थापना 1917 महात्मा गाँधी ने की थी. संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर इसकी गवर्नेंस बॉडी के दूसरे चैयरमेन रहे. कॉलेज के सौ साल पूरे होने पर छात्र सेमिनार आयोजित करते हैं. सेमिनार में उमर खालिद को बुलाए जाने पर एबीवीपी के कार्यकर्त्ता भड़क उठते हैं. सेमीनार में जाकर हंगामा करते हैं. नौबत हाथापाई और मारपीट तक पहुँच जाती है. यूपी में चल रहे चुनाव के बीच दिल्ली की सियासत गरमा जाती है. इसी बीच एक बीस साल की लड़की उभर कर आती है गुरमेहर कौर. गुरमेहर भारतीय सेना के शहीद अधिकारी मंदीप सिंह की बेटी हैं. यह एक पोस्टर के साथ सामने आती हैं. उस पोस्टर पर बड़ा बवाल हो जाता है. इस पोस्टर में वे कहती हैं मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा हूँ. मैं एबीवीपी से नहीं डरती. देश के सभी छात्र मेरे साथ हैं. वे आरोप लगाती हैं कि उनके पिता को पाकिस्तान ने नहीं युद्ध ने मारा है. इस पर कई नेता अभिनेता ही नहीं मशहूर क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग और जावेद अख्तर भी उस पर टीका टिप्पणी करने से नहीं चूकते. केन्द्रीय गृह मंत्री किरण रिरिजू तो उसे देशद्रोही तक करार दे डालते हैं. एबीवीपी तिरंगे के साथ अपना शांतिपूर्वक प्रदर्शन करती है. बस यहीं से प्रदर्शनों का दौर शुरू हो जाता है. चाहे आइसा, एसएफआई हो या एनएसयूआई कोई भी तो पीछे नहीं हट रहा. डॉ. अम्बेडकर से जुड़े बापसा के साठ छात्रों को तो अकादमिक शिक्षा से भी वंचित कर दिया गया है. मामला अभी थमने का नाम नहीं ले रहा है.
इसी बीच उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान संवाद का घमासान जारी है. सत्ता लोलुप नेता अपनी रैलियों के दौरान जमकर भाषा का स्तर गिरा रहे हैं. रैलियों के दौरान जिस बड़े नेताओं के भाषणों में जिस भाषा का इस्तेमाल हो रहा है. वह न केवल राजनीति बल्कि लोकतंत्र के स्तर को भी गिराता जा रहा है. अब गधे को ही ले लीजिए. यूपी चुनाव ने देश में गधे पर एक नई बहस छेड़ दी है. कुछ दिनों पहले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव एक चुनावी रैली में अमिताभ बच्चन को सन्देश देते हुए कहते हैं कि सदी के महानायक गधों का प्रचार न करें. बस फिर क्या देश की राजनीति गधों पर आ टिकी. पीएम मोदी ने अपने पद की गरिमा विपरीत जाकर बहराइच में आयोजित एक सभा में पलटवार कर दिया. उनने कहा कि गधे भी प्रेरणा देतें हैं. गधा अपने मालिक के प्रति वफादार होता है. अखिलेश यादब जिस गधे की बात कर रहे हैं उसी गधे पर उनसे गठबंधन करने वाली पार्टी ने अपनी यूपीए सरकार के दौरान 2013 में डाक टिकट जारी किया था. उनके इस बयान से सारी राजनीति गधे पर केन्द्रित हो गई. मीडिया और सोशल मीडिया में इसे लेकर टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गई. गधा देश की राजनीति का केंद्र बन गया और राजनेता उसकी भूमिका में आ गए. दोनों में फ़र्क बहुत कम रह गया. पीएम ने उन मुद्दों पर भी बात की. जिनका ज़िक्र इस चुनाव में किया जाना गैरजरूरी था. सरकारी योजनाएं इस चुनाव पर मढ़ दी गई. वैसे इस तमाम घमासान के बीच राजनीति के मौलिक तत्व कहीं खो से गए. विकास और वादों से इतर यह सब जुमलेबाज़ी लोकतंत्र की नई बिसात बिछा रही हैं. जिस पर राष्ट्रवाद का चोला ओढ़कर राजनेता सियासी दांव खेल रहे हैं. जिसका रास्ता श्मशान और कब्रिस्तान से होकर गुजरता है. राजनीति का इतिहास उठाकर देखें तो कभी किसी प्रधानमंत्री ने चुनाव के दौरान इस तरीके के भाषण नहीं दिए होंगे. लेकिन भाजपा है. जिसने उत्तर प्रदेश में सत्ता हांसिल करने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया है. यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री पद की गरिमा तक को भी.
ऐसे में अहम सवाल उठता है. क्या देश के प्रधानमंत्री का अपने पद गरिमा के विपरीत जाकर ऐसी बयानबाज़ी करना लाज़िमी है? अगर ऐसा करना लाज़िमी है तो गुरमेहर कौर की आवाज़ का बुलंद होना भी उतना ही जरूरी हो उठता है. जिसे लोकतंत्र की मर्यादा के भीतर देशद्रोह करार दिया जा रहा है. आखिर लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी भी उतनी ही अहम है. जितनी नेताओं की गरिमा और भाषा. मसलन इस सब के बीच अभिव्यक्ति की आज़ादी का दम घुट रहा है. डिजिटल इंडिया का लोकतंत्र दम तोड़ने के कगार पर है. बुजुर्गों की नसीहत पर अमल करने वाले इस मुल्क की युवा पीढ़ी खुद के भीतर आज़ादी तलाश रही है. जिसे उनके ही बुज़ुर्ग राष्ट्रद्रोह करार दे रहे हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इंस्टिट्यूट फॉर गवर्नेंस पॉलिसीज और पॉलिटिक्स, नई दिल्ली में सीनियर रिसर्चर हैं)

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