चुनाव में विकास और मुद्दें गौण !

देश की राजनीति में अपनी अहम भूमिका रखने वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश में चुनावी संग्राम जारी है. तमाम सियासी दल ऐन केन प्रकारेण सत्तासीन होने की जुगत में हैं. सपा में गहरे घमासान के बाद अखिलेश का मुखौटा बनकर चुनाव मैदान में उतरने को तैयार है तो कांग्रेस भी लगे हाथ उसकी नाव में सवार होकर अपनी नैया पार लगाना चाह रही है. बसपा भीतर ही भीतर मजबूत होकर उभारना चाह रही है | देश में अपने पैर ज़माने के बीजेपी जोड़ तोड़ कर हर हाल में सत्ता पाने की जीतोड़ कोशिश में जुटी है. यूपी के इस दंगल में वे तमाम मुद्दे और विकास के दावे हवा हो गए हैं. जिन्हें लेकर ये पार्टियाँ पिछले चुनावों में जनता के बीच गई थी. चाहे राम मंदिर हो चाहे मुजफ्फर नगर दंगे हो चाहे विकास और स्थानीय मुद्दों का मसला हो अभी सब गौण है. राजनीतिक दृष्टिकोण से अभी तमाम दलों का सत्ता में आना ही एक मकसद मात्र रह गया है.

कमलेश केशोट
kamlesh Keshoteनई दिल्ली. दबंगों की दबंगई, अपराध, बरोजगारी और पिछड़ेपन से जूझ रहा उत्तर प्रदेश आज भी विकास को मोहताज़ है. पिछले चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी सहित सभी दलों ने अपने घोषणा पत्र में उत्तर प्रदेश के भरपूर विकास की बात की थी. अखिलेश यूपी की राजनीति में युवा और नए चेहरे थे. यह भारतीय राजनीति में नए चेहरों का आगमन का दौर था. लिहाज़ा जनता ने भरपूर सहयोग दिया. अखिलेश के कार्यकाल में विकास तो हुआ लेकिन उतना न हो सका. जितनी आम जनता को उम्मीद थी या यूं भी कह लिजिए अखिलेश जनता की उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाए. शायद यही वजह रही होगी जो उत्तर प्रदेश की जनता ने लोकसभा चुनाव में भाजपा को भरपूर समर्थन दिया. यूपीए सरकार से ऊब चुकी जनता को बीजेपी खासकर नरेंद्र मोदी में खासी उम्मीद नज़र आई. तब यूपी ही नहीं पूरा देश मोदी से उम्मीद लिए बैठा था. देश ने मोदी में आस्था जताते हुए मोदी और बीजेपी को भरपूर समर्थन दिया. लोकसभा चुनाव के दौरान ही मोदी ने अपने नजदीकी माने जाने वाले अमित शाह को उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभारी बना दिया. खुद मोदी ने भी यूपी में पार्टी का वर्चस्व ज़माने के लिए दो सीटें लेते हुए वाराणसी से भी चुनाव लड़ा. यहाँ की जनता ने मोदी को आप पार्टी के अरविंद केजरीवाल के मुकाबले पौने चार लाख वोटों से जिताया था. तब बीजेपी उत्तर प्रदेश में 71 सीटों पर जीती और सत्ताधारी समाजवादी पार्टी दो सीटों पर ही सिमट कर रह गई. इससे साफ तौर से ज़ाहिर है कि अखिलेश सरकार ने प्रदेश में ऐसा कोई ठोस काम नहीं किया जिसके दम पर वह जनता के मजबूती से खड़ी हो सके. हांलाकि सपा नेताओं ने इसे नकारते हुए इसे मोदी लहर का परिणाम बताया. अब उत्तर प्रदेश में फिर से विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. चुनाव आयोग ने प्रदेश में सात चरण में चुनाव कराने का फैसला किया है. विगत चुनावों से हट कर इस बार चुनाव में स्थिति एकदम अलग होने वाली है. जातिगत समीकरणों के हिसाब से देखें तो उत्तर प्रदेश में दलित और मुस्लिम मतदाता बहुसंख्यक हैं. जिस पर सपा और बसपा की पैनी नज़र है. इसके आलावा ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य मतदाताओं की भी स्थिति मजबूत है. जिस पर बीजेपी की उम्मीद टिकी है. अभी हाल ही चुनाब से ठीक पहले प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह और चाचा शिवपाल यादव से बगावत कर अपने उम्मीदवारों की अलग सूची जारी कर दी थी. इसके बाद सपा में बड़ा घमासान चला. इतना ही नहीं उन्होंने मुलायम से पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद और पार्टी का सिम्बल साईकिल तक हथिया लिया. राजनीतिक जानकारों की माने तो सपा को इसका गरमा गर्मी का बड़ा फायदा मिला है. अखिलेश इस घटनाक्रम के बाद सूबे में ही नहीं पूरे देश के जेहन में छा गए हैं. अब उनके राष्ट्रीय राजनीति में आने का दौर है. इस बगावत की एक बड़ी वजह सपा पर दबंगई और गुंडागर्दी के लगे दाग को धोना भी माना जा रहा है. पार्टी अब विधानसभा चुनाव में नई छवि के साथ मैदान में उतरना चाह रही है. अखिलेश ने उत्तर प्रदेश में विकास कार्य तो करवाएं हैं, लेकिन उतने नहीं जिनके दम पर वो जनता के बीच जाकर अपना पक्ष मजबूती से रख सकें. शायद यही वजह है जो सपा ने कांग्रेस से से गठबंधन किया. सपा ने कहीं न कहीं सत्ता पाने की जुगत में इसी रास्ते को इख़्तियार करने का मन बना लिया है. गठबंधन को लेकर स्थिति अब एकदम स्पष्ट है. सपा इसी रास्ते फिर से सत्ता में आने की कोशिश में है. इधर बसपा भीतर ही भीतर पार्टी की छवि मजबूत करने में जुटी है. मायावती अभी किसी भी गठबंधन के मूड में नहीं हैं. अपनी पहली सूची में उन्होंने ब्राह्मणों को टिकट देकर अपनी सर्वजातीय छवि बनाने और मुसलमानों को रिझाने की कोशिश की है. लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी दलित वोटबैंक पर उनकी उतनी ही गहरी पकड़ है. अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्थिति बहुत ज्यादा बेहतर है. बीजेपी यूपी में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए जोड़ तोड़ में जुटी है. बिहार में करारी हार के बाद पार्टी यहाँ किसी भी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहती. अभी तक प्रत्याशियों को लेकर बीजेपी की जारी पहली सूची ही आरोपों से घिर गई. पार्टी पर दलबदलू लोगों को प्राथमिकता देने और परिवारवाद के आरोप लग रहे हैं.

इन सबसे इतर इस पूरे चुनाव में जो अहम बात उभर कर सामने आ रही है वो प्रदेश का विकास और उससे जुड़े स्थानीय मुद्दे हैं. अभी तक किसी भी दल ने इसे लेकर अपनी भूमिका स्पष्ट नहीं की है. ना ही इस तरह का कोई ठोस एजेंडा जारी किया है. ऐसे में इस पूरे चुनाव से विकास और मुद्दे तो गौण ही नज़र आ रहे हैं. नोटबंदी का इस चुनाव में व्यापक असर नज़र आएगा. नोटबंदी के बाद किसी बड़े सूबे में यह देश का पहला विधानसभा चुनाव होगा. जहाँ इसके गहरे असर नज़र आएंगे. उत्तर प्रदेश के लिहाज़ से अब तक की सबसे बड़ी समस्या अपराध को लेकर रही है. कोई भी सरकार वहां कानून व्यवस्था बनाएं रखने में पूरी तरह कामियाब नहीं हो सकी है. अकेले कानपुर में अपराधिक वारदातों में बड़ा इजाफा हुआ है. अभी हाल ही में एटा स्कूल बस हादसे के मामले में किसी पार्टी ने अभी तक कोई ठोस व्यक्तव्य नहीं दिया. ऐसी घटनाओं की जिम्मेदारी लेने से सब बचना चाह रहे हैं. इसके अलावा राम मंदिर के मामले पर स्थानीय सरकारों से इतर बीजेपी ने भी अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. लिहाज़ा इससे नाकारा नहीं जा सकता है कि यह मामला प्रदेश में चुनाव को प्रभावित नहीं करेगा. प्रदेश में पहले और दूसरे चरण के चुनाव पश्चिमी यूपी में हैं. यह इलाका गन्ने की खेती के लिए जाना जाता है और यहाँ के किसानों की खेती को लेकर अपनी समस्याएँ हैं. किसी ज़माने में यहां महेंद्र सिंह टिकैत का अच्छा खासा प्रभाव हुआ करता था. किसान आंदोलनों में उनकी गहरी भूमिका रही है. सियासी हलके में इसे मुलायम सिंह और सपा का गढ़ माना जाता है. अब यहाँ अजीत सिंह अपना खासा प्रभाव रखते हैं. इस इलाके में अपना पूरा प्रभाव ज़माने के लिए सपा भी अजीत सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल से गठबंधन करने का प्रयास कर रही है. यह मुस्लिम बाहुल्य इलाका भी है. यहाँ साम्प्रदायिक माहौल आए दिन बिगड़ता रहता है. मुजफ्फर नगर दंगों को अभी प्रदेशवासी भुला नहीं पाए हैं. अखिलेश सरकार ने इन दंगों को लेकर कोई संजीदगी नहीं दिखाई थी. वहीं रोहेलखंड में तराई और पलायन की समस्या काफी गंभीर है. यहाँ से आए दिन लोग रोजगार के लिए पलायन करते हैं. यहां मौसमी बिमारियों के फैलने की समस्या भी भारी है. मायावती यहाँ अपना अच्छा खासा प्रभाव रखती हैं. इधर, पूर्वांचल में गन्ने की फसल अच्छी होती है लेकिन यह इलाका बाढ़ से पीड़ित है. घग्गर नदी में पानी की आवक ज्यादा होने से किसान बाढ़ से परेशान हैं. पलायन के मामले में पूर्वांचल सबसे आगे हैं. रोजगार की आस में महाराष्ट्र में पलायन करने वाला सबसे बड़ा तबका इसी इलाके से आता है. पिछले कुछ अरसे में यहाँ बड़े पैमाने पर शुगर मिल्स बंद हुई है. जिससे यहाँ रोजगार की समस्या और बढ़ गई है. किसी दौर में यहाँ कल्याण सिंह का भारी दबदबा था. लेकिन परिवारवाद के चलते उनका प्रभाव अब इस इलाके में उतना नहीं रहा. बुंदेलखंड की अगर बात करें तो यह सूखा प्रभावित इलाका है. यहाँ की सबसे बड़ी समस्या सूखा और रोजगार रही है. इसके चलते बड़ी संख्या में लोगों ने यहाँ से काफी पलायन किया है. आमतौर पर यहाँ सूखे के कारण किसान गायों को तिलक लगाकर छोड़ देते हैं. ऐसे में गो रक्षा के मामले को चुनावी मुद्दा बनाना बीजेपी के लिए यहाँ घातक साबित हो सकता है. पिछली यूपीए सरकार ने इस इलाके के लिए विशेष पैकेज की भी घोषणा की थी. लेकिन उसका क्रियान्वन ठीक से नहीं हो सका. जिसका कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ेगा, बीजेपी का इस इलाके में शुरू से ही अच्छा खासा प्रभाव रहा है. लेकिन इस बार जनमानस का रुख क्या है. इसका पता लगाना मुश्किल है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भले ही उत्तर प्रदेश में सत्तासीन होने के लिए तमाम पार्टियाँ हर तरह का हथकंडा अपना रही है. लेकिन फिलवक्त मुद्दे और विकास चुनावी एजेंडे से पूरी तरह गायब हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इंस्टिट्यूट फॉर गवर्नेंस पॉलिसीज और पॉलिटिक्स, नई दिल्ली में सीनियर रिसर्चर हैं)

error: Content is protected !!