कब केजरीवाल रूपी ‘ग्रहण’ दिल्ली से हटेगा?

अरविन्द केजरीवाल एवं उनकी सरकार हर दिन किसी नये घोटाले, भ्रष्टाचार के संगीन मामले, किसी अजीबोगरीब घटनाक्रम को लेकर चर्चित रही है और अब दिल्ली के मुख्य सचिव को मुख्यमंत्री निवास पर बुलाकर जिस तरह बेइज्जत किया गया है, उनके साथ मारपीट की गयी उसने तो सारी हदे पार पर दी है। यह घटना भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार कर देने वाली घटना है। जिसने सिद्ध कर दिया है कि दिल्ली पर ऐसे लोगों की शासन है जिनकी निगाहों में संविधान और लोकतन्त्र द्वारा प्रदत्त विभिन्न शक्तियों और अधिकारों का अर्थ तानाशाही रौब जमाने के अलावा कुछ नहीं है।
अरविन्द केजरीवाल के घर पर आधी रात को लोकतंत्र को लहूलुहान किया गया, उसके मूल्यों एवं मर्यादाओं को तार-तार किया गया। दरअसल उस समय आम आदमी पार्टी ने सिद्ध कर दिया कि वह कोई लोकतांत्रिक मूल्यों से संगठित पार्टी न होकर जोर-जबर्दस्ती करने वाले तथाकथित नौसिखियों एवं आवारागर्दी करने वाले लोगों का जमावड़ा है। ऐसा लगा दिल्ली सरकार शहंशाह-तानाशाही की मुद्रा में है, वह कुछ भी कर सकती है, उसको किसी से भय नहीं है, उसका कोई भी बाल भी बांका नहीं कर सकता- इसी सोच ने उसे भष्टाचारी बनाया है और इसी सोच ने उसे हिंसक भी बना दिया। जहां नियमों की पालना व आम जनता को सुविधा देने के नाम पर भोली-भाली जनता को तो गुमराह ही किया जा रहा है, ठगा जा रहा हैं साथ-ही-साथ लोकतांत्रिक मूल्यों का भी हनन किया जा रहा है। आप की चादर इतनी मैली है कि लोगों ने उसका रंग ही काला मान लिया है। आप राजनेताओं की सोच बन गई है कि सत्ता का वास्तविक लक्ष्य सेवा नहीं, मर्यादा नहीं, शालीनता नहीं, बल्कि जो मन में आये, वह करना है। यही कारण है कि इसने दिल्ली के उन जिम्मेदार अफसरों को भी नहीं बख्शा जो संविधान की कसम लेकर अपने काम को अंजाम देते हैं। ऐसे जिम्मेदार अधिकारी राजनेताओं से मंत्री बने या निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के फरमानों को कानून और संविधान की तराजू पर तौल कर उस पर अमल करते हैं। इन्हीं अधिकारियों के बल पर इन नेताओं के अरमान पूरे होते हैं, ये वाह-वाही लूटते हैं, राजनेताओं एवं अफसरों के बीच एक सोची समझी समझ और समझौता होता है। मगर क्या कारण हुआ कि आधी रात को मुख्य सचिव को मुख्यमन्त्री ने अपने घर पर ही बुला कर ‘लोकतंत्र’ की धज्जियां इस तरह उड़ाईं कि लगा कि लोकतंत्र के रक्षक ही लोकतंत्र के भक्षक क्यों बन रहे हैं? एक बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा हुआ कि इस मुल्क में लोकतंत्र एवं कानून की जगह क्या है? इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठती है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। ऐसी अनहोनी भी होगी, ऐसा किसी ने महसूस नहीं किया। शासन-प्रशासन में टकराव होता है। विचार फर्क भी होता है। मन-मुटाव भी होता है पर मर्यादापूर्वक। अब आप ने तो इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। एक थकी हुई सरकार भ्रष्ट एवं हिंसक सरकार से भी ज्यादा खतरनाक होती है, यही बात केजरीवाल सरकार ने सिद्ध कर दी है। आज वीआईपी (अति महत्वपूर्ण व्यक्ति) और वीसीपी (अति भ्रष्ट व्यक्ति) में फर्क करना मुश्किल हो गया है।
विडम्बनापूर्ण ही कहा जायेगा कि सत्ता पक्ष के विधायकों के ऊपर प्रदेश के मुख्य सचिव से मारपीट का आरोप, एफआईआर दायर होना एवं एक विधायक की गिरफ्तारी जैसी अलोकतांत्रिक एवं असंवैधानिक घटनाएं पहली बार देखने को मिली है और वह सब भी मुख्यमंत्री के सामने हुआ। उन पर आरोप है कि उन्होंने अपने विधायकों को ऐसा करने से नहीं रोका। मुख्य सचिव अंशु प्रकाश ने अपने साथ हुई मारपीट की शिकायत पुलिस से की है। उन्होंने उपराज्यपाल अनिल बैजल और केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिलकर पूरी घटना की जानकारी दी है। इस घटना से नाराज दिल्ली के अधिकारियों ने मंगलवार को कामकाज ठप रखा। प्रशासनिक अधिकारियों के साथ केजरीवाल सरकार का विवाद नया नहीं है। कई वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों के बीच मतभेद सामने आ चुके हैं। विवाद की वजह से कई अधिकारी दिल्ली से बाहर चले गए हैं। पूर्व कार्यकारी मुख्य सचिव शकुंतला गैमलीन, पूर्व मुख्य सचिव एमएम कुट्टंी और लोक निर्माण विभाग के पूर्व सचिव अश्वनी कुमार के साथ सरकार का विवाद सुर्खियों में रहा था। अधिकारियों के साथ इस तरह के विवाद का सीधा असर दिल्ली के विकास पर पड़ रहा है। यह स्थिति किसी भी स्थिति में दिल्ली के हित में नहीं है और केजरीवाल इसके लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। दिल्ली में संविधान का राज जैसी कोई चीज नजर नहीं आ रही है और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संवैधानिक ढांचा पूरी तरह चरमराया हुआ प्रतीत हो रहा है। ऐसी अराजक एवं अलोकतांत्रिक स्थितियों में मौजूदा सरकार के सत्ता में बने रहने का क्या औचित्य है? जब मुख्यमन्त्री के घर के भीतर ही दिल्ली में कानून का राज काबिज करने की कसम से बन्धे मुख्य सचिव को ही संविधान का शासन लागू करने की कसम से बन्धे मुख्यमन्त्री द्वारा कानून तोड़ कर बेइज्जत किया जाता है तो ऐसी सरकार की कोई इज्जत आम जनता के बीच में नहीं रह सकती। ऐसी सरकार सिर्फ अराजकतावादियों के जमघट के अलावा और कुछ नहीं कहलाई जा सकती।
लगता है या तो केजरीवाल से शासन की बागडोर संभल नहीं रही है, या वे इसमें अपरिपक्व है, तभी वे नित-नया हंगामा खड़ा कर जनता का ध्यान बांट रहे है और जनता की सहानुभूति लुटना चाहते हैं। केजरीवाल में असफलता की बौखलाहट स्पष्ट दिखाई दे रही है, उनमें यह भी अहंकार दिखाई दे रहा है कि वोट देने वाले भोले-भाले एवं अशिक्षित लोग उनके साथ है, उन्हें गुमराह किया जा सकता है, अंधेरे में रखा जा सकता है लेकिन ऐसे लोग भी अंधे नहीं है, उन्हें सही-गलत का भेद मालूम है। फिर केजरीवाल को यह बात याद रखनी होगी कि दिल्लीवासियों ने उन्हें दिल्ली के विकास के लिए प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता सौंपी है, न कि अधिकारियों के साथ बेवजह विवाद पैदा करने के लिए। इसलिए उनकी यह जिम्मेदारी है कि वह दिल्ली के हित में काम करें। यदि अधिकांश अधिकारी सरकार से नाराज हो रहे हैं तो सत्ता में बैठे लोगों को आत्ममंथन करना चाहिए। किसी भी स्थिति में उन्हें इस तरह का टकराव टालना होगा, जिससे कि प्रशासनिक कामकाज में किसी तरह की बाधा न पड़े। यहां मुख्य सवाल दिल्ली के विकास का नहीं है, सवाल यहां ऐसे राजनेताओं की कर्तव्य परायणता और पारदर्शिता का है। कब तक हम भ्रष्ट-हिंसक नेताओं को सहते रहेंगे और कब तक भ्रष्ट-हिंसक नेता देश के चरित्र को धुंधलातेे रहेंगे।
आप एवं केजरीवाल की सत्ता और स्वार्थ ने दिल्ली के विकास की आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठ गया कि चैराहे पर खडे़ आदमी को सही रास्ता दिखाने वाले आप के नेता झूठे-फरेबी-से लग रहे हैं। जनता उनके चेहरों पर सचाई की साक्षी ढूंढ़ती है, जो नजर नहीं आ रही है। लगातार भ्रष्टाचार एवं घोटालों पर उनके द्वारा पर्दे डालने का दुष्प्रभाव और सीधा-सीधा असर सरकार के कार्यों पर दिख रहा है, इन बढ़ती भ्रष्ट और अराजक स्थितियों को नियंत्रित किया जाना जरूरी है। अन्यथा दिल्ली की सारी प्रगति को भ्रष्टाचार की महामारी एवं नेताओं की तानाशाही खा जाएगी।
राजनेता से मंत्री बने व्यक्ति अंततः लोकसेवक हैं। उन पर राष्ट्र को निर्मित करने की बड़ी जिम्मेदारी है। इस कार्य में उनके सबसे बड़े सहयोगी नौकरशाह होते हैं। यह बात केजरीवालजी एवं उनकी सरकार के मंत्रियों को समझनी होगी। अन्यथा नौकरशाह की नाराजगी के कारण सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच पाएगा तथा दिल्ली के सर्वांगीण विकास की राह बाधित रहेगी। न जाने कब केजरीवाल रूपी ग्रहण दिल्ली से हटेगा?

(ललित गर्ग)
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