खबरों के लिए उनके रिपोर्टर जिम्मेदार लोगों या अधिकारियों से बातचीत करते हुए नहीं दिखते, बल्कि एक दूसरे से बात करते हुए खुद की बात थोपते नजर आते हैं। अर्नब एंकरिंग करते हुए चीखते हैं,तो उनके रिपोर्टर खबर बताते हुए यही नौटंकी करते हैं। सामने वाले के मुंह में माइक डाल देना और उसे घेर लेना क्या पत्रकारिता है। बहस म़े अरनब अपने एजेंडे के विरोध में बोलने वाले मेहमान को ऐसे फटकारते हैं,जैसे उनका गुलाम हो। अबे चुप हो जा। तेरे समझ में नहीं आएगा। ज्यादा मत चिल्ला फेंफड़े फट जाएंगें। तू तो बेवकूफ है। तुम्हें तो मैं उखाड़ दूंगा। ये क्या भाषा है।
सुशांत सिंह और कंगना रनोत मामलों की रिपोटिंग में तो रिपब्लिक भारत ने पत्रकारिता की सारी मर्यादाओं को ताक में रख दिया। जो मुंह में आया रिपोर्टर ने बोला। अरनब को मीडिया को दोफाड़ करने का भी श्रेय है। दूसरे चैनलों के खिलाफ नारेबाजी, नम्बर वन बनने पर आज तक पर व्यक्तिगत हमले जैसा छिछोरापन उनसे पहले नहीं था। देखना होगा कि अरनब इस छिछोरपन से कब तक अव्वल रहते हैं। लेकिन जब तक वो नम्बर वन है,तब तक हम दर्शकों की सोच समझ पर भी सवालिया निशान तो रहगा कि हम भी खबरों की गंभीरता और महत्व को भूलकर नौटंकी और चीखने को खबर मानने लगे हैं।
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