देखो ओ दीवानों तुम ये काम न करो, “प्रेस” का नाम बदनाम ना करो*

– *सुशील चौहान*
भीलवाड़ा। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ *मीडिया* मतलब *प्रेस* आज कल भीलवाड़ा में खासा चर्चा में है। चर्चा में लाने वाले वो लोग नहीं है जो वाकई दिन रात एक कर खबरों में जीते है बल्कि वो लोग है जिनके लिए *प्रेस केवल मुखौटा* है। *पत्रकारिता की आड़* में वे सारे ऐसे काम कर रहे है जो *असल पत्रकारिता में कभी नहीं होता*। बहुत मन दु:खता है जब पता चलता है कि प्रेस की आड़ में अब *डराने धमकाने* और *धन वसूलने* के काम होने लगा है। विगत *एक -डेढ़ साल* में यानी *कोरोना काल* में तो प्रेस की आड़ में वसूली का *नया कारोबार पनप गया*। पत्रकार का काम गलत कार्य को उजागर करना, उसके लिए लिखना होता है।

सुशील चौहान
बाकी काम के लिए पुलिस है, प्रशासन है, न्यायालय है। लेकिन पत्रकारिता की *बारखड़ी* नहीं समझने वाले भी केवल *मोबाइल फ़ोन से फ़ोटो ओर क्लिप बनाकर पत्रकार हो गए*। हालांकि यह भी सत्य है कि *उनको रास्ता भी असल पत्रकारिता* करने वालों ने ही दिखाया है। लोकिन अब लगाम कसने का वक्त आ गया है। खुद को पत्रकार बताकर डराने धमकाने वालों पर शिकंजा कसा जाना जरूरी है। निष्पक्ष ओर निडर पत्रकारिता पर कोई अंगुली नहीं उठाता लेकिन जहाँ *लालच आ जाय* वहाँ पत्रकारिता *पीत और ब्लैकमेल* वाली हो जाती है। हाल ही के घटना क्रम ने पत्रकार जगत को *झकझोरा* है, सोचने पर विवश किया है। प्रेस क्लब के अध्यक्ष सुखपाल जाट की पहल पर मंथन हुआ है तो परिणाम की सभी को प्रतीक्षा रहेगी। बाकी आज कल एक मछली नहीं कुछ मछलियां मिलकर *जर्नलिज्म* के पवित्र तालाब को गंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। जरूरत है समय पर इनको बाहर करने की। वरना पूरा तालाब *गंदी मछलियों* से भर गया तो *साफ़ मछलियों* को तो *स्वाभिमान* से ही *तालाब* यानी पत्रकारिता ही छोड़ना पड़ जायेगा। हालांकि इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार तो यह पत्रकारिता का मुखौटा पहने लोग हैं ही, लेकिन इसमें प्रशासन के कुछ लोग भी जिम्मेदार हैं जो बिना कुछ जाने इन मुखौटों की हाथ की कठपुतली बन गए। कोरोना काल में ऐसे ही चंद सरकारी कारिंदों ने इन मुखौटों का जमकर साथ दिया। इनके कहने से बेवजह छापेमारी कर व्यापारियों का जीना मुश्किल कर दिया। यह बात रविवार को प्रेस क्लब के मंथन में सामने आई। जहां व्यापारियों ने अपने दिल के छालों को दिखाया।

*98293-03218*
– *स्वतंत्र पत्रकार*

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