भारत का राष्ट्रपति और आदिवासी समाज

राष्ट्रपति पद के लिए चुनावों की घोषणा हो चुकी और इसी के साथ देश में चुनावी सरगर्मियाँ तेज
हो चुकी है..! विपक्ष ने लगभग 25 वर्षों तक भाजपा में रहे पूर्व भाजपा नेता और पूर्व वित्त मंत्री
यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है..! जबकि भाजपा ने एक ऐतिहासिक
फ़ैसला लेते हुए आदिवासी महिला नेत्री और झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति
पद के लिए उम्मीदवार घोषित कर दिया है..! उम्मीद की जा रही है कि इस बार देश को द्रौपदी
मुर्मू के रूप में आज़ादी के 75 वर्षों बाद पहली बार आदिवासी राष्ट्रपति मिलेगा..!
विपक्ष द्वारा यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बनाएँ जाने के बाद बहुत से लोग विपक्ष की मूर्खता पर
ताने मार रहे है..! लेकिन जैसे ही भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित
किया वैसे ही लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गये और तरह-तरह की प्रतिक्रिया देने लगे..!
अधिकतर लोगों ने भाजपा के इस कदम का स्वागत किया लेकिन कुछ लोग उल्टी-सीधी बातें और
सवाल करने लगे है..। जैसे कि
द्रौपदी मुर्मू अन्य राष्ट्रपतियों की तरह रबर स्टाम्प साबित होगी..!
द्रौपदी मुर्मू प्रतीकात्मक राष्ट्रपति उम्मीदवार है..!
आदिवासी राष्ट्रपति बनाएँ जाने के बाद आदिवासियों का भला नहीं होगा..! जैसे दलित राष्ट्रपति
बनने के बाद दलित उत्पीड़न बढ़े, ठीक वैसे ही आदिवासी राष्ट्रपति बनने के बाद अडानी-अम्बानी
के लिए जंगलों को उजाड़ा जाएगा और आदिवासी विस्थापन में वृद्धि होगी..!
वर्तमान में चल रहे आदिवासी आंदोलनों पर द्रौपदी मुर्मू का क्या स्टैंड रहा है..? क्या वो आदिवासी
समुदाय के हित में काम करेगी..?
कुछ लोग तो यह भी लिख रहे है कि सामाजिक न्याय की राजनीति का अर्थ यह क़तई नहीं है कि हर
जगह मेरी जाति या समुदाय का शख़्स हो..! प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी में प्रगतिशील वैचारिकी
भी शामिल होनी चाहिए..!
द्रौपदी मुर्मू एक शिव मंदिर में झाड़ू निकाल रही है, कुछ लोग उस वीडियो को लेकर भी मजाक बना
रहे है..!
द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाएँ जाने पाए आदिवासी समुदाय इतना खुश क्यों
है..?
आदिवासी अब भाजपा को वोट देंगे..!
इन्हीं सभी सवालों पर हम बात करेंगे और अंत में बात करेंगे कि यशवंत सिन्हा और द्रौपदी मुर्मू में
से कौन बेहतर है और कौन राष्ट्रपति बनना चाहिए..?
क्या द्रौपदी मुर्मू अन्य राष्ट्रपतियों की तरह रबर स्टाम्प साबित होगी..?
हम सब जानते है कि भारतीय राजनीति में राष्ट्रपति बिलकुल रबर स्टाम्प के समान होता है लेकिन
ये भविष्य के गर्त में छिपा है कि वो रबर स्टाम्प साबित होगी या नहीं..? वैसे यहाँ ध्यान देने योग्य
बात यह है कि जब द्रौपदी मुर्मू झारखंड की राज्यपाल थी तो तत्कालीन भाजपा सरकार ने
सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन की कोशिश की थी, उस संशोधन पर उन्होंने हस्ताक्षर नहीं
किए थे और कहा था कि संशोधन आदिवासी हितैषी होने चाहिए ना कि आदिवासी विरोधी..! वैसे

अभी तक अधिकतर राष्ट्रपति ख़ासकर दलित- मुस्लिम-महिला जब रबर स्टाम्प साबित हुए है तो
ऐसे में द्रौपदी मुर्मू के रबर स्टाम्प बनने पर आपत्ति क्यों..?
क्या द्रौपदी मुर्मू प्रतीकात्मक राष्ट्रपति उम्मीदवार है..?
जी, बिल्कुल प्रतिकात्मक है..! लेकिन आप लोग उन लोगों से सवाल पूछिए कि भारतीय राजनीति
में प्रतीकों का खेल कौन ने शुरू किया था..? वैसे हाल ही का उदाहरण देख लीजिए..! कुछ महीने
पहले पंजाब में अमरिंदर सिंह की जगह चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर जो लोग खुश
हो रहे थे, अब उन्हीं में कुछ लोग द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाएँ जाने पर दुखी
हो रहे है..!
क्या आदिवासी राष्ट्रपति बनाएँ जाने के बाद आदिवासियों का भला होगा..? क्या जैसे दलित
राष्ट्रपति बनने केबाद दलित उत्पीड़न बढ़े ठीक वैसे ही आदिवासी राष्ट्रपति बनने के बाद अडानी-
अम्बानी के लिए जंगलों को उजाड़ा जाएगा और आदिवासी विस्थापन में वृद्धि होगी..?
हमें नहीं पता कि द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय का भला करेगी या नहीं..? क्योंकि ये सब भविष्य
के गर्त में है लेकिन मुझे आप लोग ये बताओ कि किस राष्ट्रपति ने अपने समुदाय के लोगों का भला
किया..? क्या ज्ञानी ज़ैल सिंह, के.आर. नारायण, अब्दुल कलाम, रामनाथ कोविंद, प्रतिभा पाटिल
जैसे लोगों ने अपने-अपने समुदायों का भला किया..? फिर द्रौपदी मुर्मू से उम्मीद क्यों…? क्या
विपक्ष के राष्ट्रपति उम्मीदवार यशवंत सिन्हा आदिवासियों का भला करेंगे..? जबकि विपक्ष के इस
उम्मीदवार यशवंत सिन्हा का इतिहास बताता है कि ये बिहार में दलितों का जनसंहार करने वाली
रणवीर सेना के हितैषी रहे है..! ऐसे में यशवंत सिन्हा से आदिवासी हितैषी होने की उम्मीद करना
ही मूर्खता है…! वैसे अचानक से जिन लोगों को आदिवासी समुदाय के जल-जंगल-ज़मीन-
स्वाभिमान-अधिकार की अचानक से फ़िक्र होने लगी है, उनसे पूछिए कि उनमें से कितने नेता, दल
और लोग हसदेव, सिलगेर, नेतरहाट और कांकरी डूँगरी आंदोलन में आदिवासी समुदाय का साथ
खड़े थे..? एक बात और कहना चाहता हूँ कि यदि आदिवासी समुदाय के जल, जंगल, ज़मीन,
स्वाभिमान और अधिकार पर हमला हुआ तो हम हमेशा की तरह अपने दम पर अपनी लड़ाई लड़ेंगे
ना कि राष्ट्रपति के भरोसे बैठे रहेंगे..!
वर्तमान में चल रहे आदिवासी आंदोलनों पर द्रौपदी मुर्मू का क्या स्टैंड रहा है..? क्या वो आदिवासी
समुदाय के हित में काम करेगी..?
साथियों आप लोग विपक्ष की पैरवी करने वाले लोगों से पूछिए कि हसदेव, सिलगेर और कांकरी
डूँगरी में आदिवासी समुदाय के ऊपर जब कांग्रेस की सरकार ने हमला किया था, तब यशवंत सिन्हा
और विपक्षी दल कहाँ थे..? विपक्ष को वोट भी आदिवासी दें और उत्पीड़न भी आदिवासी सहे
लेकिन जब बात प्रतिनिधित्व की आएँ तो मलाई ग़ैर-आदिवासी चाटे..! ऐसे कब तक चलेगा..?
बाक़ी मैंने द्रौपदी मुर्मू से जुड़े कई आर्टिकल पढ़े है, उसके बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि वो चाहे
आदिवासी विस्थापन और उत्पीड़न पर ना बोले लेकिन वो आदिवासी क्षेत्रों में केंद्र सरकार के
सहयोग से शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ावा ज़रूर देने की कोशिश करेगी..! द्रौपदी मुर्मू को

कई उल्लेखनीय कार्यों के लिए उड़ीसा विधानसभा में सबसे बेहतर विधायक का अवार्ड भी मिला
था और साथ में वो झारखंड की ऐसी पहली राज्यपाल रही है, जिसने अपना पूरा कार्यकाल पूर्ण
किया है; ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि वो एक बेहतर राष्ट्रपति साबित होगी..!
कुछ लोग तो यह भी लिख रहे है कि सामाजिक न्याय की राजनीति का अर्थ यह क़तई नहीं है कि हर
जगह मेरी जाति या समुदाय का शख़्स हो..! प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी में प्रगतिशील वैचारिकी
भी शामिल होनी चाहिए..!
मैं इन साथियों की इस बात से कुछ हद तक सहमत हूँ कि सामाजिक न्याय की राजनीति का अर्थ
यह क़तई नहीं है कि हर जगह मेरी जाति या समुदाय का शख़्स हो..! लेकिन जब आज़ादी के 75
वर्षों बाद भी वर्तमान विपक्ष द्वारा आदिवासी समुदाय को महत्व ना दिया जाएँ तो भाजपा के द्वारा
द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित करने वाला यह कदम लोगों को सामाजिक न्याय ही
लगेगा…! बाक़ी मैं इन साथियों से इतना पूछना चाहता हूँ कि विपक्ष के उम्मीदवार की वैचारिकी
और सामाजिक न्याय का आधार क्या है..? यशवंत सिन्हा लगभग तीन दशक तक भाजपा में रहे है
और बिहार में दलितों का जनसंहार करने वाली घोर जातिवादी रणवीर सेना के हितैषी रहे है..!
गुजरात दंगों के वक्त ये यसवंत सिन्हा केंद्र सरकार में मंत्री थे और Old पेंशन को हटाने वाले भी
यही यशवंत सिन्हा थे…! लेकिन क्या उनकी वैचारिकी सिर्फ़ इसलिए मज़बूत हो जाती है क्योंकि
वो 2018 से मोदी विरोधी है..? जबकि इसे प्रगतिशीलता या वैचारिकी मज़बूती नहीं बल्कि
मौक़ापरस्ती कहते है..! कल को तो इस देश का वर्तमान तानाशाह मोदी BJP और RSS को छोड़ दे
तो क्या आप मोदी को माफ़ कर देंगे..? वैसे इस देश में आरक्षण का प्रावधान प्रतिनिधित्व के लिए
किया गया था फिर तो उन लोगों का आरक्षण ख़त्म कर देना चाहिए, जो वैचारिक रूप से मज़बूत
ना हो..! क्या वो लोग, नेता, विधायक, सांसद और दल सामाजिक न्याय की पालना कर रहे है, जो
इस देश में सिलगेर, हसदेव, कांकरी डूँगरी, नेतरहाट जैसे आदिवासी आंदोलनों और कांग्रेस एवं
भाजपा प्रायोजित सलवा जूडूम पर चुप रहे..?
कुछ लोग उस वीडियो के माध्यम से द्रौपदी मुर्मू जी का मजाक बना रहे है, जिसमें वो एक शिव
मंदिर में झाड़ू निकाल रही है..!
मैं इन लोगों से पूछना चाहता हूँ कि क्या अब्दुल कलाम शंकराचार्य के कदमों में जाकर नहीं बैठे
थे…? क्या वर्तमान राष्ट्रपति पुष्कर नहीं गये थे..? क्या बहनजी (मायावती) ने तिलक तराज़ू
तलवार के नारे को ताक पर रखकर हाथ में त्रिशूल और गणेश जी की मूर्ति को नहीं उठाया..? क्या
कन्हैया कुमार जैसे पूर्व वामपंथी और वर्तमान कांग्रेसी मंदिर नहीं जाते है.? क्या राहुल गांधी और
प्रियंका गांधी मंदिर नहीं जाते है..? क्या स्वच्छता अभियान के नाम पर मोदी से लेकर जाने माने
नेताओं एवं सेलेब्रिटीज़ ने अपने हाथों में झाड़ू नहीं उठाई..? ऐसे में द्रौपदी मुर्मू का मजाक क्यों..?
द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाएँ जाने पाए आदिवासी समुदाय इतना खुश क्यों
है..?

यह ख़ुशी इसलिए है क्योंकि यह सम्मान , गौरव और प्रतिनिधित्व का मसला है..! इसे आप यूँ समझ
सकते है कि जब चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने थे तो शायद ही कोई किसान परिवार होगा
जिसने मिठाई ना बांटी हो..! इसी प्रकार जब बहनजी पहली बार मुख्यमंत्री बनी थी तो दलित
समुदाय ने भी गौरवान्वित महसूस किया था..! ओबामा ने बेशक अश्वेतों के लिए कुछ भी ना किया
हो, लेकिन वो हमेशा अश्वेतों का गौरव रहेंगे क्योंकि अमेरिकी इतिहास के वो पहले अश्वेत राष्ट्रपति
थे..! ऐसे समुदायों और वर्गों से अगर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जैसा कोई पद निकलता है
तो आने वाली कई पुश्तों के लिए गौरव की बात होती है..! एक बात और है कि दुनिया के हर
महाद्वीप (चाहे वो अमेरिका हो या आस्ट्रेलिया या फिर अफ्रीका) में जब मूलनिवासियों को सम्मान
दिया जा रहा है तो हमारे देश में आजादी के 75 वर्षों बाद एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बनने
पर लोगों को दिक़्क़त क्यों हो रही है..?
क्या आदिवासी अब भाजपा को वोट देंगे..?
क्या अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाएँ जाने के बाद मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया था..? क्या
रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाएँ जाने के बाद भाजपा के दलित वोट बैंक में वृद्धि हुई..? फिर ये
सवाल क्यों किया जा रहा है कि आदिवासी भाजपा को वोट देंगे..? भाजपा के किसी ऐतिहासिक
कदम का स्वागत करने का मतलब यह नहीं है कि आदिवासी समुदाय भाजपा को एक तरफ़ा वोट
देगा..! आदिवासी समुदाय हमेशा भाजपा विरोधी वोट बैंक रहा है..! छत्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात,
मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि के आँकड़े निकाल लीजिए तब आपको पता चलेगा कि
आदिवासी वोट कभी भाजपा को उस मात्रा में नहीं मिला है, जितना वोट अन्य दलों को आदिवासी
देते है..! 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनावों में आदिवासी बाहुल्य पूर्वी राजस्थान में 39 में से
भाजपा को सिर्फ़ 4 सीट मिली थी..! इसके अलावा मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात,
महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि राज्यों में भाजपा को आदिवासी वोट नाम मात्र का मिला था..!
बुद्धिजीवियों और राजनीतिक विश्लेषकों को फ़ालतू के सवाल और बातें करने के बजाय विपक्ष से
निम्नलिखित सवाल करने चाहिए थे:-
आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी कांग्रेस और विपक्षी दलों ने कभी आदिवासी समुदाय को वो
प्रतिनिधित्व क्यों नहीं दिया, जिसका वो हक़दार था..?
आख़िर कांग्रेस और विपक्षी दलों ने हाल ही के राज्यसभा चुनावों में आदिवासियों को प्रतिनिधित्व
देने की जगह सवर्णों को प्रतिनिधित्व क्यों दिया..?
आख़िर कांग्रेस और विपक्षी दलों ने पिछले 75 वर्षों में एक भी आदिवासी को राष्ट्रपति क्यों नहीं
बनाया..? हाँ भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए पी.ए.संगमा को 2012 में राष्ट्रपति का उम्मीदवार ज़रूर
बनाया था..!
आख़िर वर्तमान विपक्ष ने कितने आदिवासियों को राज्यपाल बनाया..?
जब पिछले तीन महीने से चर्चा चल रही थी कि भाजपा किसी आदिवासी को राष्ट्रपति पद का
उम्मीदवार बना सकती है..! तो क्या ऐसे में भाजपा को काउंटर करने के लिए विपक्ष को कोई
आदिवासी नेता पूरे देश में नहीं मिला..?

विपक्ष ने तीन दशक तक भाजपाई रहे यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाकर कौनसा तीर
मारा है..? ये वो ही यशवंत सिन्हा है जिन्होंने लगभग तीन दशक तक बीजेपी की सेवा की और
भाजपा छोड़ते ही प्रगतिशील हो गये…! जबकि इसे प्रगतिशीलता नहीं बल्कि मौक़ापरस्ती कहते
है…! विपक्ष चाहता तो एक पूर्व भाजपाई को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने की जगह किसी भी
आदिवासी नेता को उम्मीदवार बना सकता था..!
आख़िर आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी पाँचवीं अनुसूची को लागू क्यों नहीं किया गया है और
आदिवासी समुदाय को धर्मकोड क्यों नहीं दिया गया है..?
साथियों राष्ट्रपति चुनाव में वैसे तो दोनों उम्मीदवार RSS-BJP के हैं फर्क बस इतना हैं कि एक
मोदी विरोधी हैं और दूसरा मोदी समर्थक..! यशवंत सिन्हा भी भाजपा और संघ के ही है, बस चेहरा
विपक्ष का है…! कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विपक्ष वैचारिक रूप से दिवालिया हो चुका
हैं..! बाकि प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण होता है और यहाँ सवाल उस प्रतिनिधित्व का है, जो आदिवासी
समुदाय को 75 वर्षों में नहीं मिला..! आप लोग इस सच्चाई स्वीकार किजिए..!
वैसे द्रोपदी मूर्मू जी कल क्या करेगी और क्या नही करेगी..? यह बाद की बात है लेकिन वो सिन्हा
से तो बेहतर है..! सवाल ये भी नहीं है कि द्रौपदी मुर्मू आदिवासी अस्मिता को लेकर कितनी सचेत
राष्ट्रपति साबित होंगी..? सवाल प्रतीक का है और सत्ता में आदिवासियों की भागीदारी का है..!
पहले भी कहा है और अब भी कह रहा हूँ कि बात हिस्सेदारी, सम्मान और प्रतिनिधित्व की है..! हम
75 वर्षों से वर्तमान विपक्ष को वोट दे रहे है और बदले में हमें कुछ नहीं मिल रहा है..! तानाशाही
और फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ वोट आदिवासी समुदाय दें और मलाई ग़ैर-आदिवासी चाटें; ऐसे नहीं
चलेगा..! विपक्ष चाहता तो किसी आदिवासी को उम्मीदवार बनाकर अपने कोर वोटबैंक
आदिवासी समुदाय को साध सकता था और भाजपा को काउंटर कर सकता था लेकिन विपक्ष ने
हमेशा की तरह अपने कोर वोट बैंक को इग्नोर किया..! अब भी वक़्त है कि विपक्ष के लोग
आदिवासी समुदाय को ज्ञान देने की बजाय आत्मचिंतन करके अपनी ग़लतियों से सीखे, वरना
विपक्ष आदिवासीरूपी स्थायी वोट बैंक को खो देगा..!
अंत में मैं इतना ही कहूँगा कि मैं बीजेपी-RSS की राजनीति के खिलाफ था, हूँ और रहूंगा..! लेकिन
अब भी सवाल यही रहेगा कि विपक्ष को हमेशा सवर्ण ही क्यों पसंद आते हैं ..? बीजेपी की इस
राजनीति का विपक्ष के पास क्या काट हैं..?
~ अर्जुन महर

error: Content is protected !!