*यह राजनीतिक संकट है या ड्रामेबाजी*

-जब सब-कुछ आलाकमान को तय करना है तो इतनी हलचल क्यों
-जब सरकार कमजोर होती है तो अफसरशाही हावी हो जाती है, अभी यही स्थिति है

✍️प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
👉राजस्थान में कांग्रेस का अभी जो घटनाक्रम चल रहा है, उसे सियासी संकट कहें या राजनीतिक ड्रामा। जब सब-कुछ पार्टी आलाकमान को ही तय करना है, तो फिर इस तरह राजनीतिक घटनाक्रम चलाने, धड़ेबंदी करने और बयानबाजी करने की कहां जरूरत है। कहीं ऐसा नहीं लगता है कि कांग्रेस के विधायक ही सियासी घटनाक्रम से अपनी ही पार्टी को कमजोर कर रहे हैं। फिर वे विधायक गहलोत खेमे के हों या पायलट खेमे के। वर्ष 2018 में विधानसभा चुनाव होने पर जब कांग्रेस को बहुमत मिला था और सरकार बनाने की बारी आई थी, तब भी तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच जोर आजमाइश हुई थी। जयपुर-दिल्ली के बीच ना जाने कितने चक्कर लगाए थे। उस वक्त भी आलाकमान असमंजस में रहा था। कांग्रेस की काफी फजीहत हुई थी। काफी मशक्कत के बाद गहलोत की ताजपोशी की गई थी। पायलट को उपमुख्यमंत्री बनकर संतोष करना पड़ा था। लेकिन सरकार तब से लेकर अब तक हिचकोले खाती हुई ही चल रही है। बीच में भी सरकार गिराने-बनाए रखने के लिए सियासी घटनाक्रम या यूं कहें ड्रामा चला था और विधायकों की बाड़ाबंदी की गई थी। पायलट को मात खानी पड़ी थी। नतीजतन, उन्हें उपमुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा था। यह दूसरा मौका था, तब कांग्रेस की जमकर किरकिरी हुई। अब चूंकि इस बार संकट कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को लेकर है।

प्रेम आनंदकर
गांधी परिवार से इस बार कोई भी अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं है। ऐसे में गहलोत ही आशा की किरण हैं। अब बात यह है कि गहलोत कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ-साथ मुख्यमंत्री बने रहें या उनकी जगह अन्य को मुख्यमंत्री बनाया जाए। वैसे तो पायलट की प्रबल दावेदारी है, किंतु राजनीति में शह-मात चलती है। बीच में चले सियासी घटनाक्रम को गहलोत भूले नहीं हैं, क्योंकि उस घटनाक्रम के नायक पायलट ही थे। लिहाजा, पायलट को मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर रखने के लिए गहलोत जोर लगाए बिना नहीं रहेंगे। यही कारण है कि 25 सितंबर की रात होने वाली विधायक दल की बैठक अचानक स्थगित कर दी गई। यह अलग बात है कि यदि आलाकमान ही पायलट की ताजपोशी का फरमान सुना दें तो फिर गहलोत भी बेबस हो सकते हैं। और यदि आलाकमान गहलोत को ही मुख्यमंत्री बनाए रखे, तो पायलट कुछ भी नहीं कर सकते हैं। गहलोत ही मुख्यमंत्री रहें या पायलट मुख्यमंत्री बनें, किंतु यह बिल्कुल तय है कि अब कांग्रेस सरकार का अगला सफर आसान नहीं होगा। यह भी सत्य है कि हिचकोले खाती चल रही या चलने वाली कांग्रेस सरकार पर अफसरशाही हावी हो गई है और आगे भी होती जाएगी। अफसरशाही पर लगाम तभी लगाई जा सकती है, जब सरकार बिना किसी राजनीतिक घटनाक्रम के निर्बाध और मजबूती से चले। जब गहलोत और पायलट को ही पता नहीं है कि वे कितने समय तक मुख्यमंत्री रहेंगे, तो ऐसे में अफसरशाही पर सरकार का डर नहीं रहता है। अभी राजस्थान में यही हो रहा है। अफसरशाही बेलगाम है। यही नहीं, कांग्रेस में चार साल से अब तक जो सियासी घटनाक्रम चलता रहा है और अब भी चल रहा है, उसका खामियाजा कांग्रेस को ही भुगतान पड़ सकता है। विरोधी दल भाजपा तो वैसे भी कांग्रेस के हर घटनाक्रम पर नजर या यूं कहें घात लगाए बैठी है। यही नहीं, “खाया नहीं तो फैलाया ही सही”, कुछ इसी तर्ज पर गहलोत-पायलट खेमे के विधायक चल रहे हैं। दोनों खेमों की राजनीतिक गतिविधियों को देखते हुए लगता है, वे “रायता फैलाना” ही चाहते हैं। यदि गहलोत कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ-साथ मुख्यमंत्री भी बने रहते हैं, तो पायलट खेमा उन्हें चैन से सरकार चलाने नहीं देगा। और यदि पायलट मुख्यमंत्री बन जाते हैं, तो गहलोत खेमा चुप नहीं बैठेगा, गाहे-बगाहे पायलट को घेरेगा। पिछले चार साल से अब तक यही तो सब-कुछ चल रहा है। यही सियासी घटनाक्रम ही तो कांग्रेस और उसकी सरकार की छिछालेदारी करवा रहा है। इसीलिए भाजपा को जब चाहे तब कांग्रेस और सरकार को कोसने का मौका या मुद्दा बैठे-ठाले मिल जाता है। गहलोत व पायलट खेमे की ओर से दावे-प्रतिदावे किए जा रहे हैं कि इतने विधायक गहलोत के साथ हैं, तो इतने पायलट के साथ हैं। लेकिन आपके “काकाजी” आलाकमान का पता है क्या, वे क्या फैसला सुनाएंगे। जब विधायक दल की बैठक में एक लाइन का “विधायक दल नेता का चयन करने का फैसला आलाकमान पर छोड़ा जाता है”, प्रस्ताव पास करना है और फिर उनका ही फैसला स्वीकार करना है, तो फालतू में बांहें चढ़ाने से क्या फायदा है। किंतु दोनों ही खेमों को अपनी-अपनी ताकत दिखानी है, सो दिखा रहे हैं। यदि इसी तरह सियासी घटनाक्रम, ड्रामा, शह-मात का खेल चलता रहा, तो अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का भगवान ही मालिक होगा।

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