क्या हासिल किया भाजपा ने आडवाणी को बेइज़्ज़त कर?

-अभिरंजन कुमार- आडवाणी को आज लग रहा होगा कि अगर 2002 में उन्होंने वाजपेयी की बात मान ली होती, तो आज उन्हें यह दिन नहीं देखना पड़ता। 2002 के गुजरात दंगे के बाद वाजपेयी महसूस कर रहे थे कि मुख्यमन्त्री द्वारा राजधर्म का पालन नहीं किया जा रहा है और उन्हें हटा दिये जाने की ज़रूरत है, लेकिन आडवाणी जी उस वक्त मोदी की ढाल बनकर खड़े हुये। आज ढलान पर हैं तो सोच रहे होंगे कि बोया पेड़ बबूल कातो आम कहाँ से होय!

adwani 8रविवार को गोवा में पार्टी के बड़े-बड़े नेता मोदी की नज़र में आने और उन्हें यह जताने के लिये लालायित दिख रहे थे कि उन्हें कैम्पेन कमेटी का अध्यक्ष बनाये जाने के फैसले से वे बेहद खुश हैं। आपने ग़ौर किया होगा कि उन नेताओं में एक कल्याण सिंह भी थे, जो पहचाने जाने भर के लिये भीड़ में संघर्ष कर रहे थे। कल्याण सिंह का ज़िक्र इसलिये, क्योंकि नरेन्द्र मोदी की राजनीति उनसे मिलती-जुलती है। कल्याण सिंह के मुख्यमन्त्री रहते हुये 1992 में यूपी में बाबरी मस्जिद विध्वँस हुआ और नरेन्द्र मोदी के मुख्यमन्त्री रहते 2002 में गुजरात में दंगे हुये। कल्याण सिंह की सरकार तत्काल बर्खास्त कर दी गयी, तो कल्याण सिंह धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो गये, जबकि नरेन्द्र मोदी बचा लिये गये, तो धीरे-धीरे मज़बूत होते चले गये। अब तो ऐसा लग रहा है कि नरेन्द्र मोदी ने जो हाल अपने प्रादेशिक गुरू केशुभाई पटेल का गुजरात में किया, वही हाल अपने राष्ट्रीय गुरु आडवाणी जी का केन्द्र में करने वाले हैं।

भाजपा के कुछ नेताओं के बयानों पर ग़ौर करें तो ऐसा लगता है कि आडवाणी अपनी मर्ज़ी से घर नहीं बैठे, बल्कि उन्हें जबरन बैठाया गया।आडवाणी की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया आने से पहले ही पार्टी नेताओं ने घोषित कर दिया कि वे बीमार हैं। इसके बाद राजनाथ सिंह ने कहा कि वे अस्वस्थ हैं। मैंने स्वयम् उन्हें मना किया है। नहींआपको कार्यकारिणी की बैठक में आने की आवश्यकता नहीं है।

साफ़ है कि राजनाथ सिंह ने उनके लिये तय कर दिया कि अगर आप नरेन्द्र मोदी की राह में अड़ंगा लगाने के लिये आयेंगे तो आपकी आवश्यकता नहीं है। चुपचाप बीमारी का बहाना बनाकर घर बैठिये। …और आपने देखा कि जब आडवाणी को बीमार बताया जा रहा था,तो वे बाकायदा ब्लॉग लिख रहे थे। इतना ही नहीं, गोवा में नरेन्द्र मोदी का भाषण खत्म होने के कुछ ही देर बाद संघ के एक कार्यक्रम को वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए सम्बोधित भी कर रहे थे। आडवाणी अगर गोवा जाने की स्थिति में नहीं थे, तो क्या वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग से भी नहीं जुड़ सकते थे? और अगर आडवाणी की इतनी ही इज़्ज़त राजनाथ और मोदी करते हैं तो अपने सम्बोधन में एक बार भी आडवाणी का नाम क्यों नहीं लिया?

इन सबके बीच यह सवाल भी उठता है कि अगर भाजपा ने मोदी को प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने का मन बना ही लिया था तो आडवाणी जी इतने परेशान क्यों हो गयेपहले भी जब प्रमोद महाजन या अरुण जेटली वगैरह को इस तरह की ज़िम्मेदारी दी गयीतब तो इतना बवाल नहीं मचा था? जवाब यही है कि शायद आडवाणी को भी नरेन्द्र मोदी को ज़िम्मेदारी दिया जाना इतना नहीं अखरता, अगर बात सिर्फ़ कैम्पेन कमेटी का अध्यक्ष बनाने तक ही सीमित रहती तो। यह बात देर-सबेर निश्चित रूप से प्रधानमन्त्री पद की उम्मीदवारी तक भी जायेगी। लोकसभा चुनावों से पहले चार प्रमुख राज्यों- भाजपा शासित मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ और काँग्रेस शासित दिल्ली और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं। (मिज़ोरम में भी होने हैं और झारखंड में भी हो सकते हैं।) ये राज्य पहले से ही भाजपा के गढ़ माने जाते हैं और यहाँ बिना मोदी-नाम के भी पार्टी की चुनावी सम्भावना मज़बूत मानी जा रही है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के बारे में समझा जाता है कि अभी तक जनता का भरोसा उनमें कायम है, दूसरी तरफ राजस्थान और दिल्ली में काँग्रेस के ख़िलाफ़ एंटी-इनकम्बैन्सी फैक्टर चलने की सम्भावना जतायी जा रही है- कुछ राज्य सरकारों के अपने काम की वजह से और कुछ केन्द्र की काँग्रेस सरकार की घटी लोकप्रियता की वजह से। ऐसे में अगर भाजपा इन चुनावों तक मोदी की पीएम पद की उम्मीदवारी टाल भी दे, तो जैसे ही नतीजे उसके पक्ष में जायेंगे, सारा क्रेडिट मोदी को देकर उन्हें प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जायेगा। शायद इसीलिये आडवाणी चाहते थे कि विधानसभा चुनावों के प्रचार की कमान किसी और को दी जाये।

लेकिन आज स्थिति यह है कि आडवाणी के साथ संघ नहीं है। संघ ने 2005 में जिन्ना पर उनके बयान के बाद ही उन्हें अपनी नज़र से गिरा दिया था। आपको याद होगा कि उस समय संघ और भाजपा के ऐसे-ऐसे नेता भी आडवाणी के ख़िलाफ़ बयान दे रहे थे, जिनकी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं थी। आडवाणी को बेआबरू करके अध्यक्ष पद से हटाया गया। फिर 2009 में पार्टी ने प्रधानमन्त्री पद की उम्मीदवारी के लिये उन्हें आगे तो कियालेकिन आधे-अधूरे मन सेक्योंकि संघ उनके साथ नहीं था। अपने ही नेता की ऊँचाई कुतर चुकी भाजपा बुरी तरह चुनाव हारी और ठीकरा मुख्य रूप से आडवाणी के ही सिर फोड़ा गया। संघ के कई नेताओं ने राजनीति में रिटायरमेन्ट की उम्र तय करने की बात छेड़कर मीडिया में परोक्ष रूप से उन्हें रिटायर होने की नसीहत दी। मुमकिन है, परदे के पीछे प्रत्यक्ष तौर पर भी संन्यास लेने के लिये कहा होगा। संघ एक और वजह से आडवाणी को साइडलाइन करना चाहता था, क्योंकि संघ के सारे नेता आडवाणी से जूनियर हैं और आडवाणी पर उनकी ज्यादा चल नहीं पा रही थी, लेकिन पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेताओं के हाथ में कमान रहे, तो संघ के लिये उन्हें नाथे रखने में कोई दिक्कत नहीं।

ज़ाहिर है आडवाणी के साथ संघ तो नहीं ही हैपार्टी का आम कार्यकर्ता भी नहीं है। वे सब नरेन्द्र मोदी को आगे करना चाहते हैं। आडवाणी के साथ राजनाथ,जेटलीगडकरी जैसे दूसरी पंक्ति के कई नेता भी नहीं हैं। उन्हें लगता है कि आडवाणी के प्रासंगिक रहते उनकी सम्भावनाओं पर ग्रहण लगा रहेगा। जो कुछ नेता आडवाणी के साथ खड़े दिखायी देते हैंवे भी वक्त के साथ पाला बदल लेंगे- यह तय है। शनिवार को यह कहने वाले यशवंत सिन्हा कि “मुझे नमोनिया नहीं हुआ है, रविवार को कहते हैं कि “मैं उन नेताओं में से हूँ, जिन्होंने सबसे पहले नरेन्द्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया।“ उमा भारती ने पहले ही चिट्ठी लिखकर पार्टी को बता दिया था कि वे हर फैसले के साथ रहेंगी। शिवराज सिंह चौहान, जिनकी तारीफ़ करके आडवाणी जी ने नरेन्द्र मोदी को सुलगाया, वे ख़ुद मोदी के आगे हथियार डाले रहते हैं। पिछले एक साल में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ कई बयान देने वाले बिहार के उपमुख्यमन्त्री सुशील मोदी जिस अंदाज़ में नरेन्द्र मोदी से गले मिले, उससे लगा कि सारी कड़वाहट एक पल में जाती रही।

तब सवाल है कि आडवाणी जी जैसे धुरंधर क्या संघ और अपनी पार्टी का मूड नहीं भाँप सके? अपनी दावेदारी छोड़कर अगली पीढ़ी को आगे क्यों नहीं किया? क्या महज़ व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा के चक्कर में आडवाणी ने मोदी का विरोध किया? कुछ लोग हाँ कह सकते हैं, लेकिन यह शायद आंशिक रूप से ही सच हो, पूरी तरह से नहीं, क्योंकि आडवाणी की साम्प्रदायिक राजनीति से भले हम सहमत नहीं हों, लेकिन यह मानना चाहिये कि आडवाणी वो शख्स हैं, जिन्होंने भाजपा को वाजपेयी के साथ मिलकर बोया, सींचा और यहाँ तक पहुँचाया। चुनावी सफलता के लिहाज से भाजपा में वाजपेयी से भी ज़्यादा उनका योगदान रहा है, इसके बावजूद वे हमेशा वाजपेयी के पीछे खड़े रहे और ख़ुद को हमेशा नम्बर दो रखा। व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा के लिये आडवाणी ने पार्टी को नुकसान पहुँचाने की कोशिश की हो या पार्टी की बैठकों का बहिष्कार किया हो- ऐसा पहले तो नहीं हुआ कभी।

हाँ, आडवाणी यह ज़रूर चाहते होंगे कि एक बार उनके जीवनकाल में बिना वाजपेयी के भी भाजपा को सत्ता मिले और वे पीएम बन सकें, न बन सकें, इसका श्रेय उन्हें ज़रूर मिले। नरेन्द्र मोदी के पक्ष में संघ और पार्टी कार्यकर्ताओं की लामबन्दी ज़रूर दिख रही है, लेकिन गठबंधन राजनीति और मिली-जुली सरकारों के इस दौर में क्या नरेन्द्र मोदी भाजपा को 273 सीटें दिला सकते हैंअगर नहींतो फिर भाजपा को कई मज़बूत सहयोगी दलों की ज़रूरत होगी राजग के भीतर। जिन पार्टियों ने 2002 के दंगे के बाद एक-एक कर भाजपा का साथ छोड़ दिया, वे क्या दोबारा उस भाजपा के साथ जुड़ेंगे, जिसका नेतृत्व उस दंगे के मेन-आर्किटेक्ट के तौर पर प्रचारित किये गये व्यक्ति के पास हो? आज राजग में कौन है? ज़रा इस राजग की शक्ल देख लीजिए, तो सब समझ में आ जायेगा-

1.    भारतीय जनता पार्टी (116 सांसद)

2.    जनता दल यूनाइटेड – बिहार (20 सांसद)

3.    शिवसेना – महाराष्ट्र (11 सांसद)

4.    शिरोमणि अकाली दल – पंजाब (4 सांसद)

5.    तेलंगाना राष्ट्र समिति – आंध्र प्रदेश (2 सांसद)

6.    असम गण परिषद – असम (1 सांसद)

7.    नागालैंड पीपुल्स फ्रंट – नागालैंड (1 सांसद)

8.    हरियाणा जनहित काँग्रेस – हरियाणा (1 सांसद)

9.    जनता पार्टी – तमिलनाडु

10.   महाराष्ट्रवादी गोमाँतक पार्टी – गोवा

11.   नेशनल पीपुल्स पार्टी – मेघालय

साफ़ है कि 11 पार्टियों वाले मौजूदा राजग में भाजपा के अलावा सिर्फ़ दो मज़बूत पार्टियाँ हैं- जद(यू) और शिवसेना। इनमें भी जद(यू) किसी भी कीमत पर नरेन्द्र मोदी की लीडरशिप स्वीकार नहीं करेगा। दूसरी बात आज 28 राज्यों में से सिर्फ़ तीन राज्यों में भाजपा के अपने मुख्यमन्त्री रह गये हैं- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गोवा में। इस कमज़ोर भाजपा और कमज़ोर राजग के बूते की बात है 273 के जादुई आँकड़े तक पहुँच पाना?

केन्द्र में भाजपानीत राजग की सरकार तब बनेगी, जब भाजपा अपने बूते करीब 200 सीटें (+-15) जीते और उसके साथ पूरे देश में कई मज़बूत पार्टियाँ जुड़ सकें, जिनकी करीब 100 सीटें (+-15) जीतने की औकात हो। आज तो भाजपा के पास अपनी सिर्फ़ 116 सीटें हैं और राजग माइनस भाजपा माइनस जद(यू) के पास सिर्फ़ 20 सीटें। यानी जहाँ भाजपा को एक पार्टी के तौर पर अपनी ताकत डबल करनी है, वहीं राजग के घटक दलों की ताकत भी चार-पाँच गुणा बढ़ानी है। जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में उसे कोई कारगर गणित लगाना होगा। क्या मौजूदा स्थितियों में यह इतना आसान है? नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में तो यह और भी मुश्किल हो जायेगा। ख़ुद भाजपा के स्तर पर भी नरेन्द्र मोदी का तथाकथित करिश्मा तभी चलेगा, जब पूरी पार्टी एकजुट रहे। भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिये कि अन्तर्कलह के चलते अभी-अभी उसने अपने तीन राज्य उत्तराखंड, हिमाचल और कर्नाटक गँवाये हैं। अगर केन्द्रीय स्तर पर भी कलह चलती रही, तो उसकी क्या गति हो सकती है, क्या इसका उसे अनुमान नहीं है?

भाजपा के कुछ नेता भले यह दावा कर रहे हों कि नरेन्द्र मोदी के नाम पर एक तूफ़ान उठेगा, जिसमें सभी उड़ जायेंगे, लेकिन आज की तारीख़ में राष्ट्रीय दलों की गिरती साख और क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व के बीच भारत जैसे बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुभाषी मुल्क में यह सम्भव नहीं है। इसके बावजूद कार्यकर्ताओं और देश के लोगों की भावना के नाम पर जो खेल खेला गया है, उसके पीछे तीन बड़े फैक्टर हैं-

1.    पहला- राष्ट्रीय स्वयम्सेवक संघ, जिसे आज भी सपना आता है कि एक दिन भारत हिन्दूवादी राष्ट्र बन सकता है।वाजपेयीआडवाणी से उनका सपना पूरा नहीं हुआ। आडवाणी ने शुरू में तो संघ के कट्टर हिन्दुत्व को भाजपा में लाया, लेकिन बाद में पार्टी में वाजपेयी का उदार हिन्दुत्व हावी हो गया। अब चाहे सत्ता के लालच में या समय की नब्ज़ पढ़ लेने की वजह से आडवाणी जो प्रयोग कर रहे थे, वो उदार हिन्दुत्व से भी डायल्यूट होकर देश में “प्रचलित किस्म की धर्मनिरपेक्षता” की तरफ़ जा रहा था। ज़ाहिर तौर पर संघ को यह मंज़ूर नहीं था। इसलिये उसे पार्टी को फिर से हिन्दुत्व की राह पर ला सकने वाले नेता की तलाश थी। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में उग्र हिन्दुत्व का नहीं बिकने वाला जो प्रयोग 2002 में कियापिछले एक दशक में उसपर विकास का मुलम्मा चढ़ाकर उसे मार्केटेबुल बना दिया। ध्यान रहे कि नरेन्द्र मोदी आज भी मुसलमानों की टोपी ठुकरा देते हैं और चुनाव में मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट नहीं देते हैं, लेकिन विकास के शोर में इन चीज़ों पर क्रन्दन सुनने की किसे फुरसत है? तो संघ को लगा कि क्यों नहीं विकास के मुलम्मे में लिपटे हिन्दुत्व का ऐसा ही प्रयोग केन्द्रीय स्तर पर भी किया जाये, इसलिये उसने नरेन्द्र मोदी पर दाँव लगा दिया। अब अगर संघ अपने मकसद में कामयाब हो जाता है, तो चूँकि उम्र अभी नरेन्द्र मोदी के साथ है, इसलिये लम्बे समय तक यह प्रयोग किया जा सकता है, जिससे संघ को अपेक्षित रिजल्ट हासिल करने में आसानी होगी।

2.    दूसरा- भाजपा के वे नेता, जिन्हें आडवाणी के सक्रिय रहते अपने लिये अधिक सम्भावनायें नहीं दिखतीं। परिवार में भी एक वक्त आता है, जब बेटे भले नालायक हों, माँ-बाप को डस्टबिन में डाल देना चाहते हैं और बेटियाँ माँ-बाप के हालात पर आँसू बहाती रह जाती हैं। कुछ-कुछ यही हुआ है भाजपा के अन्दर। घर की बेटी सुषमा स्वराज पिता लालकृष्ण आडवाणी के साथ कंफर्टेबल थीं, उन्हें उनसे हमदर्दी थी, लेकिन घर के बेटों राजनाथ, जेटली, मोदी- इन सबको लग रहा था कि एक तो- ये हटे तो अपने लिये रास्ता बने, दूसरे- अगर इसकी चली तो ये बेटी (सुषमा) हम सब पर भारी न पड़ जाये। सो मोदी के नाम पर राजनाथ और जेटली ने सुषमा को साइडलाइन कर गेम प्लान तैयार किया। इस प्लान में मोदी को पॉवर मिल रही है, इसलिये उनकी भी बल्ले-बल्ले है। पीएम बनने का ख्वाब सामने होतो मान-मर्यादा किस चिड़िया का नाम है? राजनाथ और जेटली की भी बल्ले-बल्ले है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर नरेन्द्र मोदी के रास्ते में अड़ंगा आया, जिसकी काफ़ी सम्भावना है, तो उस स्थिति में उनका रास्ता साफ़ हो सकता है।

साथ ही, भाजपा के कुछ ऐसे नेता भी नरेन्द्र मोदी के लिये बैटिंग कर रहे हैं, जिनके गुजरात में बिजनेस इंट्रेस्ट हैं। ऊपर-ऊपर जो नेता देशहित की बातें करता हुआ दिखायी देता है, कौन जानता है कि उसने कहाँ-कहाँ खजाना गाड़ रखा है?

3.    तीसरा- देश-विदेश के पूँजीपतियों की टोली। अंबानी से लेकर अदानी तक। विदेशी संस्थागत निवेशकों से लेकर आप्रवासी भारतीयों तक। वाइब्रैंट गुजरात वाला नरेन्द्र मोदी उन सबके लिये सबसे ज़्यादा अनुकूल था।

कुछ और बातें दीगर हैं-

1.    पहली- कि भाजपा अपने कार्यकर्ताओं की भावना समझने का दावा तो कर सकती है, लेकिन देश के लोगों की भावना उसने कब पढ़ ली? इसका फ़ैसला तो चुनाव में ही हो सकता है कि देश के लोग क्या चाहते हैं। हो सकता है कि कल को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सचमुच कोई करिश्मा हो जाये, लेकिन आज का सच तो यही है कि वे एक मध्यम आकार के राज्य गुजरात के मुख्यमन्त्री हैं, जहाँ देश की 543 लोकसभा सीटों में से मात्र 26 सीटें हैं। गुजरात से बाहर अभी कायदे से उनका इम्तिहान होना बाकी है। फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइट्स पर उनकी लोकप्रियता और महानगरीय मिडिल क्लास नौजवानों की कतिपय प्रतिक्रियाओं के आधार पर यह कह देना कि पूरे हिन्दुस्तान में उनकी लहर चल रही है, कितनी तर्कसंगत है? सोशल साइट्स और महानगरीय नौजवानों से इतर देश के बहुसंख्य ग़रीबों-किसानों-मज़दूरों-आदिवासियों तक उनका संदेश पहुँच गया है क्या?

2.    दूसरी- कि नरेन्द्र मोदी के प्रशासकीय कौशल का पता भी अभी सिर्फ़ गुजरात में ही चल पाया है। केन्द्र के स्तर पर पार्टी संगठन में बेशक उन्होंने कुछ साल काम किये हैं, लेकिन न तो उन्हें संसदीय राजनीति का अनुभव है, न ही केन्द्र में कभी वे मन्त्री रहे हैं।

3.    तीसरी- कि गुजरात का विकास तो हो रहा है, पर क्या सर्वांगीण विकास हो रहा है? गुजरात के विकास से चमत्कृत कितने प्रतिशत लोगों ने गुजरात के दूर-दराज के इलाकों में जाकर इस विकास को महसूस किया है या सिर्फ़ मीडिया रिपोर्टों के आधार पर ही लोगों ने परसेप्शन बना लिया है? गुजरात के विकास में पहले कितना काम हुआ है और नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में कितना काम हुआ है? क्या सौराष्ट्र और कच्छ के इलाकों में लोगों को पीने का पानी मिल पा रहा है? ग़रीबों की सारी बेटियाँ क्या इतनी ब्यूटी कॉन्सस हो गयी हैं कि उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया है और कुपोषण का शिकार हो गयी हैं? सरदार सरोवर परियोजना के सारे विस्थापितों को न्याय मिल गया? दलितों और आदिवासियों की तकदीर कितनी बदली? कितने पूँजी निवेश का दावा किया गया और वास्तव में कितना पूँजी निवेश आया? ऐसे कई सवालों के जवाब तलाशे जाने चाहिये।

ऐसे ही बिहार में भी नीतीश कुमार ने मीडिया मैनेजमेन्ट के सहारे माहौल बना रखा था। ख़ुद मैं जब तक दिल्ली में था, तब तक लगता था कि नीतीश अच्छा काम कर रहे हैं। बिहार आता था, सड़कें देखकर लौट जाता था, स्कूल ड्रेस में साइकिल चलाती लड़कियों को देखकर खुशी होती थी, लेकिन जब यहाँ आकर अपनी आँखों से देखा तो महसूस हुआ कि शिक्षा व्यवस्था 65 साल के इतिहास में सबसे बुरे दौर में है। भ्रष्टाचार, नाइन्साफ़ी, पुलिसिया बर्बरता, अफसरशाही, मीडिया पर सेंसरशिप, पानी-बिजली की समस्या, इनसेफलाइटिस और डायरिया जैसी बीमारियों का कहर, अपराधियों-बाहुबलियों का बोलबाला इत्यादि न जाने कितनी मुश्किलें, लेकिन मीडिया-मैनेजमेन्ट के सहारे सब चकाचक था यहाँ। जब हमने एक-एक गाँव, एक-एक स्कूल, एक-एक अस्पताल से रिपोर्ट्स दिखायी, एक-एक दफ्तर का हाल दिखाया, ग़रीबों-मज़दूरों-किसानों का दर्द दिखाया, तो कलई उतरनी शुरू हुयी।

बहरहाल, “मोदी-उदय, आडवाणी-अस्त” की ऐसी पटकथा भाजपा के कार्यकर्ताओं को भले न अखरी हो, लेकिन उसके कई समर्थकों को अखर गयी लगती है। अगर यही सब कुछ सबकी रज़ामन्दी से हो गया होता, तो इतनी बातें नहीं होतीं। सोशल साइट्स पर मोदी के चाहे जितना पॉपुलर होने का दावा किया जा रहा हो, लेकिन भाजपा के वोटरों में एक पीढ़ी ऐसी भी है, जिसे आज भी आडवाणी से सहानुभूति है और उनके साथ ऐसे व्यवहार से वो हक्का-बक्का है। तीन दिन पहले तक मोदी के समर्थन में बोल रहे वोटर भी आडवाणी की अप्रत्याशित बेइज़्ज़ती को पचा नहीं पा रहे। ऐसे समर्थकों का मानना है कि अगर आडवाणी को प्रधानमन्त्री पद के लिये आगे करके मोदी को उप-प्रधानमन्त्री के लिये बढ़ाया जाये, तो पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह डबल हो जायेगा, दोनों धड़े सन्तुष्ट हो जायेंगे और भाजपा की सम्भावना बढ़ जायेगी। लेकिन पीएम की कुर्सी के लिये पार्टी में जैसा सिर-फुटौव्वल चल रहा है, उसे देखकर तो रोटी के लिये झगड़ती बिल्लियों और बन्दर की कहानी याद आती है। कहीं ऐसा न हो कि यह कुर्सी आडवाणी या मोदी तो क्या, भाजपा के किसी नेता को नसीब न हो।

बहरहाल, सरकार चाहे जिसकी भी बने, कुर्सी चाहे जिसे भी मिले, लेकिन एक बात और तय हो गयी है कि अगले चुनावों में भ्रष्टाचार और महँगाई के ख़िलाफ़ कुछ बातें ज़रूर होंगी, विकास के कुछ नारे ज़रूर होंगे, लेकिन ये मुख्यतः साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे ही लड़े जायेंगे। इसमें हिन्दुओं और मुसलमानों की बातें होंगी। टोपी और टीके की बातें होंगी। गुजरात दंगों से लेकर सिख दंगों तक की बातें होंगी। इस्लामिक आतंकवाद और भगवा आतंकवाद की बातें होंगी। साधुओं का समागम होगा, मौलवियों का मिलन होगा। ऐसी-ऐसी तकरीरें होंगी, जिनके बारे में आज हमलोग सोचना भी नहीं चाहते। आगे-आगे देखिए होता है क्या।  http://hastakshep.com से साभार

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