मोदी कोई असर नहीं पड़ रहा विधानसभा चुनावों में

n modi 450-320-शेष नारायण सिंह- पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आठ दिसंबर को आ जायेंगे। यह चुनाव भारत की राजनीति में उतना ही  महत्वपूर्ण है जितना जर्मनी में हुआ 1933 का चुनाव था। दोनों बड़ी कोई भी पार्टी इस चुनाव को सेमी फाइनल मानने को तैयार नहीं है लेकिन सच्चाई यह है कि विधानसभा  चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। मिजोरम का राजनीतिक महत्त्व उतना नहीं है जितना मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और राजस्थान का है। दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है जबकि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में सरकारें हैं। इन चार राज्यों में से जो पार्टी चार राज्यों में जीत जायेगी, उसका  चुनाव के लिये ऐसा माहौल बन जायेगा जिसे मई तक खिलाफ पार्टी  वाले रोक नहीं पायेगें।  अगर इन राज्यों में कोई पार्टी तीन राज्यों में जीत गयी तो उसके कार्यकर्ताओं के हौसले   बुलंद हो जायेगें और उनकी पार्टी को लोकसभा 2014 में लाभ मिलेगा। अगर दोनों ही बड़ी पार्टियाँ दो-दो राज्यों का हिस्सा पाकर सरकार बनाने में कामयाब हो गयीं तो इन चुनावों से साफ़ सन्देश आयेगा कि खेल यथास्थिति की तरफ  बढ़ रहा है और 2014 में भी बहुत परिवर्तन की उम्मीद नहीं रहेगी।  इसलिये इन चार राज्यों के चुनावों पर दुनिया भर के उन लोगों की नज़र है जो भारत के चुनाव को महत्वपूर्ण मानते हैं।

कांग्रेस का चुनाव प्रबन्धन नकारात्मक सोच के साथ शुरू हुआ है। बताया गया था कि राजस्थान में अशोक गहलौत के  खिलाफ सभी कांग्रेसी थे। गिरिजा व्यास, सी पी जोशी, सीसराम ओला, सचिन पायलट, सभी उनको हटवाना चाहते थे और उनकी हर योजना के अन्दर के असली भ्रष्टाचार को सार्वजनिक कर रहे थे। उनके खिलाफ माहौल इतना बिगाड़ दिया गया था कि जब पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अभियान शुरू किया तो उनकी सभाओं में लोग उमड़कर आ  रहे थे। लोगों को लग गया कि अशोक गहलौत से जान छुड़ा लेना ही सही रहेगा और कांग्रेसियों ने भी अपने आलाकमान को डराने के लिये वसुंधरा राजे की सभाओं में गुप्त रूप से मदद करना शुरू कर दिया। उधर भाजपा की तरफ से वसुंधरा राजे के समर्थन में सभी भाजपा नज़र आ रहे थे। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे के बीच सही मायनों में सुलह हो गयी हालाँकि पिछले कार्यकाल में राजनाथ सिंह को वसुंधरा राजे ने बहुत ही परेशान किया था। लेकिन पार्टी के हित को सर्वोच्च मानते हुये दोनों ही नेताओं ने उसे भुलाकर एकजुटता का सबूत दिया और भाजपा राजस्थान में अजेय लगने लगी। राजस्थान के भाजपा के बड़े नताओं, घनश्याम तिवाड़ी और गुलाबचंद कटारिया भी वसुंधरा राजे के साथ एकजुट नज़र आने लगे। जहाँ वसुंधरा राजे की सभाओं में लोगों का मेला दिखता था वहीं अशोक गहलौत की सभाओं में उतनी भीड़ नहीं होती थी। लेकिन उसके बाद अशोक गहलौत ने आम आदमी के लिये सरकार का खजाना खोल दिया और तरह-तरह की स्कीमें राज्य की जनता के लिये  लेकर आ गये। आजकल माहौल उनके पक्ष में  मुड़ता नज़र आ रहा है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे भारी पड़  रहे हैं। इस विषय की पड़ताल करने की कोशिश इस लेख में की जायेगी।

छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी ने ऐसा माहौल बना रखा था कि  साफ़ नज़र आ रहा था कि इस बार भी उनकी राजनीति का लाभ शुद्ध रूप से रमण सिंह को ही मिलेगा और कांग्रेस का अजीत जोगी फैक्टर राज्य में एक बार भाजपा को सत्ता सौंप देगा। ऐसा मानने के बहुत सारे कारण भी थे। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के प्रभारी महासचिव बी के हरिप्रसाद हैं। उनको कुछ महीने पहले सार्वजनिक मंच पर, अजीत जोगी ने अपमानित कर दिया था। माहौल ऐसा बन गया था कि लगता था कि अजीत जोगी कांग्रेस का खेल बिगाड़ देंगे। उन्होंने राज्य के कांग्रेस के नेतृत्व की अनदेखी करके अपनी तरफ से अखबारों में बयान देना शुरू कर दिया था। किसी भी कांग्रेसी को कुछ नहीं समझते थे और साफ़ लग रहा था कि वे कम से कम 15 सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों को हरा देंगे। ज़ाहिर है भाजपा और कांग्रेस के बीच बराबर की राजनीति के दौर में इतनी बड़ी संख्या में सीटों की हार के बाद कांग्रेस को रसातल में ही जाना था। लेकिन अब माहौल बदल गया है।  छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का काम देख रहे सी पी जोशी ने अजीत जोगी को राहुल गांधी के सामने पेश करके यह भरोसा दिलवा दिया है कि उनकी पत्नी और बेटे को टिकट दिया जा सकता है और राज्य में कांग्रेस का बहुमत आने की स्थिति में मुख्यमंत्री पद के लिये उनकी दावेदारी पर भी विचार किया जा सकता है।

बताते हैं कि राहुल गांधी ने जोगी को साफ़ बता दिया कि अगर पिछली बार की तरह कांग्रेस की आपसी सर फुटव्वल से रमण सिंह को फायदा पहुँचा तो अजीत जोगी को कोई लाभ नहीं होगा लेकिन अगर कांग्रेस की सरकार बनाने की स्थिति  आयी तो उनकी संभावना बढ़ जायेगी। बताया गया है कि इसके बाद अजीत जोगी कांग्रेस के उम्मीदवारों को जिताने के  लिये तैयार हो गये हैं। उनको यह भी बता दिया गया है कि उनके अपने परिवार के टिकटों के अलावा उनको और किसी को टिकट दिलाने के लिये प्रयास नहीं करना चाहिए क्योंकि इस बार टिकट एक फार्मूले के तहत दिये जा रहे हैं। उस हालत में किसी सिफारिशी का चांस अपने आप कम हो जायेगा।

पहली खेप में कांग्रेस ने बस्तर और आस-पास के इलाकों के लिये जो टिकट दिया है उस से इस तर्क को बल मिल रहा है। लेकिन मुकाबला भी रमन सिंह से है और वे भाजपा के सबसे काबिल मुख्यमंत्री हैं। भाजपा वालों को उम्मीद है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने के बाद पार्टी को बहुत फायदा होगा लेकिन छत्तीसगढ़ में नरेन्द्र मोदी का असर ऐसा नहीं है कि चुनावी राजनीति पर कोई फायदा हो।  नरेन्द्र मोदी समाज के जिन वर्गों को प्रभावित कर सकते हैं, रमन सिंह का प्रभाव उन वर्गों पर मोदी से ज़्यादा है। इसलिये छत्तीसगढ़ में नरेन्द्र मोदी का अगर कोई असर हुआ भी तो वह उन्हीं वोटों पर होगा जो पहले से ही रमण सिंह के कारण भाजपा के साथ हैं।

छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के कांग्रेस अभियान में सही मन से शामिल होने के बाद बहुत कुछ बदल रहा है। उनका प्रभाव आदिवासी इलाकों में बहुत ज़्यादा है। उनके रिश्ते माओवादियो से भी बहुत अच्छे हैं। पिछली बार उन्होने घोषित कर दिया था कि वे कुछ कांग्रेसी उम्मीदवारों को हरायेंगे। रमण सिंह ने भी माओवादियों को साध लिया था। नतीजा यह हुआ कि अजीत जोगी और रमण सिंह की नाराज़गी के कारण कांग्रेस बस्तर की 12 सीटों में केवल एक सीट जीत पायी। वह भी ऐसी सीट है जिस पर जोगी का ख़ास आदमी लखमा कवासी उम्मीदवार था। इस बार कांग्रेस को उम्मीद है कि वह माओवादियों को अपने साथ ले पायेगी और उनकी कृपा से बस्तर में अपनी सीट संख्या बढ़ायेगी। अजीत जोगी भी इस बार कांग्रेसी उम्मीदवारों को हराने से परहेज़ करेंगे तो बस्तर में चुनावी राजनीति बदल सकती है। गौर करने की बात है कि बस्तर में ग्यारह सीटें जीतकर भाजपा ने सरकार बना ली थी वरना बाकी राज्य में तो कांग्रेस और भाजपा बराबरी पर ही थे। इसलिये छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन की दस्तक साफ़ नज़र आ रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि अगले कुछ हफ़्तों में दोनों ही राजीतिक पार्टियाँ कितनी और कैसी गलतियाँ करती हैं।

जब इन पंक्तियों के लेखक ने अगस्त के महीने में राजस्थान की हालात का जायजा लिया था तो वहाँ कांग्रेस की हालत अच्छी नहीं थी। कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिये वसुंधरा राजे ने ज़बरदस्त अभियान चला रखा था। वे राजस्थान सरकार को नाकारा साबित करने में जुटी हुयी थीं, जहाँ भी जा रही थीं, उनका स्वागत हो रहा था। वसुंधरा राजे जाति के गणित में भी वे जाटों और राजपूतों में अपनी नेता के रूप में पहचानी जा रही हैं। राजनाथ सिंह के कारण पूरे उत्तर भारत में राजपूतों का झुकाव भाजपा की तरफ है उसका फायदा भी उनको मिल रहा था। अब भी जाटों का पूरा समर्थन भाजपा को ही मिल रहा है। मुज़फ्फरनगर में नरेन्द्र मोदी के साथी और भाजपा के महामंत्री अमित शाह की जाटों में हुयी लोकप्रियता का लाभ राजस्थान में भाजपा को मिल रहा है। लेकिन अब राजस्थान में हालात बदल रहे हैं। कांग्रेस के दिल्ली वाले नेताओं को राहुल गांधी ने समझा दिया है। सबको बता दिया गया है कि उनकी सिफारिश पर किसी को टिकट नहीं दिया जायेगा। राहुल गांधी का दावा है कि वे राजस्थान की राजनीति अच्छी तरह समझ गये हैं और वे ही टिकट का फाइनल फैसला लेंगे।

अब तो यह बात भी सामने आ रही है कि घनश्याम तिवाड़ी और गुलाब चंद कटारिया भी पूरे मन से वसुंधरा राजे के साथ  नहीं हैं। मैंने अगस्त में राजस्थान में कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब देखी थी लेकिन अब मैं भी राय बदलने पर मजबूर हूँ।  मैं अब यह पक्के तौर पर कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि  अशोक गहलौत हार जायेंगे या वसुंधरा राजे जीत जायेगी क्योंकि पिछले तीन महीने में राजनीतिक समीकरण बहुत तेज़ी से बदल गये हैं। अब राजस्थान के कांग्रेसियों ने अशोक गहलौत को हराने की अपनी योजना को तर्क कर दिया है।  राजस्थान की ऊँची जातियों में भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का असर भी पड़ रहा है लेकिन अशोक गहलौत भाजपा को वाक्ओवर देने को तैयार नहीं है। अब लगने लगा है कि किरोड़ी लाल बैंसला और किरोड़ी लाल मीना आदि के सारे  राजनीतिक फैक्टर ऐसी हालात पैदा कर सकते हैं कि राजस्थान में वसुंधरा राजे का सपना पेंडिंग हो जाये।

शेष नारायण सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वह इतिहास के वैज्ञानिक विश्लेषण के एक्सपर्ट हैं। नये पत्रकार उन्हें पढ़ते हुये बहुत कुछ सीख सकते हैं।
शेष नारायण सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वह इतिहास के वैज्ञानिक विश्लेषण के एक्सपर्ट हैं। नये पत्रकार उन्हें पढ़ते हुये बहुत कुछ सीख सकते हैं।

इस साल विधानसभा चुनाव वाले दो अन्य राज्य हैं मध्य प्रदेश और दिल्ली। दिल्ली में कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने विकास का काम किया है। लेकिन कांग्रेस ने उनको कमज़ोर कर दिया और उनके विरोधी अजय माकन को मज़बूत कर दिया। इसके बावजूद भी दिल्ली में कांग्रेस कमज़ोर नहीं है। सबसे बड़ा फैक्टर तो अन्ना हजारे के आन्दोलन वालों का कांग्रेस विरोधी वोटों को बाँट देने का फैसला है जब अन्ना हजारे की रामलीला मैदान वाली लीला चल रही थी तो भाजपा समेत सबको उम्मीद थी कि कांग्रेस के खिलाफ माहौल बन गया था जिसका चुनावी लाभ भाजपा को होगा। भाजपा प्रवक्ता लोग अन्ना हजारे के सद्गुण गिनाते नहीं थकते थे। लेकिन अब बात बदल गयी है।  भाजपा का आरोप है कि अन्ना हजारे के मुख्य शिष्य अरविन्द केजरीवाल की पार्टी वास्तव में कांग्रेस की बी टीम है और वह भाजपा के हितों के खिलाफ काम कर रही है।  जबकि अरविन्द केजरीवाल की पार्टी वाले कहते हैं की वे भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ फेंकने के लिये कटिबद्ध हैं।  बहरहाल सच्चाई यह है कि अन्ना हजारे के चेलो की पार्टी की कृपा से आज शीला दीक्षित बहुत मज़े में हैं और भाजपा में चिंता है। उस चिंता को दिल्ली प्रदेश के स्तर पर जारी आपसी दुश्मनी ने बहुत बढ़ा दिया है। विजय गोयल और हर्षवर्धन के झगड़े ने भाजपा को भारी नुकसान पहुँचाया है और शीला दीक्षित का रास्ता आसान कर दिया है।

मध्यप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति सबसे ज़्यादा खराब थी लेकिन अब हालात बदल गये हैं। वहाँ अब ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी का चेहरा बनाकर पेश कर दिया गया है।  बताया गया है कि राहुल गांधी के आग्रह पर दिग्विजय सिंह और कमल नाथ सिंधिया को पूरा समर्थन दे रहे हैं। कमल नाथ को सारा आर्थिक प्रबन्ध संभालना है। दिग्विजय सिंह का दिमाग काम कर रहा है और ज्योतिरादित्य सिंधिया की साफ़  छवि को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है।  मध्य प्रदश में कांग्रेस ही चाहती है कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बना दिया जाये क्योंकि वहाँ भ्रष्टाचार के सारे किस्से भाजपा को कमज़ोर करते हैं। बताया जाता है कि एमबीबीएस के कोर्स में प्रवेश की हेराफेरी में पकड़े गये डॉ. पंकज त्रिवेदी के कॉल डिटेल से पता चला है कि वे दिन में कम से कम बीस बार मुख्यमंत्री के घर फोन करते थे। ऐसे ही बहुत सारे लोगों की लिस्ट केंद्र सरकार के पास है जिनके कारण राज्य की भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के बैज आसानी से चस्पा किया जा सकता है।

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री, शिवराज सिंह अपने को नरेन्द्र मोदी से ज्यादा काबिल मानते हैं। इसलिये मोदी के समर्थक भी आजकल शिवराज सिंह चौहान को बहुत भाव नहीं दे रहे हैं।   आरएसएस वाले  भी शिवराज सिंह चौहान से नाराज़ बताये जाते हैं क्योंकि उन्होंने पूर्व वित्तमंत्री राघवजी के साथ जिस तरह का व्यवहार किया उसे नागपुर पसंद नहीं कर रहा है। जब अगस्त में मैंने इन चार राज्यों की राजनीतिक सम्भावना का आकलन किया था तो मैंने साफ़ कह दिया था कि चारों ही राज्यों में कांग्रेस की हालत खराब थी लेकिन आज हालात बदल गये हैं। भाजपा और कांग्रेस में कोई भी किसी पर भारी नहीं है। आने वाले कुछ हफ्ते बहुत दिलचस्प होंगे और 8 दिसंबर को अपने आकलन का नतीजा देखने का मौक़ा सबको मिलेगा।  http://www.hastakshep.com

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