शो मस्ट गो ऑन

-अब्दुल रशीद-  दिल्ली दरियागंज यूँ तो बेहद गतिशील इलाका जहां ठहराव का नामोनिशां तो दूर दूर तक नजर नहीं आता है. लेकिन मुझे तो वहीँ ठहराना था, मिलाना था ऐसे इंसान से जिसकी कलपना में चमक दमक भरी दुनियाँ का शोरगुल नहीं, जिसकी तपस्या में समन्दर सी गहराई तो दिखी लेकिन कोई मेनका नहीं.उसकी सोंच अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य पर टिका था.उसमे न तो बादशाह बनाने की ख्वाहिश दिखी और न ही गुलाम बनकर जिंदगी जीने की आदत दिखी.
बहरहाल जब मैंने फोन किया भाई साहब मुझे आपसे मिलाना है तो उन्होंने कहा कल मिलते हैं. मैंने कहा मैं दरियागंज में हूँ तो उन्होंने कहा ठीक है पास वाली गली में आप बैंक के पास चले आइए मैं आप से मिल लेता हूँ. मुलाक़ात हुई साथ में चाय पीया चाय पीने के दौरान हम लोग बात करते रहें चाय ख़त्म हो गई और हम चहल कदमी करते हुए पहुँच गए एक पान कि दूकान पर उसने बिना कुछ कहे एक पान खिलाई और एक बाँध दिया.बाते करते हुए हमलोग पहुँच गए भाई साहब के दौलत खाने में.पहली नजर में समझ में आगया क्या क्या नायाब चीज छुपा रखा है. इनके दौलत खाने में छोटा सा दफ्तर, बालकनी के सामने निर्जीव क़स्बा और अन्दर सिंगल बेड कई कहानीयां बयां कर रही थी. बार बार सवालों के तीर भेदने पर वह गंभीर विषय पर तो चर्चा करते रहें लेकिन न तो चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन दिखा, न ही आवाज़ में कोई बदलाव नज़र आया. बातों बातों में गुजरे हुए समय में उन पलों में कहीं खो जाते हैं. जिसका दुःख तो है लेकिन अफसोस नहीं. शायद कोई आम आदमी इतना कुछ गवां कर कब का जहाने पानी को अलविदा कह देता लेकिन उनकी रूहानी सोंच जिंदगी को जीने और गम को पी कर आगे बढ़ने के लिए हौंसला देता रहा.बात बात में उन्होंने अपने जीवन के ऐसे स्मृतियों का भी जिक्र किया जिसको मैं चाह कर भी यहाँ नहीं लिख रहा हूँ ऐसा नहीं के मुझे मना किया गया हो लेकिन मुझे लगता है कुछ चीज यदि पर्दे में रहें तो ज्यादा खुबसूरत होता है.”लोग कहते है यह शहर है लेकिन मेरा दिल है जो कभी इस बात को मानता ही नहीं,मुझे तो यह क़स्बा सा लगता है”.मुहब्बत कभी हुई नहीं और दुशमनी के लिए वक्त ही नहीं.इन चंद लफ्जों मानों उनहोंने अपनी जिन्दगी की दास्तां को समेंटने कि कोशिश की हो.अक्षर धाम मंदिर से लौटकर जिस शीर्षक को चुना वह कब मकसद बन गया और मकसद कब मिशन बन गया पता ही नहीं चला.इसे वह इत्फ़ाक मानते तो आज मंजर कुछ और ही होता, लेकिन न तो उनका मन इसे इतफ़ाक मानने को तैयार है और नहीं कुदरत ने अबतक उनके जीवन में ऐसा कोई करिश्मा ही किया जो उनके इरादे को डगमगा दे.वैसे भी नींव की ईंट को न तो उजाला नसीब होता है और न ही तारीफ़.हां जब निर्जीव कौम अपने किए कर्मों में उलझ जाता है तब इतिहास को टटोलता है और इन्हीं नींव की ईंटो में अपने बेजान सवालों को ढूंढता है,तब उसे कंगूरे की खूबसूरती याद नहीं आती,याद आता है तो बस अंधेरे में डूबी नींव जिस पर टिका होता ख्वाहिंशो का महल.वैकल्पिक मिडिया को शोषित समाज कि आवाज़ बनाने के लिए बहुत कुछ करना अभी बाकी है.क्योंकी यदि सही दिशा में कदम नहीं उठाए गए तो कब यह मिडिया भी शोषित समाज से छिन जाएगा पता ही नहीं चलेगा.वैकल्पिक मिडिया के चमत्कार के बारे में बात करते वक्त उनके आँखों में फ़तह की चमक दिखी मानो यह संजीवनी बहुत बड़ा चमत्कार कर सकता है.लेकिन दुसरे पल इस मिडिया का गलत इस्तामाल किए जाने की सोंच उनके माथे पर लकीरें खींच दी. चेहरे पर ऐसा बदलाव तब नहीं दिखा जब बाते कर रहे थे, अपने निजी जीवन की .यह तपस्या है, प्रेम है, या कर्म मुझे नहीं मालुम लेकिन जब मैंने पुछा आखिर संजय तिवारी की मंजिल क्या है तो जवाब था वैकल्पिक मीडिया को शोषित समाज की आवाज़ बनाने के लिए शिद्दत से कोशिश करना बीच में टोकते हुए जब मैंने सवाल किया विस्फोट डॉट कॉम की मंजिल क्या तो जवाब मिला विस्फोट होकर इतने टुकरे में बिखर जाए के जहां मेरी नजर पड़े वहां शोषित समाज की आवाज़ बुलंद हो.मुझे विस्फोट के टुकरे होने पर उतना गम नहीं होगा जितना वैकल्पिक मीडिया के विकास पर ख़ुशी होगा. बातों बातों में वक्त कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला

अब्दुल रशीद
अब्दुल रशीद

हम लोग फिर उसी चाय की दुकान पर आ गए और चाय पी अब चाय का मजा भी बदल चुका था और मेरा मिजाज भी मिलने का वायदा कर जब चला तो यह गीत के बोल सुनाई दी- प्यार से भी जरुरी कई काम है, प्यार सब कुछ नहीं जिंदगी के लिए. कुदरत का निजाम समझने के लिए इशारा काफी होता है.यानी रौशनी देने वाले चिराग के तले उजाला कभी नहीं होता लेकिन चिराग के बिना अँधेरा मिट भी नहीं सकता.

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