जीतकर भी हार गई भाजपा

sundar lohiya-सुन्दर लोहिया- जिन चार राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए उनमें राजस्थान मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ देश के बीमारु राज्य कहलाते हैं। इन राज्यों में विकास की अपेक्षा जाति को देश के बजाय धर्म को महत्व दिया जाता है। दिल्ली देश की राजधानी होने के साथ प्रबुद्ध और जागरूक जनता का केन्द्र माना जा सकता है। इसलिए दिल्ली के जनादेश को 2014 के लोक सभा चुनाव का संकेत मानना अव्यावहारिक नहीं होगा। यह एक ऐसा संकेत है जिसके निहितार्थ स्पष्ट हैं। भारतीय जनता पार्टी यहां जीत कर भी हार गई है। जनता ने एक ऐसा जनादेश दिया जो आगामी लोक सभा चुनाव का छायाभास है। राजनीतिक दलों के लिए सांप छछूंदर वाली स्थिति बन गई है जो न तो उगली जा रही है न ही निगली जा सकती है।
इन जनादेश के निहितार्थ समझने में जो पार्टी ग़लती करेगी उसे इससे भी बुरी स्थिति का सामना पड़ सकता है।
लोकसभा चुनाव में लाल किले पर मोदी द्वारा ध्वजारोहण का सपना कुछ ऐसी स्थितियों में उलझ सकता है जिसमें सबसे बड़ी पार्टी बन जाने के बावजूद सिंहासन तक पहुंच न बन पाये। इसकी सम्भावना नज़र आती रही है कि भाजपा का प्रधानमन्त्री पद का घोषित उम्मीदवार देश के अन्य क्षेत्रीय दलों को स्वीकार नहीं है। भाजपा को उम्मीद है कि एक सौ सत्तर का आंकड़ा यदि भाजपा अकेले प्राप्त कर ले तो केन्द्र में सत्तासीन हुआ जा सकता है। इस आकलन के मुताबिक देश की मुख्यधारा की दोनों पार्टियों को तीन सौ के लगभग सीटें देने के बाद दो सौ चालीस सीटों पर अन्य दलों की जीत दिखाई गई है। यह आंकड़ा दिल्ली के चुनाव के परिणाम के बिलकुल नज़दीक का आंकड़ा है। इस स्थिति में नरेन्द्र मोदी को ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ सकता है जिसे दिल्ली के घोषित मुख्यमन्त्री भुगत रहे हैं ।
सवाल है जनता ने ऐसा जनादेश क्यों दिया? क्या जनता अस्थिर सरकार के पक्ष में है या जनता मुख्यधारा की दोनों पार्टियों से निराश हो चुकी है? भाजपा के सुशासन का नारा और कांग्रेस के सर्वसमावेशी विकास का राग जनता ने क्यों अनसुना कर दिया? क्या जनता को लगता है कि भाजपा का सुशासन और कांग्रेस के विकास का दावा किसी काम का नहीं है ? वास्तव में यह दोनों दलों से जनता के मोह भंग का स्पष्ट संकेत भी हो सकता है। लेकिन दिल्ली के मतदाताओं ने किसी को भी सत्ता का सही वारिस नहीं ठहराया। ऐसी जटिल स्थिति में संसदीय चुनाव के बाद ताजपोशी के लिए अंग्रेजी कहावत के मुताबिक काला घोड़ा अवतरित हो सकता है। उसके लिए सिक्किम के मुख्य मंत्री पवन चिमलिंग का नाम भी प्रस्तावित कर दिया है। यहां भी ध्यान देने योग्य बात यह है कि काला घोड़ा भी उन्हें वही नज़र आया जो भाजपा और कांग्रेस का विरोध कुछ वैसे ही कर रहा है जैसे दिल्ली में केजरीवाल यानि विचारधारा विहीन राजनीति और वित्तीय पूंजी आधारित विकास।
इस तरह के बदलाव से सरकार का चेहरा ज़रूर बदल जाता है लेकिन चरित्र वही रहता है और जनता अगले चुनाव में नई सरकार चुनने में व्यस्त हो जाती है। यह लगभग वही मॉडल है जिसे नरेन्द्र मोदी वाईब्रैण्ट गुजरात के नाम से प्रचारित कर रहे हैं। वे उद्योगपतियों को निवेश करने के नाम पर राज्य के संसाधन के अनियमित दोहन के अवसर जुटा कर यह सिद्ध करता है कि उसके यहां निवेश हो रहा है इसलिए विकास हो रहा है। पर वह विकास कहीं दिखता नहीं। विकास का दूसरा मॉडल भी है जिसमें जनता के संसाधनों पर उनकी सहमति और भागीदारी से सर्वसमावेशी विकास की नींव रखी गई है जो अभी पूरी तरह विकसित नहीं हो पाई है इसलिए दिख भी नहीं रही है लेकिन उसमें शिरकत करने वाली जनता उसे महसूस ज़रूर करती है। मीडिया ने उसे अपने विमर्श के दायरे से बाहर कर दिया है ताकि देश की मौजूदा परिस्थितियों में उस तक जनता की नज़र पहुंचने ही न दी जाये।
सवाल है कि जो लोग संसदीय चुनाव में काले घोड़े के तौर पर सिक्किम पंहुच गये उन्हें त्रिपुरा क्यों नज़र नहीं आया ? वहां भी विकास हो रहा है तभी तो जनता उस सरकार को चौथी बार बहुमत दे चुकी है। वहां का विकास क्योंकि वंचित व उपेक्षित तबकों का विकास है जिसे कारपोरेट समर्थित मीडिया और कारपोरेट पोषित राजनीतिक दल सामने नहीं लाना चाहते। उनका सिंहासन डगमगाने लगता है। पर आगामी लोकसभा चुनाव विगत सदी की राजनीतिक ग़लतियों के नासूर प्रकट करके उनके आपरेशन की ज़रुरत को लेकर ही लड़े जायेंगे। यह ठीक है कि जनता विकास चाहती है। वह जाति धर्म और क्षेत्र की राजनीति से आजि़ज आ चुकी है। लेकिन आप पार्टी आलोचना की राजनीति कर रही है। वह जवाबदेही वाली राजनीति से कतरा रही है। यह ठीक है कि वर्तमान परिस्थितियों में स्थाई सरकार दे पाना सम्भव नहीं है। फिर भी आप दूसरी बड़ी पार्टी के तौर पर इस जिम्मेवारी को लेकर सिद्ध करे कि वह शासन की जिम्मेवारी से विमुख नहीं है। वह केशिश करे यदि असफल हो जाये तो अपनी असफलता का ठीकरा विपक्ष के सर पर फोड़ कर अपनी विश्वसनीयता को बचा सकती हैं। लेकिन उसके कानूनी सलाहकार ही जब उसे भाजपा को सहयोग देने की बात कर रहे हैं तो मतदाता निश्चित तौर पर पूछेंगे कि यह तो बदलाव नहीं है जिसके लिए उन्होंने वोट दिया है। कांग्रेस को कहने का मौका मिलेगा कि उसे तो मालूम था कि आप भाजपा की सहोदर पार्टी है दिल्ली ने इसकी पोल देश के सामने खोल कर कांग्रेस को आने वाले संसदीय चुनाव में जीत का भरोसा दिला दिया है। http://www.hastakshep.com

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