महाराजा छत्रसाल धामगमन दिवस पर विशेष आलेख

chattur_sal-डॉ. जयप्रकाश शाक्य– महाराजा छत्रसाल बहुमुखी प्रतिभा के धनी, वेद, ब्राह्ममण और गौरक्षक, उदार हृदय, दानी, शूरवीर, कला-काव्य प्रेमी, यशस्वी प्रजापालक, धर्मध्वजवाहक, स्वतंत्रता के परम समर्थक, महामति प्राणनाथ पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाले, बुन्देखण्ड नरवीरकेशरी, साकुण्डल सखी के अवतार, कुशल राजनीतिज्ञ एवं परमयोद्धा थे। वे मध्य युग में बुन्देलखण्ड राज्य के संस्थापक थे। श्रीकृष्ण प्रणामी निजानन्द सम्प्रदाय में महाराजा छत्रसाल का वही स्थान और सम्मान है जो स्थान और सम्मान श्रीराम भक्तों में श्री हनुमान जी का है। जहाँ जहाँ महामति प्राणनाथ की पूजा एवं जयघोष होता है वहाँ वहाँ महाराजा छत्रसाल की पूजा एवं जयघोष होता है। आतताइयों से रक्षा, प्राणियों का दुःख निवारण, अपने आचरण से दूसरों को चलने के लिए प्रेरित करना, आदर्श राज्य की स्थापना, स्वयं दुःख उठाकर भी प्रजा के प्रति समर्पित प्रजापालक का भाव रखना ही श्रेष्ठ राजधर्म है, जिसका निर्वाह छत्रसाल ने आजीवन किया।
महाराजा छत्रसाल का जन्म वि.सम्वत् 1706 (सन् 1649) में ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया दिन शुक्रवार को ईश नक्षत्र (आर्द्रा) में लाड़कुँवरि के गर्भ से हुआ था। आपके पिता का नाम चम्पतराय था। आपकी जन्मपत्री में सवैया लिखा गया-
उदय में राजै, अग्र मंगल विराजै,
जहाँ बल को शुक्र शनि सहित विहार है।
बुध अरि नाशै, रवि राहु प्रजा को प्रकाशै,
लाभ करै सुर गुरू अमित अपार है।।
सत्रह सै को विलम्बी नाम संवत जेठ,
तिथि तीज सित पक्ष सितवार है।
शिव के नक्षत्र में बख्तबली छत्रसाल,
लीनों नरनाह आय करकै अवतार है।।

समस्त ग्रह, नक्षत्र, योग संघर्षपूर्ण जीवन किन्तु अपराजेय व्यक्तित्व की ओर संकेत करते हैं। महाराजा छत्रसाल का जीवन सदा ही संघर्षपूर्ण रहा। विपरीत परिस्थितियों के कारण 4 वर्ष की अवस्था में माँ के साथ ननिहाल दैलवारा में रहे। 7 वर्ष की अवस्था से प्रतिदिन मन्दिर जाना प्रारम्भ किया। छोटी आयु में तलवार और बरछी चलाना सीख। 12 वर्ष की आयु में 07 नवम्बर 1661 ई. में साहिबराय के हाथों पिता चम्पतराय का सिर काटकर औरंगजेब के समक्ष पेश किया गया। उसी समय माँ लाडकुँवरि ने स्वयं कटार भौंककर अपना प्राणोत्सर्ग किया। 1664 में बेरछा की परमार कन्या देवकुँवर के साथ छत्रसाल का विवाह हुआ। सन् 1667 ई. को छत्रसाल ने देवगढ़ के किले पर शाही झंडा फहराया। लड़ाई में घायल हुए। उनके घोड़े ‘भले भाई‘ और कुत्ता ‘कबरा‘ ने साथ दिया। सतारा में शिवाजी से भेंट की। 1670 ई. में छत्रसाल वापस बुन्देलखण्ड आये। अपने जीवनकाल में छत्रसाल ने 252 बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी और अजेय रहे। बुन्देलखण्ड के जनमानस में आज भी ये पंक्तियाँ गूँजती है –
छत्ता तेरे राज में, धक धक धरती होय।
जित जित घोड़ा मुख करे, उत उत फत्ते होय।।
इत जमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस।।

वि. संवत 1740 माघ शुक्ल पूर्णिमा को महाराजा छत्रसाल और महामति प्राणनाथ की भेंट मऊसहानियाँ के तिंदनी दरवाजे पर हुई। महामति ने छत्रसाल को तारतम मंत्र देकर प्रणामी धर्म में दीक्षित किया और जागनी कार्य का संकल्प कराया। वि. संवत 1787 को महामति प्राणनाथ ने छत्रसाल का राजतिलक किया तथा हीरों, वीरों और अपराजेय होने का आशीर्वाद दिया। छत्रसाल ने महामति का शिष्यत्व स्वीकार किया। पन्ना में राजधानी बनायी। महामति प्राणनाथ ने पन्ना में मुक्तिपीठ की स्थापना की। पन्ना प्रणामी धर्म और संस्कृति का सबसे बड़ा केन्द्र बना। प्रणामी धर्म में महामति प्राणनाथ को श्रीराज के रूप में आराध्य माना गया तो छत्रसाल को साकुण्डल अवतार माना गया। गुरू-शिष्य की यशगाथा प्रणामी धर्म के पूजा-पाठ में सर्वत्र देखी जा सकती है। ‘‘छत्रसाल महावली, करियो भली भली‘‘ कहकर उन्हें पूज्यनीय माना गया। किसी ने ठीक ही लिखा है कि छत्रसाल महाराज का नाम ही कल्याणकारी है-
सिद्ध लेत साधु लेत, जती और सती लेत,
लेत फल पावै ज्यों दर्श नन्दलाल को।
राजा लेत राव लेत साहू सहजादे लेत,
प्रातः उठ नाम लेत, वीर छत्रसाल को।।
गंगा त्रिपथ गामिनी जैसी, छत्रसाल की कीरति वैसी।
तौ गुन छत्रसाल के गैये, कैयक सहस जीभ जो पैयै।।

दिग्विजयी महाराजा छत्रसाल को पौष शुक्ल तृतीया वि. संवत 1788 सोमवार का धामगमन हुआ। महाराजा छत्रसाल आज भले ही भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं परन्तु उनके गौरवपूर्ण कार्य एवं धर्मनिष्ठ छवि जनमानस में सदा रही है और सदा बनी रहेगी। सुयश अमर कीरति अमर, करनी अमर विशाल।
मुख कहत तेई मुए, सदा अमर छत्रसाल।।

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