कैसे राष्ट्रीय स्वयंसेंवक संघ से जुड़ने ने मेरे जीवन को सार्थकता प्रदान की

adwani blogगत् सप्ताह 2 फरवरी को खुशवंत सिंहजी ने अपने अत्यन्त सक्रिय जीवन के निनयान्वें वर्ष पूरे किए। इस अवसर पर मैं, सुजान सिंह पार्क स्थित उनके आवास पर गया और ‘माई टेक‘ (My Take½ शीर्षक से प्रकाशित अपने ब्लॉगों के संग्रह की दूसरी पुस्तक उन्हें भेंट की, जिसका लोकार्पण सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने किया था। यह लोकार्पण कार्यक्रम फिक्की सभागार में हुआ जिसकी अध्यक्षता लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज ने की थी। पूज्य बाबा रामदेवजी ने भी कार्यक्रम को संबोधित किया था। पुस्तक पर मेरे हस्ताक्षरों के साथ इस महान लेखक को इन शब्दों में सम्मानपूर्वक प्रणाम अंकित था: सौवें वर्ष में प्रवेश करने पर सरदार खुशवंत सिंह का अभिनन्दन।

उस शाम उनके घर पर कोई औपचारिक कार्यक्रम नहीं था। वहां खुशवंत सिंहजी के पारिवारिक सदस्यों और मित्रों के एक छोटे से समूह का अनौपचारिक मिलन था। उनमें से एक कलाकार थे, गुजरात के वृंदावन सोलंकी। अपने ‘पैड‘ पर उन्होंने पैसिंल से कुछ ही मिनटों में उस शाम के मुख्य अतिथि का रेखाचित्र ऊकेर दिया। खुशवंत सिंहजी के सुंदर रेखाचित्र से प्रभावित मेरे सहयोगी दीपक चोपड़ा ने सोलंकी से पूछा कि क्या वह ऐसा ही रेखाचित्र मेरा भी बना सकते हैं। कलाकार ने तुरंत बना कर दिया। दोनों रेखाचित्र इस ब्लॉग में दिए गए हैं।

जब 1942 में, मैं राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ का स्वयंसेवक बना और वह भी सिंध में,तब वहां बहुतों ने इस संगठन का नाम भी नहीं सुना था।

मेरी जीवनी ‘मेरा देश, मेरा जीवन‘ के पहले चरण के अध्याय 3 का शीर्षक है:”सिंध में मेरे पहले बीस वर्ष”ए इसके जिस अनुच्छेद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मेरे जुड़ने का उल्लेख है, वह निम्न है:

”हर एक बचपन में एक क्षण ऐसा आता है जब दरवाजा खुलता है और भविष्य प्रवेश करता है। मेरे मामले में भविष्य में दाखिल होने का वह क्षण अचानक खेल-खेल में ही आ गया, जब मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रवेश लिया। उस समय मैं चौदह वर्ष और कुछ महीने का था। मेरे मैट्रिकुलेशन करने के बाद मेरे पिता कराची से हैदराबाद (सिंध) आ गए थे। कॉलेज में प्रवेश लेने से पहले गरमी की छुट्टियों में मैंने टेनिस खेलना शुरु कर दिया। टेनिस कोर्ट में मेरे नियमित जोड़ीदारों में से एक मेरा मित्र था मुरली मुखी, जो मेरी ही उम्र का था। एक दिन ठीक खेल के बीच वह बोला, ‘मैं जा रहा हूं।‘ बड़े आश्चर्य से मैंने उससे पूछा तो वह बोला, ‘कुछ दिन पहले मैं आर.एस.एस. का स्वयंसेवक बन गया हूं। मैं शाखा में देर से नहीं पहुंच सकता, क्योंकि उस संगठन में समय की पाबंदी अत्यंत आवश्यक है।‘

मेरी पुस्तक की कुछ समीक्षाओं में मेरे संस्मरणों के अंतिम अध्याय को (अध्याय18, उपसंहार से पहले) सर्वोत्तम वर्णित किया गया है। इस अध्याय का शीर्षक है:”जीवन में सार्थकता एवं सुख की खोज”। इस अध्याय का संदर्भ एक अत्यंत दिलचस्प रोमहर्षक उपन्यास ‘दि इंटरप्रिटेशन ऑफ मर्डर से लिया गया है, जिसे अमेरिका के येल विश्वविद्यालय के विधि प्रोफेसर जेड रुबेनफेल्ड ने लिखा है। लेखक लिखते हैं ” सुख का कोई रहस्य नहीं है। सभी दु:खी व्यक्ति एक जैसे ही होते हैं। बहुत समय पहले कोई मन को चोट लगी हो, कोई इच्छा पूरी न हुई हो, अहम को ठेस पहुॅची हो, प्रेम का नव अंकुर जिसका मजाक उड़ाया गया हो-या इससे भी बदतर, उनके प्रति उदासीनता दिखाई गई हो-ये उन दु:खी व्यक्तियों से चिपके रहते हैं, या वह उनसे चिपका रहता है। और इस तरह दु:खी व्यक्ति हर दिन गुजरे जमाने की यादों में बिताता है। लेकिन प्रसन्न व्यक्ति कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखता,और न ही वह आगे की सोचता है। वह तो सिर्फ वर्तमान में ही जीता है। लेकिन इसी में तो अड़चन है। ”वर्तमान कभी भी एक चीज नहीं दे सकता: सार्थकता। सुख और सार्थकता दोनों का एक मार्ग नहीं होता। सुख पाने के लिए मनुष्य को केवल वर्तमान में रहना होता है: उसे केवल उस क्षण के लिए जीना होता है। लेकिन यदि वह सार्थकता चाहता है-अपने स्वप्नों की, अपने रहस्यों की, अपने जीवन की सार्थकता-तो मनुष्य को अपने अतीत में पुन:प्रवेश करना होगा, भले ही वह कितना भी अंधकारमय क्यों न रहा हो; और उसे भविष्य के लिए जीना होगा, भले वह कितना ही अनिश्चित हो। इस प्रकार, प्रकृति हम सबके सामने सुख और सार्थकता का विकल्प रखती है, इस आग्रह के साथ कि हम दोनों में से किसी एक को चुन लें।” जहां तक मेरा सवाल है, मैंने सार्थकता को चुना है।

यद्यपि इस उपन्यास में दावा किया गया है कि मनुष्य को जीवन में या तो सार्थकता प्राप्त होगी या सुख; लेकिन मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे दोनों ही भरपूर मात्रा में मिले हैं। जब मैं अपने जीवन के आठ दशकों का सिंहावलोकन करता हूं तो मुझे स्मरण आता है कि मैंने अपने जीवन की सार्थकता हैदराबाद (सिंध) के टेनिस कोर्ट में पाया, सन्1942 में जब मैंने पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुना और स्वयंसेवक बना। मुझे तब सार्थकता लगी जब मैंने कराची में स्वामी रंगानाथन के भगवद् गीताके प्रवचन रविवार की शाम को सुनने शुरु किए। मैंने सार्थकता तब पायी जब मैं घर और परिवार छोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रुप में काम शुरु किया, पहले कराची में और बाद में विभाजन के फलस्वरुप विस्थापित होने पर राजस्थान में। यह सार्थकता और परिष्कृत तब हुई जब मैंने पचपन वर्ष पूर्व भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता के रुप में राजनीतिक यात्रा शुरु की। यह यात्रा अभी  समाप्त नहीं हुई है। साढ़े चौदह वर्ष की आयु से आज तक मेरे जीवन का एक कर्तव्य है: अपनी मातृभूमि की सेवा करना।

मैं अक्सर मुंबई से प्रकाशित आफ्टरनून डिस्पैच एण्ड कूरियर‘ को दिए उस साक्षात्कार को उदृत करता हूं जिसमें प्रकाशन की ओर से 20 समान प्रश्न पूछे गए थे और उस पर आधारित अत्यन्त रोचक एवं सजीव समाचार तैयार किया गया। एक प्रश्न था ”मि. आडवाणी, आपकी सबसे बड़ी कमजोरी क्या है?” मेरा तत्काल उत्तर था: ”पुस्तकें; और सामान्य स्तर पर चॉकलेट्स”।

इसी साक्षात्कार के चलते मेरे जन्मदिवस अथवा एसे किसी अन्य खुशी के मौके पर मुझसे मिलने आने वाले लोग पुस्तकें लेकर आते हैं जिससे मेरे निजी पुस्तकालय में इजाफा होता जा रहा है।

वस्तुत: खुशवंत सिंह द्वारा लिखित खुशवंतनामा पुस्तक मुझे फरवरी, 2013 में मिली जिसने मुझे स्मरण कराया कि इस अत्यंत पठनीय पुस्तक पर मैंने अपना एक ब्लॉग ”अद्भुत लेखक:विचार प्रेरक पुस्तक” शीर्षक से लिखा। यह पुस्तक उन्होंने तब लिखी जब उन्होंनें निनयान्वें वर्ष में प्रवेश किया। अपने ब्लॉग में मैंने लिखा था”मैंने किसी और अन्य लेखक को नहीं पढ़ा जो सुबोधगम्यता के साथ-साथ इतना सुंदर लिख सकता है और वह भी इस उम्र में।”

खुशवंत सिंह अनेक वर्षों से हिन्दुस्तान टाइम्स में स्तम्भ लिखते रहे। फरवरी 2013में जब मैं उनसे  मिला तो उन्होंने 17 मार्च के हिन्दुस्तान टाइम्स में मेरे बारे में लिखा: ”जब उन्होंने (आडवाणी) सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा शुरु की और बाबरी मस्जिद के ध्वंस को देखने के बाद मैं उनका घोर आलोचक रहा हूं। एक सार्वजनिक सभा जिसे वह सम्बोधित करने वाले थे, में मैंने उनके सामने ही उनके प्रति कठोर शब्दों का उपयोग किया।” इसी प्रकार उन्होंने मेरे द्वारा उनके घर जाने के बारे में, लिखा: ”मेरे इस डर के पर्याप्त कारण मौजूद थे कि वह मुझे निशाना बनाकर कहेंगे कि जाओ जहन्नुम में …लेकिन ऐसा करने के बजाय, वह मेरे और मेरी बेटी के लिए गुलाब के फूलों का गुलदस्ता लेकर आए। मुझे स्वीकार करना पड़ा कि वह मुझसे ज्यादा अच्छे सिख हैं। वह आमिल सिंधी समुदाय से हैं जो सिख परम्पराओं को मानते हैं। हम विभिन्न विषयों पर लगभग एक घंटे तक बातचीत करते रहे लेकिन उन्होंने अपनी रथयात्रा और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया। यह पूरी तरह से एक शिष्टाचार भेंट थी यह पुष्ट करने के लिए कि मतभेदों के बावजूद हमारे सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण हैं। जैसा मैं सोचता था, वह उससे बड़े इंसान हैं।”

केवल एक उदार और सहृदय तथा दरियादिल रखने वाला व्यक्ति ही इतनी सुगमता से उस दूसरे के प्रति अपनी घृणा भूल सकता है, जिसके एक कदम से वह घोरे असहमत थे जैसाकि मेरे सम्बन्ध में (रथयात्रा)

टेलपीस (पश्च्यलेख)

 

आज का ब्लॉग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और खुशवंत सिंह के बारे में है। इससे मुझे नवम्बर 1972 में प्रतिष्ठित इलेस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इण्डिया के सम्पादक के रुप में खुशवंत सिंह द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (श्री गुरुजी) से लिए गए साक्षात्कार का स्मरण हो आया।

यह एक सकारात्मक साक्षात्कार था। लेकिन खुशवंत सिंह ने उस दिन अपने लेख की शुरुआत निम्नलिखित शब्दों से की:

कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनके बारे में जाने बिना हम उनसे घृणा करना शुरु कर देते हैं। ऐसे व्यक्तियों की मेरी सूची में सर्वप्रथम गुरु गोलवलकर आते हैं।”

खुशवंत सिंह ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख से पूछा: मुस्लिम मुद्दों पर आपके क्या विचार हैं?

श्री गुरुजी का उत्तर था: ”मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि ऐतिहासिक कारण ही अकेले मुस्लिमों की भारत और पकिस्तान के प्रति विभाजित वफादारी के लिए ही जिम्मेदार हैं। इसके अलावा मुस्लिम और हिन्दू ही इसके लिए समान रुप से दोषी ठहराए जाएंगे।

वैसे भी कुछ लोगों के दोष के लिए समूचे समुदाय को जिम्मेदार ठहराया जाना सही नहीं है। हमें मुस्लिमों की निष्ठा प्यार से जीतनी होगी। मैं आशावादी हूं और मैं मानता हूं कि हिन्दुत्व और इस्लाम एक-दूसरे के साथ रहना सीखेंगे।

लालकृष्ण आडवाणी

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